प्रज्ञापुराण, भाग २ - अध्याय १

समुद्र मंथन से विचार मंथन अधिक उपयोगी है|  समुद्र मंथन से रत्न एक बार ही निकले थे, पर विचार मंथन से रत्नों की प्राप्ति हर काल में होती रहती है|  इसलिए मनीषी लोग विचार मंथन के लिए एकत्र होते रहते हैं|  यूँ विचार मंथन अकेले भी होता है; पर जब कई मनीषी एक साथ बैठकर विचार मंथन करते हैं तो एक दूसरे के विचारों को उभारने वाली प्रेरणा से, स्फूर्ति से, सामान्य की अपेक्षा अनेक गुना लाभ मिलता है|  
- प्रज्ञापुराण, भाग २, अध्याय १ श्लोक ४-७

इस विश्व में कुछ मानव ऐसे भी हैं जो स्वयं ऊँचे उठते है, दूसरों को उठाते ,पार कराते श्रेय प्राप्त करते हैं|  ऐसे देवोपम महामानवों को यश सम्मान और सहयोग भी मिलता है|  असंख्य उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं|  इतिहासकार उनकी गुण-गाथाएँ  स्वर्णाक्षरों में लिखते हैं|
-प्रज्ञापुराण, भाग २, अध्याय १ श्लोक १७-२०  

भगवान ने सभी मनुष्य समान बनाए हैं| उस दयानिधि को सभी पुत्र समान रुप से प्यारे हैं|  सभी को उसने समान सुविधाएं तथा परिस्थितियां भी प्रदान की है| लोग अपनी इच्छा अनुसार मार्ग चुनते हैं और जहाँ  वह मार्ग जाता है, वहाँ जा पहुंचते हैं|  स्वार्थ परायण लोगों को नरपशु कहते हैं, वह अपने काम से काम रखते हैं|  दूसरों की सुख सुविधा में हाथ नहीं बटाते| जो पाते हैं, निगलते रहते हैं|  किसी के दु:ख में उन्हें सहानुभूति नहीं उपजती|  सहायता करने की इच्छा भी नहीं होती|  लोक और परलोक में अपनी ही सुविधाएं खोजते हैं|  ऐसो को किसी की सहानुभूति नहीं मिलती|  फलतः  वह एकाकी नीरस जीवन जीते हुए मौत के दिन पूरे करते हैं|
  • प्रज्ञापुराण, भाग २, अध्याय १ श्लोक २१- २७

जिनकी महत्वाकांक्षाये अतिशय बड़ी चढ़ी है, जो बड़प्पन और वैभव बटोरने के लिए आतुर हैं, जिन्हें कुबेर सा धनी, इंद्र सा सामर्थवान बनने की ललक है, वे औसत नागरिक का सामान्य जीवन जीने और संतोषपूर्वक रहने के लिए तैयार नहीं होते| गर्व और अहंकार प्रदर्शन किए बिना जिन्हें तृप्ति नहीं होती ऐसे लोग जल्दी ही संपदा बटोरने और अपना तथा परिवार का वर्चस्व बढ़ाने के लिए आतुर हो उठते हैं|
  • प्रज्ञापुराण, भाग २, अध्याय १ श्लोक २८-३१  

सौम्यता, सात्विकता को सादगी के साथ जीने होती है उसमें अधिक परिश्रमी धैर्यवान और स्वल्प संतोषी रहना पड़ता है|
- प्रज्ञापुराण, भाग २, अध्याय १ श्लोक ३३

श्रेष्ठ वृत्तियाँ अपना लेने के उपरांत मनुष्य को परमार्थ प्रयोजनों में संलग्न होने में कोई कठिनाई नहीं पड़ती|  निर्वाह और परमार्थ भली प्रकार साथ-साथ निभता रह सकता है, इसे प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं| अपने गुण-कर्म-स्वभाव का स्तर ऊंचा उठाते हैं|  एक क्षण भी निरर्थक नहीं गुजारते |समझदारी,ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी के आदर्श से जीवन को ओतप्रोत करते हैं तथा दिव्य दृष्टि प्राप्त करते हैं|
  • प्रज्ञापुराण, भाग २, अध्याय १ श्लोक ४५-४८  

आदर्शवादी जीवन क्रम में आत्मकल्याण और विश्वकल्याण के दोहरे प्रयोजन सधते देखें गए हैं|  अंतकरण में उत्कृष्टता के प्रति श्रद्धा, चिंतन में आदर्शों की पक्षधर मंगलमयी प्रज्ञा उभरती है|  फलतः ऐसी देवोपम प्रवृत्ति के लोग अपने कर्म में व्यवहार में लोकमानस के परिष्कार और सदप्रवृत्ति संवर्धन के दोनो प्रयोजनों को प्रमुखता देते हैं और अपने वंश एवं राष्ट्र में पूजे जाते हैं|
  • प्रज्ञापुराण, भाग २, अध्याय १ श्लोक ४९-५२  

महामानव स्वयं धन्य बनते हैं, संपर्क वालों को चंदन वृक्ष की तरह धन्य बनाते हैं| उनके कारण समूचा वातावरण महकने लगता है|  जलने पर भी तेज धूप की तरह सुगंध और दीप की तरह प्रकाश फैलाते हैं|  जिस काल और क्षेत्र में ऐसे लोग जानते हैं, वह भी उनकी गतिविधियों के कारण धन्य बन जाता है|   - प्रज्ञापुराण, भाग २, अध्याय १ श्लोक ५७-६१   

महापुरुष सदैव महानता के पद पर चले हैं|  अभावग्रस्त दिखने पर भी जन-जन के सम्मानास्पद बने हैं|  देवजनों का यही मार्ग है|  हमारा कर्तव्य है कि जन-जन को इसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें|  इससे उन्हें उत्कर्ष जन्य सुख मिलेगा और हम श्रेय अधिकारी बनेंगे जो बहुमूल्य कहा जाता है|
  • प्रज्ञापुराण, भाग २, अध्याय १ श्लोक ६२-६५   


महामानवों का उत्पादन इस विश्व में कल्पवृक्ष के उद्यान लगाने जैसा पुण्य फलदायक है|  उस प्रयास में हर दृष्टि से, हर किसी का, साथ ही अपना भी कल्याण है जिसे विश्व कल्याण कहना अधिक उपयुक्त है|  संयम एवं संतोष की ब्राह्मण  वृति अपनाने के उपरांत जो सामर्थ बचती है, उसे सद्प्रवृत्ती संवर्धन में लगाने, पुण्य परमार्थ में नियोजित करने वाले ही साधु कहलाते हैं|
  • प्रज्ञापुराण, भाग २, अध्याय १ श्लोक ६६-६९   

हम ऋषियों की महान परंपरा अपनाकर महामानवों के उत्पादन में निरत रहें और उसके लिए प्रवज्या की तीर्थयात्रा में जुटे रहे|  इसे लोगों को पशु प्रवृतियों और पैशाचिक उद्दंडताओं से विरत (दूर) होने का दबाव पड़ेगा|  महामानव बढ़ते हैं, तो पशु सुधरते और पिशाच सकते हैं|  तीर्थयात्रा के प्रयोजन में अब हमारी गतिविधियां समय को देखते हुए और भी अधिक बढ़ जानी चाहिए, ताकि हम लक्ष्य को प्राप्त कर सके, क्योंकि बिना इसके पृथ्वी पर सतयुग नहीं आ सकेगा|

  • प्रज्ञापुराण, भाग २, अध्याय १ श्लोक ७४-७८