ऋषियों की सम्मति से प्राप्त देवपूजा जो प्राणिमात्र के लिए योग्य है और फर्ज है

बहुत पुरातन काल में हमारे ऋषि-मुनियों की एक सभा हुई, उस सभा में ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मविचारक, ब्रह्मचारी और ब्रह्मश्रोत्रीय और जिज्ञासु उस सभा में विद्यमान थे।

तो सभा जब एकत्रित हुई तो उसमें महर्षि श्वेताश्वेतर ने उस सभी की  अध्यक्षता की और यह कहा कि यह जो समाज है, साधारण समाज, यह  कैसे ऊँचा बने? कौन-सा कर्म ऐसा है, जिस को अपनाने के पश्चात्  अपना आत्मोत्थान हो? तो इसके ऊपर विचार-विनिमय किया जाये कि कौन-सा ऐसा कार्य हो ?

इसमें भिन्न-भिन्न ऋषियों के विचार,  देवपूजा के सम्बन्ध में सभा में प्रकट हुए।  महर्षि प्रह्नण जी उपस्थित हुए और प्रह्नण जी ने यह कहा कि ‘‘मेरे विचार में यह आता है कि जन-समूह के लिए एक पद्धति बना देनी चाहिए और जिस पद्धति के आधार पर वह अपने जीवन को सदैव नवीन स्वीकार करता रहे’’ ।उन्होंने कहा, ‘‘मेरे विचार है कि यह जो देवपूजा का कृत्य है, यह ऋषि-मुनियों का और वैदिकता का एक, बालमनोवृत्ति  कहलाता है, इसके ऊपर विचार-विमर्श  होना चाहिए’’।  

यह वाक्य स्वीकार किया गया और सभी विचारने लगे कि यह पद्धति कैसे बने?

अपने विचार देते हुए महर्षि वैशम्पायन ब्रह्मवेत्ता ने यह कहा कि-           “जितनी भी मानवीय पद्धति है, उन पद्धतियों में एक मानव-कर्मकाण्ड की स्थापना होनी चाहिए, क्योंकि कर्मकाण्ड में ही मानव कटिबद्ध हो करके, उन क्रियाओं में सफलता को प्राप्त कर सकता है। जिन क्रियाओं में देवताओं का समूह विद्यमान रहता है।”

यह निर्णय देते हुए इस सन्दर्भ में पुनः विचार-विमर्श होने लगा। ऋषि-मुनियों में एक उत्साह, एक उल्लास इस पद्धति के लिए था तो नाना ऋषि-मुनियों ने एक ही अपना विचार दिया कि देवपूजा होनी चाहिए।

जड़-चतेन देवता

देवता कौन-कौन हैं? उन देवताओं की गणना में लग जाना चाहिए। उन देवताओं के लिए निर्णय देने के लिए शुभावेतु ऋषि महाराज ने कहा कि ‘‘यह जो मानवीय पद्धति है, ‘अस्वतम् देव-पूजा’ है, देवता हमारे दो प्रकार के होते हैं, एक जड़वत होता है और एक चतेनावत होता है।

चतेना में हमारे देवता पितर कहलाते हैं, जैसे माता है, पिता है, आचार्यजन हैं, अतिथिजन हैं, ब्रम्हवर्चस्वी जन हैं, पुरोहितजन हैं, जो मानव को उर्ध्व शिक्षा देते है , वे हमारे मानो देवता कहलाते हैं और उन देवताओं के प्रति हमें अगाध प्रीति रहनी चाहिए। उनका पूजन करना चाहिए।  

चेतन देवताओं की पूजा एवं  पूजन का अभिप्राय
पूजन कहते हैं, उनका यथोचित स्वागत किया जाये और उनको अपने हृदय में, उनके ज्ञान और विज्ञान की प्रतिभा को अपने में धारण  करते हुए वह, मानव उसका प्रसार, उसका चलन करता है, वह उनकी आज्ञा का पालन करता है, तो उनको पूजा कहा जाता है।

पूजा का अभिप्रायः यह नहीं है कि हम उसके चरणों की वन्दना कर रहे हैं और उसकी आज्ञा का पालन नहीं कर रहे है। तो चरणों की वंदना से कोई लाभ नहीं है, देखो वह लाभप्रद नहीं है, लाभप्रद उसी काल में होगा जब भी मानो उसके विचारों को ओर उसकी मान्यताओं को ऊँचा बनाने का प्रयास करेगा।

  • महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज के प्रवचनों से साभार

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कैसे दे अपने बच्चों को वैदिक शिक्षा ?

यो तो शिक्षा के नाम पर आज जगह जगह देशी विदेशी  स्कूलों की बाढ़ आ गयी है, शिक्षा की गुणवत्ता का दावा करने वाले ये संस्थान जिस तरह की शिक्षा दे रहे है उस शिक्षा का परिणाम चारों और भ्रष्टाचार, मूल्यहीनता, अश्लीलता, अकेलापन और संदेह भरा दिशा विहीन जीवन के रूप में ही सामने आ रहा है । 
ऐसे में एक स्वाभाविक सा प्रश्न उठता है की क्या यह वही शिक्षा है जो प्राचीन भारत के बच्चों को मिला करती थी जब हमारा देश विश्वगुरु था? 

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प्रभु सान्निध्य से प्रभु तुल्य दीप्त बनें


प्रभु की निकटता पा लेने पर हमारा भय दूर होगा । सब प्रकार के धन एश्वर्यों के हम स्वामी बन जावेंगे । सब प्रकार का सुख - वैभव तथा अनन्द हमें मिलेगा तथा हम प्रभु के ही समान दीप्त हो जावेंगे । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है : -

इन्द्रेणसंहिदृक्षसेसंजग्मानोअबिभ्युषा।
मन्दूसमानवर्चसा॥ ऋ01.6.7

यह मन्त्र चार बातों को इंगित करते हुए कहता है , उपदेश करता है कि :
 
१. प्रभु के समीप रह ऐश्वर्यों के स्वामी बनें 

हे मानव निरन्तर प्रभु स्तवन कर , पिता का स्मरण कर , उसका कीर्तन कर तथा उसकी समीपता प्राप्त कर । तूं उस भय रहित , उस परम एशवर्यशाली प्रभु के मेल को प्राप्त होगा तथा उस की निकटता पाते हुए हे प्राणी तू ! निश्चय से ही उस की उपासना से ,. उस की निकटता से उन्नत होते हुए निरन्तर आगे ही बढता जाता है । 

हम जिस पिता के आराधक है , वह पिता सब प्रकार के भय से , सब प्रकार के डर से रहित होता है । जब हमारा पिता ही भयभीत नहीं होता तो उसके निकट रहने के कारण हमें भी किसी प्रकार का भय सता नहीं सकता । हम भी भय से रहित हो जाते हैं । वह तो भय के लवलेश से भी रहित होता है । उसे किंचित सा भय भी नहीं होता । 

वह पिता परमैश्वर्यशाली होता है , सब प्रकार के एश्वर्यों का स्वामी होता है । उसकी निकटता के कारण हम भी एश्वर्यों के स्वामी बनते हैं । यह सब उस प्रभु के समीप स्थान पाने से होता है , यह मेल उसकी उपासना का ही परिणाम होता है । जब हम उस पिता से मेल कर लेते हैं , उससे निकटता पा लेते हैं तो हम भी आगे बढने लगते हैं तथा उन्नत होने के अधिकारी बन जाते हैं । 

२. प्रभु के निकट रह भय मुक्त हों 

यह एक स्वाभाविक नियम है कि जिस का साथी भय रहित होता है , उसके सान्निध्य के कारण वह भी सब प्रकार के डर से मुक्त हो जाता है । यह भी सत्य है कि जिसका मित्र सब प्रकार के एश्वर्यों का स्वामी होता है उस का यह साथी भी एश्वर्यों को प्राप्त करने में सशक्त हो जाता है । इस लिए हे प्राणी ! तूं उस प्रभु का सान्निध्य प्राप्त कर , उस प्रभु का गुणगान कर , उसकी उपासना ओर उसका कीर्तन कर ताकि तूं भी उस प्रभु के ही समान भय से मुक्त हो जावे तथा धन एशवर्य से सम्पन्न हो जावे । 

३.प्रभु गुणगान से आनंद प्राप्ति 

हम जानते हैं कि निर्भय व्यक्ति सदा आनन्दित रहता है । जो आनन्दित रहता है , वह ही धन व एश्वर्य का स्वामी हो सकता है , अधिकारी हो सकता है , अन्य नहीं । हम यह भी जानते हैं कि हमारा वह पिता कभी भयभीत नहीं होता । वह तो है ही भय रहित । वह प्रभु सदा आनन्द मय ही रहता है क्योंकि वह भय से रहित है । वह परम पिता सदा आनन्द मय होता है इसलिए वह एश्वर्य से भरा रहता है । 

