वैदिक छन्दों का परिचय

वेद के विद्वानों, पाठकों और स्वाध्यायशील महानुभावों के समक्ष यह विस्तृत लेख "वैदिक-छन्द" प्रस्तुत किया जा रहा है । वैदिक छन्दःशास्त्र का विषय अतिगम्भीर और बहुत विस्तृत है । प्राचीनकाल में वैदिक छन्दःशास्त्र सम्बन्धी बहुत से ग्रन्थ विद्यमान थे । वे प्रायः कराल काल के चक्र में लुप्त हो गए । इस समय उनमें से कतिपय ग्रन्थों और ग्रन्थकारों ने ही नाम संस्कृत वाङ्मय में उपलब्ध होते हैंः------
(1.) ऋक्प्रातिशाख्य----शौनक प्रोक्त
(2.) ऋक्सर्वामुक्रमणी----कात्यायन प्रोक्त,
(3.) निदानसूत्र---पतञ्जलि प्रोक्त,
(4.) उपनिदानसूत्र---गार्ग्य प्रोक्त,
(5.) शाङ्खायन श्रौत----शांखायन प्रोक्त,
(6.) ऋगर्थदीपिका--अन्तर्गत छन्दोनुक्रमणी--वेकंट माधव प्रोक्त,
(7.) छन्दःसूत्र---पिङ्गल प्रोक्त,
(8.) छन्दःसूत्र---जयदेव प्रोक्त,
इन आठ पाठों में प्रथम 6 ग्रन्थों के मुख्य प्रतिपाद्य विषय अन्य है, इनमें प्रसंगात् वैदिक छन्दों के लक्षण और प्रपञ्च दिखाएँ हैं । केवल अन्तिम दो ग्रन्थ ही ऐसे हैं, जो विशुद्ध से छन्दोविषयक हैं । इन दोनों ग्रन्थों में वैदिक और लौकिक दोनों प्रकार के छन्द विद्यमान है ।
ऊपर जितने उपलब्ध छन्दःशास्त्रों का उल्लेख किया है, उनमें केवल पिंगल प्रोक्त छन्दोविचिति ही सर्वसाधारण है । अन्य ग्रन्थ प्रायः तत्-तत् संहिता-विशेषों से और वह भी याज्ञिक प्रक्रिया से सम्बन्ध रखते हैं । इसलिए हम वैदिक छन्दों के ज्ञान के लिए इसी ग्रन्थ से परिभाषा और उदाहरण प्रस्तुत करेंगे ।
संस्कृत वाङ्मय में छन्दःशास्त्र एक प्रमुख और महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । संसार के समस्त वाङ्मय में प्राचीन और मूर्धाभिषिक्त वेद का यह साक्षात् उपकारक है । इसलिए वेद के अर्थ-ज्ञान में साक्षात उपकारक षडंगों में इसे अन्यतम स्थान प्राप्त है । छन्दःशास्त्र वेद का पादवत् उपकारक हैः---"छन्दः पादौ तु वेदस्य" वेदार्थ का महत्त्वपूर्ण प्रासाद इसी शास्त्र की नींव पर प्रतिष्ठित है . इसलिए इस शास्त्र के सम्यक् ज्ञान के विना वेद के सूक्ष्म अर्थ की प्रतीति असम्भव है ।
छन्द पद का अर्थ
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वैदिक, लौकिक वाङ्मय में "छन्दः" पद विविध अर्थों में प्रयुक्त होता है । यथा--
वैदिक वाङ्मय में "छन्दः" पद के अनेक अर्थ उपलब्ध होते हैं । उनमें से कतिपय इस प्रकार हैः---
(1.) सूर्य---छन्द का अर्थ सूर्य हैः--
"छन्दांसि वै व्रजो गोस्थानः ।" (तैत्तिरीय-ब्राह्मण---3.2.9.3)
अर्थः---छन्द निश्चय ही व्रज (बाडा) है गोस्थान का ।
यहाँ "गो" शब्द रश्मियों का वाचक है । रश्मियों का स्थान बाडा सूर्य ही है ।
("यत्र गावो भुरिशृंगा अयासु"---ऋग्वेदः---1.154.6)
