प्रभु सान्निध्य से प्रभु तुल्य दीप्त बनें


प्रभु की निकटता पा लेने पर हमारा भय दूर होगा । सब प्रकार के धन एश्वर्यों के हम स्वामी बन जावेंगे । सब प्रकार का सुख - वैभव तथा अनन्द हमें मिलेगा तथा हम प्रभु के ही समान दीप्त हो जावेंगे । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है : -

इन्द्रेणसंहिदृक्षसेसंजग्मानोअबिभ्युषा।
मन्दूसमानवर्चसा॥ ऋ01.6.7

यह मन्त्र चार बातों को इंगित करते हुए कहता है , उपदेश करता है कि :
 
१. प्रभु के समीप रह ऐश्वर्यों के स्वामी बनें 

हे मानव निरन्तर प्रभु स्तवन कर , पिता का स्मरण कर , उसका कीर्तन कर तथा उसकी समीपता प्राप्त कर । तूं उस भय रहित , उस परम एशवर्यशाली प्रभु के मेल को प्राप्त होगा तथा उस की निकटता पाते हुए हे प्राणी तू ! निश्चय से ही उस की उपासना से ,. उस की निकटता से उन्नत होते हुए निरन्तर आगे ही बढता जाता है । 

हम जिस पिता के आराधक है , वह पिता सब प्रकार के भय से , सब प्रकार के डर से रहित होता है । जब हमारा पिता ही भयभीत नहीं होता तो उसके निकट रहने के कारण हमें भी किसी प्रकार का भय सता नहीं सकता । हम भी भय से रहित हो जाते हैं । वह तो भय के लवलेश से भी रहित होता है । उसे किंचित सा भय भी नहीं होता । 

वह पिता परमैश्वर्यशाली होता है , सब प्रकार के एश्वर्यों का स्वामी होता है । उसकी निकटता के कारण हम भी एश्वर्यों के स्वामी बनते हैं । यह सब उस प्रभु के समीप स्थान पाने से होता है , यह मेल उसकी उपासना का ही परिणाम होता है । जब हम उस पिता से मेल कर लेते हैं , उससे निकटता पा लेते हैं तो हम भी आगे बढने लगते हैं तथा उन्नत होने के अधिकारी बन जाते हैं । 

२. प्रभु के निकट रह भय मुक्त हों 

यह एक स्वाभाविक नियम है कि जिस का साथी भय रहित होता है , उसके सान्निध्य के कारण वह भी सब प्रकार के डर से मुक्त हो जाता है । यह भी सत्य है कि जिसका मित्र सब प्रकार के एश्वर्यों का स्वामी होता है उस का यह साथी भी एश्वर्यों को प्राप्त करने में सशक्त हो जाता है । इस लिए हे प्राणी ! तूं उस प्रभु का सान्निध्य प्राप्त कर , उस प्रभु का गुणगान कर , उसकी उपासना ओर उसका कीर्तन कर ताकि तूं भी उस प्रभु के ही समान भय से मुक्त हो जावे तथा धन एशवर्य से सम्पन्न हो जावे । 

३.प्रभु गुणगान से आनंद प्राप्ति 

हम जानते हैं कि निर्भय व्यक्ति सदा आनन्दित रहता है । जो आनन्दित रहता है , वह ही धन व एश्वर्य का स्वामी हो सकता है , अधिकारी हो सकता है , अन्य नहीं । हम यह भी जानते हैं कि हमारा वह पिता कभी भयभीत नहीं होता । वह तो है ही भय रहित । वह प्रभु सदा आनन्द मय ही रहता है क्योंकि वह भय से रहित है । वह परम पिता सदा आनन्द मय होता है इसलिए वह एश्वर्य से भरा रहता है । 

जब हम उस पिता के निकट जा कर उस का चिन्तन करते हैं तो हम भी भय से दूर हो जाते हैं , भय से रहित हो जाते हैं । भय रहित होने से हमारा जीवन भी आनन्द से भर जाता है तथा हम भी आनन्द से सम्पन्न हो कर अनेक प्रकार के धन एश्वर्यों को पाने में सक्षम हो जाते हैं , अनेक प्रकार के एश्वर्यों को पाकर सुखी हो जाते हैं । इस लिए सुख के अभिलाषी प्राणी को सदा प्रभु के समीप जा कर उस का गुणगान करना चाहिये ।

४. प्रभु स्तवन से दीप्ती जब हम प्रभु की निकटता पाने में सफ़ल हो जाते हैं तो जिस प्रकार वह प्रभु दीप्ति से भर पूर दिखाई देता है , उस प्रकार हम भी दीप्त ही दिखाई देते हैं । प्रभु की आभा तथा हमारे मुख मण्ड्ल की आभा , चमक , दीप्ति एक समान ही दिखाई देती है । जिस प्रकार एक यज्ञकर्ता , एक होता , एक यज्ञमान , जब यज्ञ कर रहा होता है , अग्नि के सम्मुख बैठा होता है , उस समय उस की आभा , उसका मुख मण्डल भी अग्नि का सा ही हो जाता है । 

जैसा तेज अग्नि का होता है , यज्ञकर्ता भी वैसा ही दिखाई देता है । इस प्रकार अग्नि व उस अग्नि का उपासक दोनों ही समतुल्य दीप्ति वाले दिखाई देते हैं । इस प्रकार ही जब हम उस पिता के समीप आसन लगा लेते है तो हम भी उस पिता के से ही तेज वाले बन जाते हैं । 

यदि वेदान्त दर्शन की मानें तो हम इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रभु का सान्निध्य पाने से , उसकी निकटता पाने से प्रभु के निकट जाने वाले प्राणी में भी वैसे ही गुण आने लगते हैं , जैसे उस प्रभु में होते हैं । इस प्रकार वह भी परमात्मा जैसा ही बन जाता है । बस अब प्रभु में ओर जीव में यह अन्तर ही रह जाता है कि प्रभु तो सृष्टि का निर्माण कर सकता है किन्तु जीव यह कार्य नहीं कर सकता क्योंकि सृष्टि के निर्माता होने के लिए उसका निराकार होना तथा सर्वशक्तिमान होना आवश्यक होता है , जो यह गुण है वह जीव कभी प्राप्त नहीं कर सकता । अन्य गुणों में वह प्रभु के बहुत निकट चला जाता है ।

डा. अशोक आर्य 

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