जब हम उस पिता के निकट जा कर उस का चिन्तन करते हैं तो हम भी भय से दूर हो जाते हैं , भय से रहित हो जाते हैं । भय रहित होने से हमारा जीवन भी आनन्द से भर जाता है तथा हम भी आनन्द से सम्पन्न हो कर अनेक प्रकार के धन एश्वर्यों को पाने में सक्षम हो जाते हैं , अनेक प्रकार के एश्वर्यों को पाकर सुखी हो जाते हैं । इस लिए सुख के अभिलाषी प्राणी को सदा प्रभु के समीप जा कर उस का गुणगान करना चाहिये ।

४. प्रभु स्तवन से दीप्ती जब हम प्रभु की निकटता पाने में सफ़ल हो जाते हैं तो जिस प्रकार वह प्रभु दीप्ति से भर पूर दिखाई देता है , उस प्रकार हम भी दीप्त ही दिखाई देते हैं । प्रभु की आभा तथा हमारे मुख मण्ड्ल की आभा , चमक , दीप्ति एक समान ही दिखाई देती है । जिस प्रकार एक यज्ञकर्ता , एक होता , एक यज्ञमान , जब यज्ञ कर रहा होता है , अग्नि के सम्मुख बैठा होता है , उस समय उस की आभा , उसका मुख मण्डल भी अग्नि का सा ही हो जाता है । 

जैसा तेज अग्नि का होता है , यज्ञकर्ता भी वैसा ही दिखाई देता है । इस प्रकार अग्नि व उस अग्नि का उपासक दोनों ही समतुल्य दीप्ति वाले दिखाई देते हैं । इस प्रकार ही जब हम उस पिता के समीप आसन लगा लेते है तो हम भी उस पिता के से ही तेज वाले बन जाते हैं । 

यदि वेदान्त दर्शन की मानें तो हम इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रभु का सान्निध्य पाने से , उसकी निकटता पाने से प्रभु के निकट जाने वाले प्राणी में भी वैसे ही गुण आने लगते हैं , जैसे उस प्रभु में होते हैं । इस प्रकार वह भी परमात्मा जैसा ही बन जाता है । बस अब प्रभु में ओर जीव में यह अन्तर ही रह जाता है कि प्रभु तो सृष्टि का निर्माण कर सकता है किन्तु जीव यह कार्य नहीं कर सकता क्योंकि सृष्टि के निर्माता होने के लिए उसका निराकार होना तथा सर्वशक्तिमान होना आवश्यक होता है , जो यह गुण है वह जीव कभी प्राप्त नहीं कर सकता । अन्य गुणों में वह प्रभु के बहुत निकट चला जाता है ।

डा. अशोक आर्य 

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यज्ञीय बन प्राणायाम पूर्वक प्रभु अर्चन करें

हम अपने जीवन को यज्ञमय बनाकर परोपकार में लगावें । एसे पवित्र जीवन वाले बनकर हम प्राण - साधना अर्थात प्राणायाम पूर्वक उस पिता का अर्चन करें, स्मरण करें । इअ प्रकार हम प्रभु के सहस से उठकर सह्स्वान बने । इस बात की ओर ही यह मन्त्र इस प्रकार संकेत कर रहा है :-

अनवद्यैरभिद्युभिर्मखःसहस्वदर्चति।
गणैरिन्द्रस्यकाम्यैः॥ ऋ01.6.8 


इस मन्त्र में पांच बातों पर चर्चा करते हुए कहा गया है कि : -

१. प्रभु स्तवन हममे साहस बनें 

प्रभु की उपासना करने वाला उस पिता का उपासक सदा गतिशील होता है । इतना ही नहीं यह उपासक कर्मशील भी होता है । वह निरन्तर गतिमान बने हुए कर्म करता है तथा एसा पुरुष मरुतों के साथ , मरुतों के सहाय से उस पिता की सबल अर्थात पूर्ण बल से , पूर्ण शक्ति से अर्चना करता है । प्रभु अर्चना की पह्चान क्या है ? प्रभु अर्चना की तो पहचान यह ही है कि उसके उपासक में . उसके भक्त में "साहस " उत्पन्न हुआ या नहीं । सह्स की उत्पति ही तो उसकी पह्चान है । प्रभु सहोअसि हैं , वह पिता साहस के पुन्ज हैं । उनके पास साहस का अपरिमित भण्डार है । जब एक उपासक उस साहस के भण्डारी की उपासना करता है तो उस में भी उस पिता के गुण आने लगते हैं । जो उस पिता का उपासक होता है , उस में उस पिता के गुणों का आघान होना ही होता है । इस कारण उपासक में साहस की उत्पति निश्चित रुप से होनी ही चाहिए ।

२. प्राण साधना से वासनाओं का नाश 

जिन प्राणों की साधना से अथवा यूं कहें कि जिस प्रणायाम के द्वारा अपने शरीर को पवित्र कर इस साधना पूर्वक इन्द्र प्रभु की अर्चना करता है ( इन्द्र क्या है ? अपने आप को किसी विशेष कर्म में सर्वज्ञ बनाना , पूर्ण निपुण करना ही इन्द्र है , किसी कर्म में पारंगत व्यक्ति को उस विषय का, उस कर्म का इन्द्र कह सकते हैं । जब एक व्यक्ति अप्रिमित साधना से , पूर्ण साधना से अपने विषय की विशेषज्ञता , मर्मज्ञता पा लेता है तो उसे उस विषय का इन्द्र कहा जा सकता है ) एसे व्यक्ति के प्राण, एसे व्यक्ति के श्वास से वासनाओं का नाश हो जाता है , यह व्यक्ति वासनाओं से रहित हो जाता है । इस का ही परिणाम होता है कि मानव जीवन पाप रहित हो जाता है , इस के जीवन में पाप नहीं होते । वासनाएं पाप का कारण होती है जब उसमें वासना ही नहीं है तो पाप कौन करेगा ? अर्थात पाप होंगे ही नहीं ।

३. प्राण साधना से उर्ध्वरेता 

यह प्राण अर्थात प्राणायाम से मानव उर्ध्वरेता होता है । भाव यह है कि प्राण साधना से मानव उपर की ओर, आकाश की ओर जाता है क्योंकि यह प्राण उसे आकश की ओर ले जाने वाले होते हैं । यह तो वासना विनाश का एक स्वाभाविक कारण होता है । वासना की यह एक स्वाभाविक गति है कि वासना मानव के विनाश का कारण होती है तथा प्राण साधना वासना के विनाश का कारण होती है । 

जो व्यक्ति प्राण साधना पूर्वक वासनाओं का विनाश करने में सफ़ल हो जाता है तो वह इतना उपर उठ जाता है कि अब उसके यह प्राण उसे आकाश की ओर ले जाने के योग्य बन जाते हैं । वासना को व्रत्र भी कहते हैं , जिसका भाव पर्दे से होता है । इस कारण हम कह सकते हैं कि वासना एक पर्दे के समान होती है । जब तक हमारी आंखों पर वासना रुपी पर्दा पडा हुआ है , तब तक हम किसी भी प्रकार का प्रकाश नहीं देख सकते । ज्यों ही हम प्राण साधना की सहायता से इस वासनाओं के परदे को ह्टाने में सफ़ल हो जाते हैं त्यों ही ज्ञान का प्रकाश हमारे अन्दर प्रवेश करता है , ज्ञान का प्रकाश हमें दिखाई देता है । 

४. प्राण जीवात्मा को चाहने वाले 

प्राण को गण भी कहते हैं क्यों ? क्योंकि प्राण कभी एक नहीं होता । हम जो श्वासें लेते हैं इन्हें ही प्राण कहा जाता है , हम जो जीवित हैं , इन प्राणों के ही कारण हैं । श्वास निरन्तर चलते हैं , इस कारण यह एक हो ही नहीं सकते यह अनेक होने के कारण इन्हें यहां गण कहा गया है । अत; हमारे यह प्राण गण हें, अनेक हैं । यह संख्यान के योग्य हैं । इनकी संख्या होती है । संख्या उस की ही हो सकती है , जो एक से अधिक हो । अत: यह प्राण संख्या में आने वाले होते हैं । 

संख्यान के योग्य होने से ही हमारे यह प्राण प्रशंसनीय भी होते हैं । इस कारण ही यह प्राण जीवात्मा को चाहने वाले भी होते हैं । जब तक प्राण चलते हैं , तब तक ही उनका जीवात्मा से मेल बना रह सकता है । इसलिए प्राण जीवात्मा को चाहने वाले होते हैं । 

कौन से प्राण चाहने के योग्य होते हैं ? वह प्राण जो मनुष्य को उतम जीवन वाला बनाने में सहायक हों । जो प्राण मनुष्य को उतम जीवन वाला न बना सकें उन प्राणों का क्या उपयोग है । इस कारण ही तो कहा जाता है कि मनुष्य प्रति दिन शुभ महुर्त से उठकर बाहर भ्रमण को जावे किसी नदी के तट पर या किसी बगीचे में जा कर आसन प्राणायाम करे , प्राण साधना करे ताकि उस के अन्दर शुद्ध आक्सीजन से युक्त प्राण वायु प्रवेश करे । एसी उतम वायु के प्राण के प्रवेश से वह उतम जीवन वाला बनता है , स्वस्थ शरीर वाला बनता है ।

