बहुत पुरातन काल में हमारे ऋषि-मुनियों की एक सभा हुई, उस सभा में ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मविचारक, ब्रह्मचारी और ब्रह्मश्रोत्रीय और जिज्ञासु उस सभा में विद्यमान थे।
तो सभा जब एकत्रित हुई तो उसमें महर्षि श्वेताश्वेतर ने उस सभी की अध्यक्षता की और यह कहा कि यह जो समाज है, साधारण समाज, यह कैसे ऊँचा बने? कौन-सा कर्म ऐसा है, जिस को अपनाने के पश्चात् अपना आत्मोत्थान हो? तो इसके ऊपर विचार-विनिमय किया जाये कि कौन-सा ऐसा कार्य हो ?
इसमें भिन्न-भिन्न ऋषियों के विचार, देवपूजा के सम्बन्ध में सभा में प्रकट हुए। महर्षि प्रह्नण जी उपस्थित हुए और प्रह्नण जी ने यह कहा कि ‘‘मेरे विचार में यह आता है कि जन-समूह के लिए एक पद्धति बना देनी चाहिए और जिस पद्धति के आधार पर वह अपने जीवन को सदैव नवीन स्वीकार करता रहे’’ ।उन्होंने कहा, ‘‘मेरे विचार है कि यह जो देवपूजा का कृत्य है, यह ऋषि-मुनियों का और वैदिकता का एक, बालमनोवृत्ति कहलाता है, इसके ऊपर विचार-विमर्श होना चाहिए’’।
यह वाक्य स्वीकार किया गया और सभी विचारने लगे कि यह पद्धति कैसे बने?
अपने विचार देते हुए महर्षि वैशम्पायन ब्रह्मवेत्ता ने यह कहा कि- “जितनी भी मानवीय पद्धति है, उन पद्धतियों में एक मानव-कर्मकाण्ड की स्थापना होनी चाहिए, क्योंकि कर्मकाण्ड में ही मानव कटिबद्ध हो करके, उन क्रियाओं में सफलता को प्राप्त कर सकता है। जिन क्रियाओं में देवताओं का समूह विद्यमान रहता है।”
यह निर्णय देते हुए इस सन्दर्भ में पुनः विचार-विमर्श होने लगा। ऋषि-मुनियों में एक उत्साह, एक उल्लास इस पद्धति के लिए था तो नाना ऋषि-मुनियों ने एक ही अपना विचार दिया कि देवपूजा होनी चाहिए।
जड़-चतेन देवता
देवता कौन-कौन हैं? उन देवताओं की गणना में लग जाना चाहिए। उन देवताओं के लिए निर्णय देने के लिए शुभावेतु ऋषि महाराज ने कहा कि ‘‘यह जो मानवीय पद्धति है, ‘अस्वतम् देव-पूजा’ है, देवता हमारे दो प्रकार के होते हैं, एक जड़वत होता है और एक चतेनावत होता है।
चतेना में हमारे देवता पितर कहलाते हैं, जैसे माता है, पिता है, आचार्यजन हैं, अतिथिजन हैं, ब्रम्हवर्चस्वी जन हैं, पुरोहितजन हैं, जो मानव को उर्ध्व शिक्षा देते है , वे हमारे मानो देवता कहलाते हैं और उन देवताओं के प्रति हमें अगाध प्रीति रहनी चाहिए। उनका पूजन करना चाहिए।
चेतन देवताओं की पूजा एवं पूजन का अभिप्राय
पूजन कहते हैं, उनका यथोचित स्वागत किया जाये और उनको अपने हृदय में, उनके ज्ञान और विज्ञान की प्रतिभा को अपने में धारण करते हुए वह, मानव उसका प्रसार, उसका चलन करता है, वह उनकी आज्ञा का पालन करता है, तो उनको पूजा कहा जाता है।
पूजा का अभिप्रायः यह नहीं है कि हम उसके चरणों की वन्दना कर रहे हैं और उसकी आज्ञा का पालन नहीं कर रहे है। तो चरणों की वंदना से कोई लाभ नहीं है, देखो वह लाभप्रद नहीं है, लाभप्रद उसी काल में होगा जब भी मानो उसके विचारों को ओर उसकी मान्यताओं को ऊँचा बनाने का प्रयास करेगा।
- महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज के प्रवचनों से साभार
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