आरण्यक-परिचय

आरण्यक का अर्थ
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आरण्यक का अर्थ है---"अरण्ये भवम्, आरण्यकम् ।" अर्थात् अरण्य (वन) में होने वाला । अभिप्राय यह है कि अरण्य में होने वाला अध्ययन , मनन, चिन्तन, शास्त्रीय चर्चा और आध्यात्मिक-विवेचन ।
आचार्य सायण के अनुसार आरण्यक का अर्थ है---
"अरण्याध्ययनादेतद् आरण्यकमितीर्यते ।
अरण्ये तदधीयीतेत्यैवं वाक्यं प्रवक्ष्यते ।।" (तैत्तिरीयारण्य--भाष्य--६) अर्थ---अरण्य में इसका पठन-पाठन होने के कारण इसे आरण्यक कहते हैं ।
आरण्यकों में आत्मविद्या, तत्त्वचिन्तन और रहस्यात्मक विषयों का वर्णन है । आरण्यकों को "रहस्य" भी कहा जाता है---"सर्वे वेदाः----सरहस्याः सब्राह्मणाः सोपनिषत्काः ।" (गोपथ-ब्राह्मण---१.२.१०) निरुक्त के टीकाकार दुर्गाचार्य ने भी आरण्यकों को "रहस्य" कहा है----"ऐतरेयके रहस्यब्राह्मणे" (निरुक्त-भाष्य---१.४) आरण्यकों में यज्ञ का गूढ रहस्य और ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन है, अतः इन्हें "रहस्य" कहा जाता है ।
आरण्यकों का उद्भव
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वैदिक संहिताओं के पश्चात् क्रम में ब्राह्मण ग्रन्थ आते हैं । ब्राह्मणों के बाद आरण्यक आते हैं और उसके बाद उपनिषद् । आरण्यक , ब्राह्मण-ग्रन्थों के पूरक हैं । एक ओर आरण्यक ब्राह्मणों के परिशिष्ट के रूप में हैं तो दूसरी ओर उपनिषद् आरण्यकों के अंश हैं । इस प्रकार कहा जा सकता है कि आरण्यकों का प्रारम्भिक भाग ब्राह्मण हैं और अन्तिम भाग उपनिषद् है । ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् इतने मिश्रित हैं कि उनके मध्य किसी प्रकार की सीमारेखना खींचना अत्यन्त कठिन है ।
वेदों और ब्राह्मण-ग्रन्थों में यज्ञों का विस्तृत वर्णन है । ब्राह्मणों में तो यज्ञ अत्यन्त कष्टसाध्य, दुर्बोध और नीरस है, इतना ही नहीं वह यज्ञ अत्यन्त खर्चालु है , अर्थात् इनके आयोजन के लिए अधिक धन की आवश्यकता होती है । अतः इन्हें केवल, गृहस्थी, राजा और धनी व्यक्ति ही कर सकता था ।
दूसरी ओर दुर्बोधता से बचने के लिए आरण्यकों की रचना की गई । इनमें यज्ञों का विधि-विधान अत्यन्त सरल और कम साधनों के लिए हैं । इन्हें ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी भी कर सकते हैं।
आरण्यकों का महत्त्व
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वैदिक तत्त्वमीमांसा के इतिहास में आरण्यकों का विशेष महत्त्व स्वीकार किया जाता है। आरण्यक, ब्राह्मण-ग्रन्थों और उपनिषदों को जोडने वाली कडी है । ब्राह्मण-ग्रन्थों में जो यज्ञों के दार्शनिक और आध्यात्मिक पक्ष का जो अंकुरण हुआ है, उसका पल्लवित रूप आरण्यकों में ही है । इनमें यज्ञ के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन किया गया है। इनमें मुख्य रूप से आत्मविद्या और रहस्यात्मक विषयों के विवरण हैं। वन में रहकर स्वाध्याय और धार्मिक कार्यों में लगे रहने वाले वानप्रस्थ-आश्रमवासियों के लिए इन ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राणविद्या की महिमा का विशेष प्रतिपादन किया गया है। प्राणविद्या के अतिरिक्त प्रतीकोपासना, ब्रह्मविद्या, आध्यात्मिकता का वर्णन करने से आरण्यकों की विशेष महत्ता है। अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तथ्यों की प्रस्तुति के कारण भी आरण्यक ग्रन्थ उपोदय हैं। वस्तुतः ये ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों को जोड़ने वाली कड़ी जैसे हैं, क्योंकि इनसे उपनिषदों के प्रतिपाद्य विषय और भाषा शैली के विकास का अध्ययन करने में सहायता मिलती है।
साधारण गृहस्थियों के लिए आरण्यक अत्यन्त उपादेय है ।
आरण्यकों का प्रतिपाद्य विषय
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आरण्यकों का प्रतिपाद्य विषय आत्मा-परमात्मा का आध्यात्मिक ज्ञान ही है ।
आरण्यकों में यज्ञों का आध्यात्मिक और दार्शनिक पक्षों का विवेचन किया गया है । आरण्यक ग्रन्थों में प्राणविद्या की महिमा का विशेष प्रतिपादन किया गया है। यहाँ प्राण को कालचक्र बताया गया है । दिन और रात्रि प्राण एवम् अपान है । प्राण की ब्रह्मा के रूप में उपासना करनी चाहिए ।