 अत: यह शुद्ध प्राण ही उसे उतम जीवन वाला बनाने में सहायक होते हैं । एसे उतम जीवन वाला होने से ही वह उत्कर्ष की ओर , उन्नति की ओर जाने वाला बनता है । इस प्रकार निरन्तर उपर उठते हुए वह परमात्मा से मिलाने का कारण भी बनते हैं । 

५. पवित्र कर्मों से यज्ञशील बनें 

इस प्रकार जो व्यक्ति प्राण की साधना पूर्वक अपना जीवन चलाता है , एसा व्यक्ति पवित्र कर्मों वाला होता है , एसे व्यक्ति के किये गए कर्म सदा पवित्र ही होते है । एसा होते हुए वह यज्ञशील होता है अर्थात वह प्रतिदिन तथा प्रतिक्षण अनेक प्रकार के यज्ञों को करता रहता है । प्रात: सायं तो हवन के रुप में यज्ञ करता ही है , इस के साथ ही दिन भर के कर्मों में भी यज्ञीय भावना को बनाये रखता है । दूसरों की सहायता रुप परोपकार के कार्य करते हुए यज्ञ ही करता रहता है । इस प्रकार वह व्यक्ति यज्ञ का ही रुप बन जाता है ।

डा. अशोक आर्य

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हम प्रभु स्तवन करते हुए अपने जीवन को गुणों से अलंकृत करें

प्रभु सर्वव्यापक है । उसकी महिमा को हम प्रत्येक लोक में देखें । हम सदा स्वयं को प्रभु में ही स्थित रखते हुए उस प्रभु का स्तवन करें, गुणगान करें । इस प्रकार हम अपने जीवन को गुणों रुपी अलंकारों से अलंकृत करते हैं । इस बात को ही मन्त्र में इस प्रकार कहा गया है । :- 

अतःपरिज्मन्नागहिदिवोवारोचनादधि।
समस्मिन्नृञ्जतेगिरः॥ ऋ01.6.9 


 १. प्रभु के प्रकाश की ज्योति को प्राप्त कर 

उस परमपिता परमात्मा का भक्त उस की आराधना करते हुए उस से प्रार्थना करता है कि हे चारों दिशाओं में सर्वव्यापक प्रभो ! आप हमें प्राप्त होइये । मानव जन्म में प्रभु को पाने की अभिलाषा रखता है । इस अभिलाषा की पूर्ति ही इस मानव का लक्ष्य है । इसलिए वह पिता से प्रार्थना करता है की हे पिता ! आप मुझे शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त होइये, मिलिए, दर्शन दीजिए । आप हमें पृथ्वी लोक से , प्राप्त होवें चाहे आप हमें द्युलोक से प्राप्त होवें अथवा अन्तरिक्ष लोक से ( जो केन्द्र व विद्युत् की दीप्ती वाला है, जो केन्द्र व बिजली के प्रकाश से चमकने वाला है ) हमें प्राप्त होवें । 

पृथ्वी में जो अग्नि आदि देव हैं , जो आपके तेज को और भी तेजस्वी करने वाले देव हैं , मैं उन सब देवों का चिन्तन करता हुआ, स्मरण करता हुआ , उन सब देवों में आपसे स्थापित किये गए देवता का दर्शन करूं, उस देवता का दर्शन करुं, जिसे आपने अपने में स्थान दे दिया है । इतना ही नहीं मैं अंतरिक्ष लोक में भी, अंतरिक्ष के देवों के माध्यम से सदा आप ही की महिमा को देखूं , आप ही के दर्शन करुं । द्युलोक को प्रकाशित लोक कहते हैं, इस लोक में भी मैं सदा आप ही के प्रकाश को पाऊं, आप ही के प्रकाश को देखूं । आप ही का प्रकाश मुझे मिले । इस प्रकार तीनों लोकों में सर्वत्र मुझे आप ही के प्रकाश के दर्शन हों , आप ही का प्रकाश मुझे दिखाई दे तथा आप ही के प्रकाश की ज्योति को प्राप्त करुं ।

हे प्रभु मैं सर्वत्र आप ही की महिमा के दर्शन करुं । पृथिवी लोक हो चाहे अन्तरिक्ष लोक हो अथवा द्युलोक हो , जहां भी जाऊं सर्वत्र अपनी महिमा के द्वारा आप ही आप दिखाई दें , आप ही की महिमा सर्वत्र कार्यरत ,सर्वत्र गतिमान , सर्वत्र कर्मशील दिखाई दे तथा उस महिमा को देख कर , उस महिमा के दर्शन कर मैं अपने आप को उज्जवल करुं , धन्य करुं ।

२. परमात्मा में जीवन सुभाषित

इस प्रकार जो लोग सब स्थानों पर उस पिता की महिमा को देखते हैं , इस प्रभु स्मरण करने वाले लोग , प्रभु स्तवन करने वाले लोग, प्रभु का कीर्तन करने वाले लोग , प्रभु की निकटता पाने वाले प्रभु भक्त लोग इस परमात्मा में ही अपने जीवन को सुभाषित करते हैं , सजा लेते हैं । इस प्रकार इसे प्रभु की स्तुति करते हुए , इस प्रभु की आराधना करे हुए , इसे प्रभु का कीर्तन करते हुए , इसे प्रभु की समीपता पाने का यत्न करते हुए , यह प्रभु भक्त अपने जीवन को प्रभु के अनुरुप बनाने का यत्न करते हैं , जो गुण प्रभु में हैं , वैसे गुण स्वयं में धारण करने का निर्णय करते हैं । यह लोग स्वयं को भी उस पिता के सामान बनाने का निर्णय लेकर वैसा ही बनने का प्रयास करते हैं । जब यह लोग एसा यत्न ,प्रयास करते हैं तो उनके जीवन में सुन्दरता निरंतर बढ़ने लगती है तथा वह निरंतर सुन्दर तथा और सुन्दर बनते चले जाते हैं ।

डा. अशोक आर्य

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प्रभु भक्त का शरीर दृढ,बुद्धि उज्ज्वल तथा ह्रदय प्रेम से पूर्ण

जो लोग ईश्वर के भक्त होते हैं , उनका शरीर मजबूत होता है , उनका मस्तिष्क ज्ञान से उज्ज्वल होता है तथा उनका ह्रदय प्रेम की स्निग्ध भावना के कारण पूर्णतया परिपूर्ण होता है । इस बात को मन्त्र इस प्रकार कह रहा है ।

इतोवासातिमीमहेदिवोवापार्थिवादधि।
इन्द्रंमहोवारजसः॥ ऋ01.6.10 


इस मन्त्र में तीन बातों की ओर संकेत किया गया है :-

१ धन एश्वर्य का स्वामी

प्रभु भक्त तीनों लोकों में अपने उस पिता का निवास अनुभव करता है , उसे देखता है , सर्वत्र उसे प्रभु की महिमा दिखाई देती है । । इसे देखते हुए वह कह उठता है कि हमारा वह प्रभु परम एश्वर्यशाली है । वह दाता है , वह महादेव है । वह प्रभु ही देने वाला है । उससे ही हम याचना करते हैं , प्रार्थना करते हैं , धनेश्वर्य मांगते हैं । क्यों ? क्योंकि वह प्रभु ही धन आदि देने में सक्षम है । वह सक्षम कैसे है ? क्योंकि वह धन आदि का स्वामी है ।

स्पष्ट है कि मांगा उस से जाता है जिस के पास कुछ हो । जिसके पास स्वयं के पास ही कुछ नहीं है , वह दूसरों को क्या दे सकता है ? अर्थात कुछ भी नहीं । जब उसके पास कुछ है ही नहीं , वह स्वयं ही अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए दूसरों के आगे हाथ फ़ैलाए हुए है तो एसे याचक के आगे अपना हाथ फ़ैला कर कौन याचना करेगा । 

हम जानते हैं कि प्रभु के पास सब की याचना पूर्ण करने की शक्ति है , साधन है , इसलिए ही इस पार्थिव जगत मे अपने हितों की पूर्ति के लिए सब लोग याचक बन कर उसके आगे हाथ फ़ैलाते हैं ताकि वह हमें धन आदि देकर उपकृत करे । वह पिता ही इस पार्थिव जगत में धन आदि देने वाले हैं ।

पार्थिव जगत या पार्थिव लोक वास्तव में पृथ्वी ही है । जब तक पृथ्वी सुदृढ नहीं होगी तब तक इस पर न तो कुछ वनस्पतियां ही पैदा होती हैं तथा न ही इस पर कोई जीव ही रह सकता है । अत: इस धन आदि का स्वामी पृथ्वी का सुदृढ होना आवश्यक होता है । उपर हम ने जो सुदृढता के लिए याचना की है , वह वास्तव में इस पृथ्वी के लिए ही की है । 