(2.) सूर्यरश्मि--
ब्राह्मण-ग्रन्थों में सूर्य की रश्मियों के लिए भी छन्द पद का प्रयोग असकृत उपलब्ध होता है । यथा--
"अन्नं वाव पशवः, तान्यस्मा (प्रजापतये) अच्छदर्यस्तानि यदस्मा अच्छदर्यस्तस्माच्छन्दांसि ।" (शतपथ-ब्राह्मणः--8.5.2.1)
अर्थः---अन्न ही पशु है, उन्होंने प्रजापति को आच्छादित किया । जो इसको आच्छादित किया, इससे इनको "छन्द" कहते हैं ।
शतपथ के इस प्रकरण में प्रजापति शब्द से आदित्य ही अभिप्रेत है । आदित्यरूपी प्रजापति को आच्छादित करने वाले पशु अथवा अन्न रश्मियाँ ही हैं । इसका स्पष्टीकरण अगले ब्राह्मण में इस प्रकार किया हैः---
"एष वै रश्मिरन्नम् ।" (शतपथ-ब्राह्मण---8.5.3.3)
अर्थः---यह निश्चय ही रश्मि ही अन्न है ।
ऐतरेय-ब्राह्मण (2.18) में छन्दों को प्रजापति का अङ्ग कहा है---
"प्रजापतेर्वा एतान्यङ्गानि यच्छन्दांसि ।"
अर्थः---इससे स्पष्ट है कि प्रजापति--आदित्य के साथ सम्बन्ध रखने वाले आधिदैविक छन्द उसकी अङ्गभूत रश्मियाँ ही है ।
वैदिक रहस्य का पुराणों में स्पष्टीकरण---
उक्त वैदिक रहस्य का स्पष्टीकरण पुराणों में इस प्रकार किया हैः---
"छन्दोभिरश्वरूपैः ।" (वा.पु.--52.45)
"छन्दोरूपैश्च तैरश्वैः ।" (म.पु.--125.42)
"छन्दोभिर्वाजिनरूपैस्तु ।" (वायु--51.57) (म.---124.4)
हयाश्च सप्त छन्दांसि ।" (वि.पु.--2.8.7)
पुराणों के इन वचनों से स्पष्ट है कि सूर्य के प्रसिद्ध सात अश्व रश्मियाँ ही छन्द है । सूर्यरश्मि के अर्थ में छन्दः पद का प्रयोग ऋग्वेद में भी उपलब्ध होता है । यथा-- "श्रिये छन्दो न स्मयते विभाती ।" (ऋग्वेदः---1.92.6)
अर्थः----श्री (प्रकाश) के लिए छन्द के समान (उषा) मुस्कुराती है , प्रकाश करती हुई ।
(3.) सप्त धाम---
माध्यन्दिन संहिता (17.79) की व्याख्या करते हुए शतपथ-ब्राह्मण (9.2.3.44) में लिखा हैः---
"छन्दांसि व अस्य (अग्नेः) सप्त धाम प्रियाणि ।"
अर्थः---छन्द ही निश्चय से इस (अग्नि) के सात धाम प्रिय है ।
(4.) अग्नि की प्रिया तनू----
तैत्तिरीय संहिता (5.2.1) में तित्तिरि का प्रवचन है---
"अग्नेर्वै प्रिया तनू छन्दांसि ।"
अर्थः---अग्नि की प्रिय तनू ही छन्द है ।
वैदिक साहित्य में इसी प्रकार अनेक अर्थों में छन्दः पद का प्रयोग मिलता है ।
(5.) वेदविशेष---
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपनी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में यजुर्वेद (31.7) का व्याख्यान करते हुए छन्दांसि का अर्थ अथर्ववेद किया है---
"(छन्दांसि) अथर्ववेदश्च । ...........वेदानां गायत्र्यादिछन्दोन्विततया पुनश्छन्दांसीति पदं चतुर्थस्याथर्ववेदस्योत्पत्तिं ज्ञापयतीति अवधेयम् ।"
(ऋग्वेदादि. वेदोत्पत्ति-प्रकरण)

साभार http://www.vaidiksanskritk.com/