मैत्रायणी आरण्यक में प्राण को अग्नि और परमात्मा बताया गया है---"प्राणोSग्निः परमात्मा ।" (मै.आ. ६.९) तैत्तिरीय आरण्यक में काल का विशद वर्णन प्राप्त होता है । यज्ञोपवीत का सर्वप्रथम उल्लेख तैत्तिरीय-ब्राह्मण (३.१०.९--१२) में प्राप्त होता है । तैत्तिरीयारण्यक (२.१.१) में यज्ञोपवीत का महत्त्व बताया गया है । यज्ञोपवीत धारण करके जो यज्ञ, पठन आदि किया जाता है, वह सब यज्ञ की श्रेणी में आता है ।
आजकल "श्रमण" शब्द का अधिकांश प्रयोग बौद्ध भिक्षु करते हैं, किन्तु इसका सर्वप्रथम प्रयोग तैत्तिरीयारण्क और बृहदारण्यकोपनिषद् (४.३.२२) में प्राप्त होता है---"वातरशना ह वा ऋषयः श्रमणा ।" (तै.आ. २.७.१) संन्यासियों के लिए परिव्राट या परिव्राज शब्द का प्रयोग होता । यह शब्द प्रव्रज्या से बना है । प्रव्रज्या का अभिप्राय है ब्रह्मज्ञान के लिए घर छोडकर वन की ओर प्रस्थान करना । इसका प्रथम प्रयोग बृहदारण्यक में हुआ है---"एतमेव विदित्वा मुनिर्भवति । एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्ति ।" (बृ.आ. ४.४.२२) आरण्यकों में ऐतिहासिक तथ्यों का भी अत्यल्प प्रयोग हुआ है । गंगा-यमुना के मध्यवर्ती प्रदेश को आरण्यकों में अत्यन्त पवित्र बताया गया है । इसी भाग में कुरुक्षेत्र और खाण्डव वन भी है--"नमो गंगायमुनयोर्मध्ये य वसन्ति. ।" (तै.आर. २.२०)
शांखायन आरण्यक में उशीनर, कुरु-पांचाल, मत्स्य , काशी और विदेह जनपदों का वर्णन प्राप्त होता है----"उशीनरेषु, मत्स्येषु, कुरुपांचालेषु, काशीविदेहेषु ।" (शा.आर. ६.१) मैत्रायणी आरण्यक (१.४) में भारत के चक्रवर्ती सम्राटों के नाम मिलते हैं ।
आरण्यकों के रचयिता
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आरण्यक ब्राह्मण-ग्रन्थों का ही एक भाग है । अतः आरण्यकों के रचयिता ब्राह्मण के रचनाकार ही माने जाते हैं । कुछ आरण्यकों के रचनाकार इस प्रकार है---
ऐतरेय-ब्राह्मण के रचनाकार महिदास ऐतरेय है । वही ऐतरेय-आरण्यक के भी रचनाकार हैं----"एतद् ह स्म वै तद् विद्वान् आह महिदास ऐतरेयः ।" (ऐ.आ. २.१.८)
ऐसा माना जाता है कि ऐतरेय आरण्यक के चतुर्थ आरण्यक के प्रवक्ता आश्वलायन और पञ्चम आरण्यक के प्रवक्ता शौनक ऋषि हैं । शांखायनारण्यक के प्रवक्ता गुण शांखायन हैं । इनके गुरु का नाम कहोल कौषीतकि था ---"गुणाख्यात् शांखायनाद् अस्माभिरधीत्, गुणख्यः शांखायनः कहोलात् कौषीतकेः ।" (शा.आ. १) बृहदारण्यक के प्रवक्ता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं । ये सम्पूर्ण शतपथ-ब्राह्मण के भी प्रवक्ता हैं । उसी ब्राह्मण का अन्तिम भाग बृहदारण्यक है । कृष्ण-यजुर्वेदीय तैत्तिरीयारण्यक के प्रवक्ता कठ ऋषि हैं । मैत्रायणीयारण्यक भी कृष्णयजुर्वेदीय है । इसके प्रवक्ता भी कठ ऋषि ही हैं , क्योंकि मैत्रायणीयों की गणना १२ कठों के अन्तर्गत होती है । तलवकार आरण्यक जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण ही है । इसके प्रवक्ता आचार्य जैमिनि ही है ।
उपलब्ध आरण्यक ग्रन्थ
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सम्प्रति ६ आरण्यक उपलब्ध है ।
(१.) ऋग्वेदीय-आरण्यक
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ऐतरेय आरण्यक, कौषीतकि आरण्यक या शांखायन आरण्यक
(२.) शुक्ल-यजुर्वेदीयारण्यक
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बृहदारण्यक । यह माध्यन्दिन और काण्व दोनों शाखाओं में प्राप्य है ।
(३.) कृष्ण-यजुर्वेदीयारण्यक
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तैत्तिरीय आरण्यक
मैत्रायणी आरण्यक
(४.) सामवेदीयारण्यक
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सामवेद की जैमिनिशाखा का तलवकारारण्यक है । इसको जैमिनीय-उपनिषद् ब्राह्मण भी कहते हैं । सामवेद की कौथुम शाखा का पृथक् आरण्यक नहीं है । छान्दोग्य उपनिषद् कौथुम-शाखा से सम्बद्ध है । इसके ही कुछ अंशों को छान्दोग्य आरण्यक कहा जाता है ।  
(५.) अथर्ववेद
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अथर्ववेद का कोई पृथक् आरण्यक नहीं है । गोपथ-ब्राह्मण के ही ब्रह्मविद्या-परक कुछ अंशों को आरण्यक कह सकते हैं ।
 