हमारा शरीर भी तो पृथ्वी रूप ही है , इसका निर्माण भी तो पंचतत्वों का ही परिणाम है । इसलिए ही हम अपने शरीर को पृथ्वी के समान दृढ , मजबूत देखना चाहते हैं । इस लिए ही हम अपने उपर प्रभु कृपा चाहते हैं , आशीर्वादों से भरा उस पिता का हाथ अपने सर पर देखना चाहते हैं ताकि वह हमारे शरीर को वज्र के समान कठोर अथवा मजबूत बना दे । यह शरीर पत्थर के समान दृढ हो जावे तथा हम निरन्तर आसन , व्यायाम ,प्राणायाम करते हुए अपने इस शरीर को वज्र के समान बनाएं । यह ही हमारी प्रभु से कामना है , याचना है ।

२ प्रभु दीप्ती दो ,प्रकाश दो 

हम सदा धनवान व साधन सम्पन्न बनना चाहते हैं । हम चाहते हैं कि हमारे पास इतना धन हो कि हम अपनी आवश्यकताएं स्वयं पूर्ण करने में सक्षम हों , किसी के आगे हाथ न फ़ैलाना पडे । इस लिए हम उस पिता से वह धन मांगते हैं जो देवलोक में होता है । हम उससे द्युलोक का एश्वर्य मांगते हैं । अब प्रश्न उठता है कि द्युलोक का धन कौन सा होता है ? मन्त्र कहता है कि द्युलोक का धन होता है दीप्ति , तेज , प्रकाश । हम उस पिता से दीप्ति मांगते है , ज्ञान का प्रकाश मांगते हैं , तेज मांगते हैं । जिस प्रकार द्युलोक में सूर्य चमकता है , उसका प्रकाश समग्र विश्व में फ़ैल जाता है , सब दिशाएं प्रकाशित हो जाती हैं । एसा ही ज्ञान रुपी प्रकाश हम अपने अन्दर देने की कामना उस पिता से करते हैं । ताकि हम भी सब दिशाओं को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर पाने में सशक्त हो सकें ।

३ शीतल ज्योत्स्ना से परिपूर्ण हों

हमारा यह द्युलोक , हमारा यह अन्तरिक्षलोक महान है । इस महान अन्तरिक्ष से हम एसा धन , एसा एश्वर्य मांगते हैं , जो चन्द्र की शीतल , ठंडी किरणों के कारण शीतल ज्योत्स्ना से परिपूर्ण हो ज्योत्स्नामय ही हो रहा है । हम चाहते हैं कि चन्द्र की शीतल चांदनी के ही समान हमारा ह्रदय रुपि अन्तरिक्ष (जो अब तक रिक्त पडा है , खाली पडा है ) भी प्रेम से भरपूर , स्निगधता की भावना से अत्यंत शीतलता को, ठण्डक को प्रभावित करने वाला हो । यह सब में शीतलता भरने में , बांटने में सशक्त हो , सक्षम हो 


डा. अशोक आर्य

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सूर्य तथा मेघ प्रभु की अदभुत विभूतियां हैं


हम प्रतिदिन आकाश में चमकता हुआ सूर्य देखते हैं , यह सूर्य समस्त जगत को प्रकाशित करता है । यहां तक कि हमारी आंख भी इस सूर्य के कारण ही देख पाने की शक्ति प्राप्त करती है । यदि सूर्य न हो तो हमारी आंख का कुछ भी उपयोग नहीं हो सकता । इस प्रकार ही आकाश में मेघ छा जाते हैं । इन मेघों से होने वाली वर्षा से हम आनन्दित होते हैं । 

हम केवल आनन्दित ही नहीं होते अपितु हमारे उदर पूर्ति के लिए सब प्रकार की वनस्पतियां भी इन मेघों का ही परिणाम है । यदि यह बादल पृथिवी पर वर्षा न करें तो इस पर कोई भी वनस्पति उत्पन्न न होगी । जब कोई वनस्पति न होगी तो हम अपना उदर पूर्ति भी न कर सकेंगे । 

इस सब तथ्य को वेद का यह मन्त्र इस प्रकार बता रहा है :-

इन्द्रो दीर्घाय चक्शस आ सूर्य रोहयद दिवि ।
वि गोभिरद्रिमैरयत ॥ऋग्वेद १.७.३ ॥


इस मन्त्र में मुख्य रुप से तीन बातों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि :-

१. प्रभु ने हमारे देखने के लिए सूर्य को बनाया है :-

प्रभु का उपासक यह जीव उस प्रभु के समीप बैठकर उस प्रभु के उपकारों को स्मरण कर रहा है । वह इन उपकारों को स्मरण करते हुए कहता है कि हमारे वह प्रभु सब प्रकार की आसुरी वृतियों वालों का संहार करने वाले हैं , उनका नाश करने वाले हैं , उन्हें समाप्त करने वाले हैं । हमारा वह प्रभु अपने भक्तों की रक्षा करते हैं । 

फ़िर वह इन आसुरों से भक्तों की रक्षा तो करेगा ही । इस कारण जब जब भी इस भुमि पर आसुरि प्रवृतियां बढती हैं तो वह पिता उन असुरों का नाश करने का साधन भी हम को देते हैं , जिस की सहायता से हम उन असुरों का नाश करते हैं । यह सब उस पिता के सहयोग व मार्ग दर्शन का ही परिणाम होता है ।

इन असुरों का नाश हम आंख की सहायता से करते हैं । यह आंख ही है जो हमें दूर दूर तक देखने में सक्षम करती है , दूर तक देखने की शक्ति देती है । यदि आंख न होती तो हमें इन असुरों की स्थिति का पता ही न चल पाता । जब उनकी स्थिति का पता ही न होगा तो हम उन का संहार , उनका अन्त कैसे कर सकेंगे ? यह आंख भी अपना क्रिया क्लाप सूर्य की सहायता के बिना नहीं कर सकती । 

जब तक यह जगत प्रकाशित नहीं होता , तब तक इस आंख में देखने की शक्ति ही नहीं आ पाती । इस कारण परम पिता परमात्मा ने आंख बनाने से पहले इस संसार को सूर्य का उपहार भी दिया है । इसे द्यौलोक  में स्थापित किया है । यह ही कारण है कि द्यौलोक  की मुख्य देन यह सूर्य ही है । यह सूर्य समग्र संसार को प्रकाशित करता है । सूर्य के इस प्रकाश से ही हमारी आंख अपने सब व्यापार ,सब क्रियाकलाप  करने में सक्षम हो पाती है । इस प्रकाश के बिना इस आंख का होना व न होना समान है। सूर्य ही इस आंख को देख पाने की शक्ति देता है , जिस का निर्माण भी इस सृष्टि के साथ ही साथ उस पिता ने ही किया है । 

२. प्रभु ने ही जल के साधन मेघों को बनाया है :-

परम पिता ने हमारे देखने के लिए आंख का निर्माण तो कर दिया किन्तु हमारी नित्य प्रति की क्रियाओं की पूर्णता जल के बिना नहीं हो पाती । जल से ही सब प्रकार की वनस्पतियों का जन्म व विकास होता है , जल से ही यह वन्सपतियां बढती हैं , फ़लती व फ़ूलती हैं और पक कर हमारे लिए अन्न देने का कारण बनती हैं । इतना ही नहीं हमें अपना भोजन पकाने के लिए भी जल की ही आवश्यकता होती है । हमें अपने शरीर की गर्मी को दूर करने , स्वच्छता रखने तथा प्यास को शान्त करने के लिए भी जल की ही आवश्यकता होती है । यदि जल न हो तो हम एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते । इस कारण ही उस पिता ने जलापूर्ति के लिए मेघों को प्रेरित किया है । मेघों का निर्माण किया है । 

यदि वह प्रभु मेघों की व्यवस्था न करता, वर्षा का साधन न बनाता तो निश्चय ही इस धरती का पूरे का पूरा जल बह कर समुद्र में जा मिलता । इस प्रकार यह जल मानव के लिए दुर्लभ हो जाता , अप्राप्य हो जाता । इससे मानव का जीवन ही असम्भव हो जाता । अत: यह मेघ ही हैं जो समुद्र आदि स्थानों का जल अपने में खेंच लेते हैं । इसे भाप के रूप में उडाकर अपने साथ ले जाकर पर्वतों की उंचाई पर जा कर वर्षा देते हैं , जिस से नदियां लबालब भर जाती हैं । 

नदियों में प्रवाहित यह जल हमारी वनस्पतियों की सिंचाई से इन का रक्षक बनता है , हमारी सफ़ाई करता है तथा हमारी प्यास को भी शान्त करने का कारण बनता है । इससे ही अन्न की उत्पति होती है । इस कारण ही प्रभु की यह अद्भुत कृति मेघ भी मानव निर्माण में विशेष महत्व रखती है ।

