यज्ञीय बन प्राणायाम पूर्वक प्रभु अर्चन करें

हम अपने जीवन को यज्ञमय बनाकर परोपकार में लगावें । एसे पवित्र जीवन वाले बनकर हम प्राण - साधना अर्थात प्राणायाम पूर्वक उस पिता का अर्चन करें, स्मरण करें । इअ प्रकार हम प्रभु के सहस से उठकर सह्स्वान बने । इस बात की ओर ही यह मन्त्र इस प्रकार संकेत कर रहा है :-

अनवद्यैरभिद्युभिर्मखःसहस्वदर्चति।
गणैरिन्द्रस्यकाम्यैः॥ ऋ01.6.8 


इस मन्त्र में पांच बातों पर चर्चा करते हुए कहा गया है कि : -

१. प्रभु स्तवन हममे साहस बनें 

प्रभु की उपासना करने वाला उस पिता का उपासक सदा गतिशील होता है । इतना ही नहीं यह उपासक कर्मशील भी होता है । वह निरन्तर गतिमान बने हुए कर्म करता है तथा एसा पुरुष मरुतों के साथ , मरुतों के सहाय से उस पिता की सबल अर्थात पूर्ण बल से , पूर्ण शक्ति से अर्चना करता है । प्रभु अर्चना की पह्चान क्या है ? प्रभु अर्चना की तो पहचान यह ही है कि उसके उपासक में . उसके भक्त में "साहस " उत्पन्न हुआ या नहीं । सह्स की उत्पति ही तो उसकी पह्चान है । प्रभु सहोअसि हैं , वह पिता साहस के पुन्ज हैं । उनके पास साहस का अपरिमित भण्डार है । जब एक उपासक उस साहस के भण्डारी की उपासना करता है तो उस में भी उस पिता के गुण आने लगते हैं । जो उस पिता का उपासक होता है , उस में उस पिता के गुणों का आघान होना ही होता है । इस कारण उपासक में साहस की उत्पति निश्चित रुप से होनी ही चाहिए ।

२. प्राण साधना से वासनाओं का नाश 

जिन प्राणों की साधना से अथवा यूं कहें कि जिस प्रणायाम के द्वारा अपने शरीर को पवित्र कर इस साधना पूर्वक इन्द्र प्रभु की अर्चना करता है ( इन्द्र क्या है ? अपने आप को किसी विशेष कर्म में सर्वज्ञ बनाना , पूर्ण निपुण करना ही इन्द्र है , किसी कर्म में पारंगत व्यक्ति को उस विषय का, उस कर्म का इन्द्र कह सकते हैं । जब एक व्यक्ति अप्रिमित साधना से , पूर्ण साधना से अपने विषय की विशेषज्ञता , मर्मज्ञता पा लेता है तो उसे उस विषय का इन्द्र कहा जा सकता है ) एसे व्यक्ति के प्राण, एसे व्यक्ति के श्वास से वासनाओं का नाश हो जाता है , यह व्यक्ति वासनाओं से रहित हो जाता है । इस का ही परिणाम होता है कि मानव जीवन पाप रहित हो जाता है , इस के जीवन में पाप नहीं होते । वासनाएं पाप का कारण होती है जब उसमें वासना ही नहीं है तो पाप कौन करेगा ? अर्थात पाप होंगे ही नहीं ।

३. प्राण साधना से उर्ध्वरेता 

यह प्राण अर्थात प्राणायाम से मानव उर्ध्वरेता होता है । भाव यह है कि प्राण साधना से मानव उपर की ओर, आकाश की ओर जाता है क्योंकि यह प्राण उसे आकश की ओर ले जाने वाले होते हैं । यह तो वासना विनाश का एक स्वाभाविक कारण होता है । वासना की यह एक स्वाभाविक गति है कि वासना मानव के विनाश का कारण होती है तथा प्राण साधना वासना के विनाश का कारण होती है । 