प्रमुख आरण्यक

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आरण्यकों के मुख्य ग्रंथ निम्नलिखित है :--
(१.) ऐतरेय आरण्यक
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इसका संबंध ऋग्वेद से है। ऐतरेय के भीतर पाँच मुख्य अध्याय (आरण्यक) हैं , इन्हें प्रपाठक भी कहा जाता है । प्रपाठक अध्यायों में विभक्त है । इसके प्रथम तीन आरण्यक के रचयिता ऐतरेय, चतुर्थ के आश्वलायन तथा पंचम के शौनक माने जाते हैं। डाक्टर कीथ इसे निरुक्त की अपेक्षा अर्वाचीन मानकर इसका रचनाकाल षष्ठ शताब्दी विक्रमपूर्व मानते हैं, परंतु वस्तुत: यह निरुक्त से प्राचीनतर है। ऐतरेय के प्रथम तीन आरण्यकों के कर्ता महिदास हैं इससे उन्हें ऐतरेय ब्राह्मण का समकालीन मानना न्याय्य है। इस आरण्यक में प्राणविद्या, प्रज्ञा का महत्त्व, आत्मस्वरूप का वर्णन, वैदिक-अनुष्ठान, स्त्रियों का महत्त्व , शास्त्रीय महत्त्व और आचार-संहिता के बारे में विस्तार से वर्णन है ।
(२.) शांखायन
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इसका भी संबंध ऋग्वेद से है। यह ऐतरेय आरण्यक के समान है तथा पंद्रह अध्यायों में विभक्त है जिसका एक अंश (तीसरे अ. से छठे अ. तक) कौषीतकि उपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है। इसके सातवें और आठवें अध्याय को संहितोपनिषद् कहते हैं । इसी को कौषीतकि-आरण्यक भी कहा जाता है । इसमें आध्यात्मिक-अग्निहोत्र का वर्णन विस्तार से किया गया है । इसमें आचार्यों की वंश-परम्परा भी दी गई है ।

(३.) बृहदारण्यक

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वस्तुत: शुक्ल युजर्वेद का एक आरण्यक ही है । यह शतपथ-ब्राह्मण के अन्तिम १४ वें काण्ड के अन्त में दिया गया है । इसको आरण्यक की अपेक्षा उपनिषद् के रूप में अधिक मान्यता प्राप्त है । परंतु आध्यात्मिक तथ्यों की प्रचुरता के कारण यह उपनिषदों में गिना जाता है।
(४.) तैत्तिरीय आरण्यक

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यह कृष्ण-यजुर्वेदीय तैत्तिरीय-शाखा का आरण्यक है । यह दस परिच्छेदों (प्रपाठकों) में विभक्त है, जिन्हें "अरण" कहते हैं। प्रपाठकों के उपविभाग अनुवाक है । प्रपाठकों का नामकरण उनके प्रथम पद के आधार पर किया गया है । इनमें सप्तम, अष्टम तथा नवम प्रपाठक मिलकर "तैत्तिरीय उपनिषद" कहलाते हैं। प्रपाठक १० को महानारायणीय-उपनिषद् कहा जाता है । इस प्रकार १ से ६ प्रपाठक तक ही तैत्तिरीयारण्यक है ।

(५.) मैत्रायणीय आरण्यक
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यह कृष्ण-यजुर्वेदीय मैत्रायणीय शाखा का आरण्यक है । इसको मैत्रायणीय उपनिषद् भी कहते हैं । यह मैत्रायणी संहिता के परिशिष्ट के रूप में अन्त में उपलब्ध है । इसमें ओ३म् का महत्त्व, ब्रह्म के अनेक रूप, चक्रवर्ती राजाओं के नाम , मन का महत्त्व , ज्ञान के विघ्न, जीवात्मा आदि के बारे में बताया गया है ।

(5.) तवलकार (आरण्यक)
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यह सामवेद की जैमिनि-शाखा का आरण्यक है। इसको जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण भी कहते हैं । इसमें चार अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में कई अनुवाक। चतुर्थ अध्याय के दशम अनुवाक में प्रख्यात तवलकार (या केन) उपनिषद् है।

साभार http://www.vaidiksanskritk.com/