३.हम मस्तिष्क में ज्ञान का सूर्य ओर हृदय में प्रेम के मेघ पैदा करें :-

मानव को अध्यात्म क्षेत्र में पांव रखते हुए चाहिये कि वह अपने अन्दर ज्ञान रुपि सूर्य का उदय करे । हमारा वह पिता अनेक प्रकार की वस्तुओं का जन्म देकर अध्यात्मिक रुप से हमें उपदेश दे रहा है कि हे मानव ! जिस प्रकार मैंने सूर्य आदि की उत्पति करके तुझे प्रकाशित किया है , इस प्रकार ही तु भी अपने अन्दर ज्ञान का प्रकाश करके स्वयं को भी प्रकाशित कर तथा अन्यों को भी प्रकाशित कर । ज्ञान मानव जीवन का निर्माता है । अपने जीवन को निर्माण करने के लिए स्वयं को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करना आवश्यक होता है । जब स्वयं हम कुछ भी ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तो इस ज्ञान के प्रकाश से अन्यों को भी प्रकाशित करें यह ही उस प्रभु का आदेश है , सन्देश है , उपदेश है ।

उस प्रभु ने हमें अपना सन्देश देते हुए , आदेश देते हुए आगे कहा है कि हे जीव ! तुझे प्रेम की आवश्यकता है , स्नेह की आवश्यकता है किन्तु इसे पाने के लिए तुझे अपने हृदय मन्दिर में प्रेम का दीप जलाना होगा , प्रेम के मेघ पैदा करने होंगे । जिस प्रकार मेघ सब ओर शान्ति का कारण होते हैं , उस प्रकार तेरे हृदय रूपी आकाश में पैदा हुए यह मेघ भी तुझे तथा तेरे साथियों , सम्बन्धियों , पडौसियों , क्षेत्र, देश सहित विदेश के निवासियों के अन्दर प्रेम का स्फ़ुरण कर शान्ति का कारण बनेगा । इस लिए तुं सदा अपने हृदय में प्रेम रुपि मेघों को पैदा करने तथा उन्हें बढाने का यत्न करता रह।

ईश्वर हमें उपदेश कर रहे हैं कि हे जीव ! जिस प्रकार सूर्य की गर्मी से उडकर यह पार्थिव जल अन्तरिक्ष मे पहुंच जाता है । पहाडों की चोटियों को छू लेता है तथा उपर जाकर मेघों का रुप धारण कर लेता है तथा वर्षा करके इस धरती को सब ओर से स्वच्छ कर देता है , सब प्रकार की धूलि को धो देता है । सब ओर सब कुछ स्वच्छ व साफ़ सुथरा कर देता है , जिससे यह जगत सुन्दर व आकर्षक लगता है , उस प्रकार ही अध्यात्म मे ज्ञान का सूर्य चमकने से पार्थिव वस्तुओं के प्रति हमारा प्रेम हृदय रुपि अन्तरिक्ष में जा कर सब प्राणियों पर फ़िर से बरस कर सब प्राणियों तथा वनस्पतियों को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर उन्हें पवित्र करता है , शुद्ध करता है , स्वच्छ करता है तथा प्रसन्न करता है , सबके मनोमालिन्यों को धो डालता है ।

डा. अशोक आर्य 

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सब प्रकार से विजयी हो नि:श्रेयस को पावें

हम परम पिता की अपार क्रिपा से वाजों में विजयी हों, एसे विजेता बनकर हम अभ्युदय को पावें तथा सहस्रप्रधनों में भी हम विजय पा कर नि:श्रेयस को पावें । इस बात को रिग्वेद का यह मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है :-

इन्द्र वाजेषु नोऽव सहस्रप्रधनेषु च । उग्र उग्राभिरुतिभि:॥रिग्वेद १.७.४॥

इस मन्त्र में तीन बातों पर प्रकाश डालते हुए पिता उपदएश कर रहे हैं कि :-

१.हम हमारे छोटे छोटे युद्धो में विजयी हों :-

वैदिक साहित्य में प्रत्येक शब्द का अर्थ कुछ विशेष ही होता है । हम अपने जीवन में सदा संघर्ष करते रहते हैं , हम सदा किसी न किसी प्रकार के युद्ध में लडाई में लगे रहते हैं किन्तु इस मन्त्र में जिस युद्ध को वाज कहा गया है , वह युद्ध कौन सा होता है ? इसे जाने बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते । वैदिक सहित्य में हम जो छोटे छोटे युद्ध लडते हैं , उन को वाज का नाम दिया गया है । 

जो लडाईयां , जो युद्ध , जो संघर्ष शक्ति की प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , धनादि कि प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , उन्हें हम वाज की श्रेणी में रखते हैं । इतिहास की जितनी भी लडाईयां हुई हैं , चाहे वह राम - रावण युद्ध हो अथवा महाराणा प्रताप तथा अकबर का युद्ध हो , यह सब वाज ही कहे जावेंगे । प्रभु भक्त इस मन्त्र के माध्यम से पिता से प्रार्थना करता है कि हे शत्रुओं को रुलाने वाले प्रभो !, हे शत्रुओं का नाश करने वाले, संहार करने वाले प्रभो ! आप हमें धन आदि की प्राप्ति के लिए हमारे जीवन के इन छोटे छोटे संग्रामों में हमें विजेता बनावें । आप ही की कृपा से हम धनों के स्वामी बन कर , विजेता बनकर अभ्युदय को , उन्नति को प्राप्त करें ।

२. हम अपने अन्दर के युद्ध में विजयी हों :- 

ऊपर बताया गया है कि जो युद्ध धन एश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , वह वाज की श्रेणी में आते हैं । इससे स्पष्ट है कि यह युद्ध किसी अन्य प्रकार के भी होते हैं । इस मन्त्र में दूसरी प्रकार के युद्ध को सहस्रप्रधन का नाम दिया गया है । मन्त्र इस शब्द के अर्थ रुप में बता रहा है कि जीव अपने अध्यात्मिक जीवन को सुन्दर बनाने के लिए , आकर्षक बनाने के लिए अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ भी युद्ध करता रहता है । जब मानव अपने बाहर के शत्रुओं के साथ लडता है तो उसे वाज कहा जाता है किन्तु जब वह अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ लडता है तो इस लडाई का नाम सहस्रप्रधन होता है । सहस्रप्रधन नामक युद्ध में हम अपने अन्दर के काम , क्रोध, मद , लोभादि आदि शत्रुओं से लडाई करते हैं । 

प्रार्थना की गयी है कि हम अपने इन आध्यात्मिक युद्धों में भी विजयी होते हुए काम का नाश कर प्रेम रुपि धन को प्राप्त करें , क्रोध रुपि शत्रु को मार कर दया रुपि धन को पावें , हम लोभ रुपि शत्रु पर भी विजयी होवें तथा दान रुपि धन की प्राप्ति करें । इस प्रकार हम आनन्द रुप प्रक्रिष्ट धनों के स्वामी बनें । इस प्रकार हे प्रभो ! इन संसाधनों को पाने के लिए आप हमारे सहयोगी बनें,रक्षक बनें । 

३. प्रभो इन युद्धो में हमें विजयी बनावें :-

मानव का काम है यत्न करना , पुरुषार्थ करना । जब हम यत्न करते हैं , परिश्रम करते हैं , पुरुषार्थ करते हैं तो इस पुरुषार्थ का उतम फ़ल प्रभु हमें देता है क्योंकि उस ने जीव को कर्म करने में स्वतन्त्र किया है किन्तु किये गये कर्म का फ़ल वह प्रभु अपनी व्यवस्था के आधीन ही रखे हुए है । इस कारण हम कर्म करते हुए भी सदा उतम फ़ल की प्रार्थना उस पिता से करते रहते हैं । हम अपने पुरुषार्थ द्वारा जीवन में सब प्रकार से विजयी होने की कामना के साथ ही परमपिता परमात्मा से फ़िर प्रार्थना करते हैं कि हे तेजस्वी पिता ! आप तेज से परिपूर्ण हैं,आप प्रबल रक्शक हैं । अपने तेज व रक्शण से हमें हमारे जीवन में होने वाले सब प्रकार के युद्धों में विजेता बनावें । हम अकेले इन कामादि शत्रुओं को नहीं जीत सकते । इसलिए आप का सहयोग , आपकी सहायता हमारे लिए आवश्यक हो जाती है । अत: हमें एसी शक्ति दें कि हम इन युद्धों में सदा विजयी होते रहें तथा उन्नति की ओर सर्वदा अग्रसर रहें ।

डा. अशोक आर्य 

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प्रभु हमारे सब मनोरथ पूर्ण करते हैं


परमपिता परमात्मा दयालु हैं । हम सदा उन की दया पाने के लिए यत्न करते हैं । जब उनकी हम पर दया हो जाती है तो वह पिता हम पर अपना अपार स्नेह करते हुए , हमारा ज्ञान का कोष , ज्ञान का खजाना भर देते हैं । इस ज्ञान के खजाने के मिलते ही हमारे सब मनोरथ, सब कामनाएं पूर्ण हो जाते हैं । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार बता रहा है :-