जो व्यक्ति प्राण साधना पूर्वक वासनाओं का विनाश करने में सफ़ल हो जाता है तो वह इतना उपर उठ जाता है कि अब उसके यह प्राण उसे आकाश की ओर ले जाने के योग्य बन जाते हैं । वासना को व्रत्र भी कहते हैं , जिसका भाव पर्दे से होता है । इस कारण हम कह सकते हैं कि वासना एक पर्दे के समान होती है । जब तक हमारी आंखों पर वासना रुपी पर्दा पडा हुआ है , तब तक हम किसी भी प्रकार का प्रकाश नहीं देख सकते । ज्यों ही हम प्राण साधना की सहायता से इस वासनाओं के परदे को ह्टाने में सफ़ल हो जाते हैं त्यों ही ज्ञान का प्रकाश हमारे अन्दर प्रवेश करता है , ज्ञान का प्रकाश हमें दिखाई देता है । 

४. प्राण जीवात्मा को चाहने वाले 

प्राण को गण भी कहते हैं क्यों ? क्योंकि प्राण कभी एक नहीं होता । हम जो श्वासें लेते हैं इन्हें ही प्राण कहा जाता है , हम जो जीवित हैं , इन प्राणों के ही कारण हैं । श्वास निरन्तर चलते हैं , इस कारण यह एक हो ही नहीं सकते यह अनेक होने के कारण इन्हें यहां गण कहा गया है । अत; हमारे यह प्राण गण हें, अनेक हैं । यह संख्यान के योग्य हैं । इनकी संख्या होती है । संख्या उस की ही हो सकती है , जो एक से अधिक हो । अत: यह प्राण संख्या में आने वाले होते हैं । 

संख्यान के योग्य होने से ही हमारे यह प्राण प्रशंसनीय भी होते हैं । इस कारण ही यह प्राण जीवात्मा को चाहने वाले भी होते हैं । जब तक प्राण चलते हैं , तब तक ही उनका जीवात्मा से मेल बना रह सकता है । इसलिए प्राण जीवात्मा को चाहने वाले होते हैं । 

कौन से प्राण चाहने के योग्य होते हैं ? वह प्राण जो मनुष्य को उतम जीवन वाला बनाने में सहायक हों । जो प्राण मनुष्य को उतम जीवन वाला न बना सकें उन प्राणों का क्या उपयोग है । इस कारण ही तो कहा जाता है कि मनुष्य प्रति दिन शुभ महुर्त से उठकर बाहर भ्रमण को जावे किसी नदी के तट पर या किसी बगीचे में जा कर आसन प्राणायाम करे , प्राण साधना करे ताकि उस के अन्दर शुद्ध आक्सीजन से युक्त प्राण वायु प्रवेश करे । एसी उतम वायु के प्राण के प्रवेश से वह उतम जीवन वाला बनता है , स्वस्थ शरीर वाला बनता है ।

 अत: यह शुद्ध प्राण ही उसे उतम जीवन वाला बनाने में सहायक होते हैं । एसे उतम जीवन वाला होने से ही वह उत्कर्ष की ओर , उन्नति की ओर जाने वाला बनता है । इस प्रकार निरन्तर उपर उठते हुए वह परमात्मा से मिलाने का कारण भी बनते हैं । 

५. पवित्र कर्मों से यज्ञशील बनें 

इस प्रकार जो व्यक्ति प्राण की साधना पूर्वक अपना जीवन चलाता है , एसा व्यक्ति पवित्र कर्मों वाला होता है , एसे व्यक्ति के किये गए कर्म सदा पवित्र ही होते है । एसा होते हुए वह यज्ञशील होता है अर्थात वह प्रतिदिन तथा प्रतिक्षण अनेक प्रकार के यज्ञों को करता रहता है । प्रात: सायं तो हवन के रुप में यज्ञ करता ही है , इस के साथ ही दिन भर के कर्मों में भी यज्ञीय भावना को बनाये रखता है । दूसरों की सहायता रुप परोपकार के कार्य करते हुए यज्ञ ही करता रहता है । इस प्रकार वह व्यक्ति यज्ञ का ही रुप बन जाता है ।

डा. अशोक आर्य

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