सनोवृषन्नमुंचरुंसत्रादावन्नपावृधि।
अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः॥ ऋ01.7.6

इस मन्त्र में दो बिन्दुओं पर विचार किया गया है :-

१. ज्ञान के भण्डार को खोलो ;-

मन्त्र आरम्भ में ही कह रहा है कि हे प्रभु ! आप हमें वाज व सह्स्रधन अर्थात आप हमें भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विजयें , दोनों प्रकार की सफ़लताएं दिलाने का कारण हैं क्योंकि आप हमारे मित्र हो । मित्र सदा अपने मित्र के सुख दु:ख का ध्यान रखता है, उसे सब प्रकार की वह सुख-सुविधायें दिलाता है , जिन की उसे आवश्यकता होती है । यह आप ही हैं , जिसकी मित्रता के कारण हम यह सब प्राप्त कर पाते हैं । इसलिए हम सदा आप का साथ , सदा आप का सहयोग , सदा आप की मित्रता बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं । 

हे सब प्रकार के सुखों को देने वाले मित्र रुप प्रभो ! हे सदा , सर्वदा सब प्रकार के उतम फ़लों - प्रतिफ़लों के देने वाले प्रभो ! आप हमारे लिए उस ज्ञान के कोष को , उस ज्ञान के भण्डार को खोलिए ।

ब्रह्मचर्य का भाव होता है ज्ञान को चरना, ज्ञान में घूमना , ज्ञान में विचरण करना । इस ब्रह्मचारी को आचार्य लोग विविध विषयों का , अनेक प्रकार के विषयों का ज्ञान कराते हैं , ज्ञान का उपभोग कराते हैं , ज्ञान का भक्षण कराते हैं , ज्ञान में घुमाते हैं , इस ज्ञान की सैर कराते हैं । जिस भी वस्तू का भक्षण या चरण किया जाता है जीव उसका चरु बन जाता है ।

 मानव मुख्य रुप से ज्ञान का भक्षण करने के लिए आचार्य के पास जाता है । जब वह इसे पुरी तरह से , समग्र रुप में चरण कर लेता है तो वह ज्ञानचरु हो जाता है , वहां से ज्ञानचरु बन कर निकलता है । जब हम इसे विशालता से देखते हैं , जब हम इसे बढा कर देखते हैं , जब हम इस का अपावरण करके देखते हैं तो इस का प्रकट करना ही वेद ज्ञान का कोश है , वेद ज्ञान का भण्डार है । 

प्रभु कृपा ही इस ज्ञान के भण्डार को खोलने की चाबी है, कुंजी है । जब तक हमें उस पिता की दया नहीं मिलती , तब तक हम इस ज्ञान का ताला नहीं खोल सकते । इस लिए हम सदा ही उस पिता की दया रुपी वरद ह्स्त पाने का प्रयास करते रहते हैं । ज्यों ही हम उस प्रभु का आशीर्वाद पाने में सफ़ल होते हैं त्यों ही हम इस ज्ञान के भण्डार का ताला खोल कर इसे पाने में सफ़ल हो पाते हैं । हम इसे खोल कर ज्ञान का विस्तार कर पाते हैं ।

२. प्रभु कभी इन्कार नहीं करता

परम पिता परमात्मा प्रतिशब्द से रहित है । वह अपने भक्त के लिए , अपने मित्र के लिए न नामक शब्द अपने पास रखता ही नहीं । उसके मुख से अपने मित्र के लिए, अपने उपासक के लिए , अपने निकट बैठने वाले के लिए सदा हाँ ही निकलता है , सहयोग ही देता है , मार्ग - दर्शन ही देता है , ज्ञान ही बांटता है , कभी भी नकारात्मक भाव प्रकट नहीं करता । भाव यह है कि जीव प्रभु की प्रार्थना करता है तथा चाहता है कि वह पिता सदा उसको सकारात्मक रुप से ही देखे , कभी नकारात्मक उतर न दे । वह प्रभु हमारी प्रार्थना को सदा ध्यान से सुने । 

परम पिता परमात्मा को सत्रादावन कहा गया है । इसका भाव है वह पिता सदा देने ही वाले हैं , सदा दिया ही करते हैं , बांटते ही रहते हैं किन्तु देते उसे हैं जो नि:स्वार्थ भाव से मांगता है , जो देने के लिए मांगता है । जो दूसरों की सहायता के लिए मांगता है , ऐसा व्यक्ति ही प्रभु के दान के लिए सुपात्र होता है , एसा व्यक्ति ही प्रभु से कुछ पाने के लिए अधिकारी होता है , ऐसा व्यक्ति ही उस पिता की सच्ची दया का अधिकारी होता है । यदि पिता की दया प्राप्त हो गयी तो उसे सब कुछ ही मिल गया । अत: मन्त्र के इस अन्तिम चरण में जीव प्रभु से याचना करता है कि हे प्रभो ! हम सदा आप से यह ज्ञान का कोष पाने के अधिकारी बने रहें ।

डा. अशोक आर्य 

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प्रभु के अनन्त दान

परमपिता परमात्मा अनेक प्रकार के असीमित दान करने वाला है । जीव इन दानों का पूरी तरह से प्रयोग नहीं कर सकता । सम्भव ही नहीं है क्योंकि जीव की सीमित शक्ति इन सब का प्रयोग कर ही नहीं सकती । इस पर ही इस मन्त्र में प्रकाश डालते हुए स्पष्ट किया गया है कि :-

तुञ्जेतुञ्जेयउत्तरेस्तोमाइन्द्रस्यवज्रिणः।
नविन्धेअस्यसुष्टुतिम्॥ ऋ01.7.7

इस मन्त्र में दो बातों पर परमपिता परमात्मा ने बल दिया है ।

१. प्रभु की स्तुति कभी पूर्ण नहीं होती :

इस सूक्त के छटे मन्त्र में यह बताया गया था कि प्रभु सत्रावदन है अर्थात इस जगत में , इस संसार में जितनी भी वस्तुएं हमें दिखाई देती हैं , उन सब के दाता , उन सब के देने वाले वह प्रभु ही हैं । 

हमारे अन्दर जो ज्ञान है , हमारे शरीर के अन्दर विराजमान हमारे शत्रु , जो काम , क्रोध, मद , लोभ, अहंकार आदि के नाम से जाने जाते हैं , यह सब हमारे गुणों को , हमारी अच्छाइयों को, हमारे ज्ञान को ढक देते हैं । इस का भाव यह है कि हमारी जितनी भी अच्छी बातें हैं , हमारे जितने भी अच्छे आचरण हैं , हमारे जितने भी उतम गुण हैं , हमारे जितने भी अच्छे विचार हैं , उन सब को, हमारे अन्दर के निवास करने वाले यह शत्रु प्रकट नहीं होनें देते , उन्हें रोक लेते हैं , ढक देते हैं । इन गुणों को यह शत्रु प्रकाशित नहीं होने देते । इस कारण हमें तथा हमारे आस पास के लोगों को , जीवों को हमारे गुणों का पता ही नहीं चल पाता । इस कारण इन गुणों का लाभ नहीं उठाया जा सकता , इन गुणों का सदुपयोग नहीं किया जा सकता । 

ये शत्रु हमारे गुणों पर सदा प्रहार करते रहते हैं , आक्रमण करते रहते हैं, इन गुणों को कभी प्रकट ही नहीं होने देते । इन को सदा आवरण में रखने का प्रयास करते हैं ताकि प्रभु द्वारा जीव मात्र के कल्याण के लिए दिए गये यह अनुदान किसी को दिखाई ही न दें , जीव इन का लाभ ही न उठा सके , जीव इन का सदुपयोग ही न कर सके । यह अनुदान इन शत्रुओं पर वज्र का प्रहार करने वाले होते हैं , इन्हें नष्ट करने वाले होते हैं किन्तु हमारे अन्दर निवास कर रहे यह शत्रु इन अनुदानों को हमारे तक पहुंचने से रोकने में ही सदा सक्रिय रहते हैं । 

परम पिता परमात्मा परमैश्वर्यशाली, परम शक्तिशाली है । उस पिता के पास सब प्रकार की धन सम्पदा है । वह इस जगत की सब सम्पदा का स्वामी है । वह ही इन शत्रुओं का विनाश करने में सशक्त होते हैं तथा इन शत्रुओं का विनाश करने के लिए जीव के सहायक होते हैं । इस लिए हम उस पिता की स्तुति करते हैं । हम उस परमात्मा की स्तुति तो करते हैं किन्तु हमारे अन्दर एसी शक्तियां भी नहीं है कि हम कभी प्रभु की स्तुति को पूर्ण कर सकें ।

हम प्रभु की स्तुति तो करते हैं किन्तु कभी भी उसकी उतम स्तुति को प्राप्त ही नहीं कर पाते क्योंकि प्रभु की स्तुति का कभी अन्त तो होता ही नहीं । हम चाहे कितने ही उत्कृष्ट स्त्रोत्रों से उसे स्मरण करें , चाहे कितने ही उतम भजनों से उस की वन्दना करें , चाहे कितने ही उतम गीत , उतम प्रार्थानाएं उसकी स्तुति में प्रस्तुत करें , तब भी उस पिता की स्तुति पूर्ण नहीं हो पाती , यह सब गीत , सब प्रार्थनाएं, सब भजन उस प्रभु की स्तुति की पूर्णता तक नहीं ले जा पाते ।

इस सब का भाव यह है कि जीव कभी भी प्रभु की प्रार्थाना को पूर्ण नहीं कर पाता । उसे जीवन पर्यन्त उसकी प्रार्थना करनी होती है । उस की प्रार्थना में निरन्तरता , अनवर्तता बनी रहती है। यह उस की प्रार्थानाओं की श्रृंखला का एक भाग मात्र ही होती है । आज की प्रार्थना के पश्चात अगली प्रार्थना की त्यारी आरम्भ हो जाती है । इस प्रकार जब तक जीवन है , हम उसकी प्रार्थना करते रहते हैं , इस का कभी अन्त नहीं आता । इस मन्त्र में प्रथमतया इस बात पर ही प्रकाश डाला गया है ।

२. हम उस दाता की स्तुति करते हुए हार जाते हैं :

हमारे परम पिता परमात्मा एक महान दाता हैं । वह निरन्तर हमें कुछ न कुछ देते ही रहते हैं । वह दाता होने के कारण केवल देने वाले हैं । वह सदा देते ही देते हैं ,बदले में कुछ भी नहीं मांगते । जीव स्वार्थी है अथवा याचक है, भिखारी है । यह सदा लेने ही लेने का कार्य करता है । प्रभु से सदा कुछ न कुछ मांगता ही रहता है । 

कभी कुछ देने की नहीं सोचता जब कि प्रभु केवल देते ही देते हैं , कभी कुछ मांगते नहीं। इतना ही नहीं प्रभु देते हुए कभी थकते ही नहीं । प्रभु संसार के , इस जगत के प्रत्येक प्राणी के दाता हैं , प्रत्येक प्राणी को कुछ न कुछ देते ही रहते हैं । इस जगत के अपार जन समूह व अन्य सब प्रकार के जीवों को देते हुए भी उनका हाथ कभी थकता नहीं । 

दिन रात परोपकार करते हुए जीवों को दान बांटते हुए भी उन्हें कभी थकान अनुभव नहीं होती जबकि जीव ने देना तो क्या लेते लेते भी थक जाता है । प्रभु एक महान दाता है । जीव इस दान को ग्रहण करने वाला है । प्रभु के पास अपार सम्पदा है , जिसे वह दान के द्वारा सदा बांटता रहता है , जीव दान लेने वाला है किन्तु यह दान लेते हुए भी थक जाता है । इससे स्पष्ट होता है कि जीव की स्तुति का कभी अन्त नही होता । प्रभु से वह सदा कुछ न कुछ मांगता ही रहता है । 

हमारी मांग का, हमारी प्रार्थना का, हमारी स्तुति का कभी अन्त नहीं होता । इस कारण यह कभी भी नहीं हो सकता कि मैं ( जीव ) प्रभु के दानों की कभी पूर्ण रुप से स्तुति कर सकूं । परमात्मा देते देते कभी हारते नहीं , कभी थकते नहीं किन्तु मैं स्तुति करते हुए , यह सब प्राप्त करते हुए भी थक जाता हूं ।

डा. अशोक आर्य

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प्रभु के दरबार में सब प्रार्थनाएँ स्वीकार होती हैं


प्रभु सर्वशक्तिशाली है तथा हम सब का पालक है । वह हमारी सब प्रार्थनाओं को स्वीकार करता है । यह सब जानकारी इस मन्त्र के स्वाध्याय से मिलती है , जो इस प्रकार है :-

वृषायूथेववंसगःकृष्टीरियर्त्योजसा।
ईशानोअप्रतिष्कुतः॥ ऋ01.7.8 ||


इस मन्त्र में चार बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है ।:-

१. प्रभु प्रजाओं को सुख देता है :-

परम पिता परमात्मा सर्व शक्तिशाली है । उसकी अपार शक्ति है । संसार की सब शक्तियों का स्रोत वह प्रभु ही है । इस से ही प्रमाणित होता है कि प्रभु अत्यधिक शक्तिशाली है । अपरीमित शक्ति से परिपूर्ण होने के कारण ही वह सब को शक्ति देने का कार्य करता है । 

जब स्वयं के पास शक्ति न हो , धन न हो , वह किसी अन्य को कैसे शक्ति देगा , कैसे दान देगा । किसी अन्य को कुछ देने से पहले दाता के पास वह सामग्री होना आवश्यक है , जो वह दान करना चाहता हो । इस कारण ही प्रभु सर्व शक्तिशाली हैं तथा अपने दान से सब पर सुखों की वर्षा करते हैं । 

२. प्रभु सब को सुपथ पर ले जाते हैं :-

परम पिता परमात्मा हम सब को सुपथ पर चलाते हैं , जिस प्रकार गाडी के कोचवान के इशारे मात्र से , संकेत मात्र से गाडी के घोडे चलते हैं ,गति पकडते हैं , उस प्रकार ही हम प्रभु के आज्ञा में रहते हुए , उस के संकेत पर ही सब कार्य करते हैं । हम, जब भी कोई कार्य करते हैं तो हमारे अन्दर बैठा हुआ वह पिता हमें संकेत देता है कि इस कार्य का प्रतिफ़ल क्या होगा ?, यह हमारे लिए करणीय है या नहीं । 

जब हम इस संकेत को समझ कर इसे करते हैं तो निश्चय ही हमारे कार्य फ़लीभूत होते हैं । वेद के इस संन्देश को ही बाइबल ने ग्रहण करते हुए इसे बाइबल का अंग बना लिया । बाइबल में भी यह संकेत किया गया है कि भेडों के झुण्ड को सुन्दर गति वाला गडरिया प्राप्त होता है, उनका संचालन करता है , उन्हें चलाता है । भेड के लिए तो यह प्रसिद्ध है कि यह एक चाल का अनुवर्तत्व करती हैं । एक के ही पीछे चलती हैं । यदि उस का गडरिया तीव्रगामी न होगा तो भेडों की चाल भी धीमी पड जावेगी तथा गडरिया तेज गति से चलने वाला होगा तो यह भेडें उस की गति के साथ मिलने का यत्न करते हुए अपनी गती को भी तेज कर लेंगी । बाइबल ने प्रजाओं को भेड तथा प्रभु को चरवाहा शब्द दिया है , जो वेद में प्रजाओं तथा प्रभु का ही सूचक है ।

३. प्रभु से ओ  मिलता है : 

परमपिता परमात्मा ओज अर्थात शक्ति देने वाले हैं । जो लोग कृषि अथवा उत्पादन के कार्यों में लगे होते हैं , उन्हें शक्ति की , उन्हें ओज की आवश्यकता होती है । यदि उनकी शक्ति का केवल ह्रास होता रहे तो भविष्य में वह बेकार हो जाते हैं , ओर काम नहीं कर सकते । शिथिल होने पर जब प्रजाएं कर्म - हीन हो जाती हैं तो उत्पादन में बाधा आती है । 

जब कुछ पैदा ही नहीं होगा तो हम अपना भरण - पोषण कैसे करेंगे ? इस लिए वह पिता उन लोगों की शक्ति की रक्षा करते हुए , उन्हें पहले से भी अधिक शक्तिशाली तथा ओज से भर देते हैं ताकि वह निरन्तर कार्य करता रहे । इस लिए ही मन्त्र कह रहा है कि जब हम प्रभु का सान्निध्य पा लेते हैं , प्रभु का आशीर्वाद पा लेते हैं , प्रभु की निकटता पा लेते हैं तो हम ( जीव ) ओजस्वी बन जाते है । 

४. प्रभु सबकी प्रार्थना स्वीकार करते हैं :

परमपिता परमात्मा को मन्त्र में ईशान कहा गया है । ईशान होने के कारण वह प्रभु सब प्रकार के ऐश्वर्यों के अधिष्ठाता हैं , मालिक हैं , संचालक हैं । प्रभु कभी प्रतिशब्द नहीं करते , इन्कार नहीं करते , अपने भक्त से कभी मुंह नहीं फ़ेरते । न करना , इन्कार करना तो मानो उन के बस में ही नहीं है । उन का कार्य देना ही है । 

इस कारण वह सबसे बडे दाता हैं । वह सब से बडे दाता इस कारण ही हैं क्योंकि जो भी उन की शरण में आता है , कुछ मांगता है तो वह द्वार पर आए अपने शरणागत को कभी भी इन्कार नहीं करते ,निराश नहीं करते । खाली हाथ द्वार से नहीं लौटाते । इस कारण हम कभी सोच भी नहीं सकते कि उस पिता के दरबार में जा कर हम कभी खाली हाथ लौट आवेंगे , हमारी प्रार्थना स्वीकार नहीं होगी । निश्चित रुप से प्रभु के द्वार से हम झोली भर कर ही लौटेंगे ।

डा. अशोक आर्य

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प्रभु सब का कल्याण करते हैं

परमात्मा श्रमशील व्यक्ति , जो मेहनत करके अपना व्यवसाय चलाता है , को ही पसन्द करते हैं , उसकी ही सदा सहायता करते हैं । इस प्रकार का उपदेश इस मन्त्र में इस प्रकार दिया गया है :-

यएकश्चर्षणीनांवसूनामिरज्यति।
इन्द्रःपञ्चक्षितीनाम्॥ ऋ01.7.9 || 

इस मन्त्र में पभु ने तीन बिन्दुओं के माध्यम से जीव को इस प्रकार उपदेश किया है :-

१. श्रम से धन प्राप्त करें :-

परम पिता प्ररमात्मा की सदा यह ही इच्छा रही है कि मानव अथवा जीव सदा श्रम शील हो । वह चाहे कृषि करे या कोई भी अन्य व्यवसाय किन्तु यह सब कुछ वह मेहनत से करे , उद्योग से करे , पुरुषार्थ से करे । मेहनत से किया कार्य निश्चित ही कोई उतम फ़ल लेकर आता है । प्रभु जीव को पुरुषार्थी ही देखना चाहता है ।

 जो लोग आलसी होते हैं , प्रमादी होते हैं , अन्यों पर आश्रित होते हैं , एसे जीवों को वह पिता कभी भी पसन्द नहीं करते । इस कारण ही इस मन्त्र में कहा गया है कि वह प्रभु श्रमशील व्यक्तियों तथा उनके निवास के लिए सब प्रकार के आवश्यक धनों के ईश होने के कारण वह उन जीवों की सहायता करके उन्हें अपना निवास बनाने के लिए तथा दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन आदि की व्यवस्था करने में सहयोग करते हैं किन्तु करते उसके लिए ही हैं , जो मेहनत करता है , जो श्रम करता है , जो पुरुषार्थ करता है । 

परमपिता परमात्मा सर्वशक्तिमान हैं । सब प्रकार की शक्तियां प्रभु में विद्यमान हैं । इन शक्तियों का संचालन , इन शक्तियों का प्रयोग भी वह स्वयं ही करते हैं । अपने कार्य करने के लिए उन्हें किसी अन्य की सहायता नहीं लेनी पडती । वह अपना काम स्वयं ही करते हैं । मानव को , जीव को तो अपने कार्य करने के लिए , अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सदा ही दूसरों पर आश्रित होना पडता है , दूसरों की सहायता लेनी पड्ती है । चाहे कृषि का क्षेत्र हो चाहे कोई व्यवसाय , उसे दूसरे की सहायता लेनी ही होती है ।
 वह अकेले से अपने किसी भी कार्य की पूर्ति नहीं कर सकता । इसलिए उसे प्रबन्धन करना होता है , कुछ लोगों में काम बांट कर करना पडता है , तब ही उसके काम की पूर्ति होती है किन्तु वह सर्वशक्तिमान परमात्मा एसा नहीं करता ,। वह अपने सब काम ओर उन कामों के सब भाग वह स्वयं ही पूर्ण करता है ।

२. प्रभु श्रमशील को ही पसन्द करता है :-

प्रभु को श्रमशील मनुष्य , मेहनती मनुष्य , पुरुषार्थी मनुष्य ही पसन्द हैं । एसे जीव को ही वह अपना आशीर्वाद देते हैं , जो निरन्तर परिश्रम करते हैं । आलसी - प्रमादी को वह कभी पसन्द नहीं करते । जो अपना काम स्वयं करता है , एसे को ही वह पसन्द करते हैं । मन्त्र में एक शब्द आया है चर्षणीय । इस शब्द का स्थानापन्न कर्षणीय भी कहा गया है अर्थात कृषि आदि , वह कार्य जिन को करने के लिए मेहनत करनी होती है , पुरुषार्थ करना होता है । 

जो लोग इस प्रकार के मेहनत से युक्त , पुरुषार्थ से युक्त कार्यों में लगे रहते हैं , एसे व्यक्ति ही प्रभु को पसन्द हैं तथा प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं । इन्हें ही प्रभु अपनी कृपा का पात्र समझते हुए , इन पर कृपा करता है । एसे लोगों को वह पिता सब प्रकार के आवश्यक धन प्राप्त करने में सहाय होते हैं , सब एश्वर्यों के स्वामी बनाने में पथ प्रदर्शक का कार्य करते हैं । इस मन्त्र में चर्षणीय तथा वसूनां शब्दों का प्रयोग किया गया है । इन शब्दों के द्वारा यह भावना ही प्रकट होती है कि प्रभु की दया उसे ही मिलती है जो पुरुषार्थी है । जो मेहनत नहीं करता, आलसी है , प्रमादी है , एसे लोगों को प्रभु न तो पसन्द ही करते हैं तथा न ही उनकी किसी प्रकार की सहयता करते हैं । प्रभु उन पर अपनी दया दृष्टि कभी नहीं डालते । अत: प्रभु की दया पाने के लिए पुरुषार्थी होना आवश्यक है । 

३. प्रभु सब का कल्याण करते हैं ;-

परमपिता परमात्मा पांचों प्रकार के मनुष्यों के ईश हैं । इस वाक्य से एक बात स्पष्ट होती है कि इस संसार में पांच प्रकार के मनुष्य होते हैं । हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रभु ने इस संसार के मानवों को पांच श्रेणियों में बांट रखा है । यह श्रेणियां उनकी योग्यता अथवा उनके गुणों के अनुसार बनायी गई हैं । 

जिस प्रकार एक विद्यालय में विभिन्न कक्षाएं होती हैं तथा प्रत्येक शिक्षार्थी को उसकी योग्यता के अनुसार कक्षा दी जाती है । जिस प्रकार हम देखते हैं कि इस विद्यालय में विभिन्न प्रकार के कर्मचारी होते हैं । प्रत्येक कर्मचारी को उसकी योग्यतानुसार चपरासी,लिपिक, अध्यापक अथवा मुख्याध्यापक का पद दिया जाता है। यह सब प्रभु की व्यवस्था की नकल मात्र ही है क्योंकि प्रभु ने इस जगत के मानवों को , उनकी योग्यता के अनुसार पांच श्रेणियों में बांट रखा है । 

यह पांच श्रेणियां इस प्रकार हैं :-
मानव - समाज = 
(क) ब्राह्मण 
(ख) क्षत्रिय 
(ग) वैश्य 
(घ) शूद्र 
(ड.) निषाद । 

यह प्रभु की व्यवस्था है । जिस में जिस प्रकार के गुण हैं अथवा जिस में जिस प्रकार की योग्यता है , उसे उस प्रकार के वर्ग में ही प्रभु स्थान देते हैं । इस के साथ ही प्रभु उपदेश भी करते हैं कि हे मानव ! तेरी वर्तमान योग्यता को देखते हुए मैंने तुझे इस श्रेणी में रखा है , इस वर्ग में रखा है , यदि तू पुरुषार्थ करके , मेहनत करके अपनी योग्यता को बढा लेगा तो तुझे सफ़ल मानकर उपर की श्रेणी में भेज दिया जावेगा ओर यदि तू प्रमाद कर , आलसी होकर अपनी योग्यता को कम कर लेगा तो तुझे निरन्तर उस श्रेणी में ही रहना होगा जिस प्रकार एक असफ़ल बालक को अगले वर्ष भी उसी कक्षा में ही रहना होता है किन्तु तूने फ़िर भी मेहनत न की तो तेरी श्रेणी नीचे भी की जा सकती है ।

 इस प्रकार पांच श्रेणियां बना कर प्रभु ने मेहनत करने का मार्ग मानव मात्र के लिए खोल दिया है । 

वह परमात्मा तो सब मनुष्यों के ईश हैं । सब पर समान रूप से दया करते है । सब को समान रुप से धन देते हैं किन्तु देते उतना ही हैं जितना उसने पुरुषार्थ किया होता है । जिस प्रकार एक कपडे की मिल के सेवक को मालिक उतना ही धन प्रतिफ़ल में देता है , जितना उसने कपडा बनाया होता है , उससे अधिक नहीं देता ।

 इस प्रकार ही वह प्रभु भी मानव को उतना ही धन देता है , जितना उस मानव ने मेहनत किया होता है , इस से अधिक कुछ भी नहीं देता । कपडे की मिल के मालिक से तो कई बार अग्रिम भी प्राप्त किया जा सकता है किन्तु परमात्मा किसी को अग्रिम धन नहीं देता । यह ही उस प्रभु की दया है , उस प्रभु की कृपा है । इस प्रकार प्रभु सब को धन देकर सब का कल्याण करते हैं क्योंकि वह ही क्ल्याणकारी हैं ।

डा. अशोक आर्य

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