प्रभु हमारे सब मनोरथ पूर्ण करते हैं


परमपिता परमात्मा दयालु हैं । हम सदा उन की दया पाने के लिए यत्न करते हैं । जब उनकी हम पर दया हो जाती है तो वह पिता हम पर अपना अपार स्नेह करते हुए , हमारा ज्ञान का कोष , ज्ञान का खजाना भर देते हैं । इस ज्ञान के खजाने के मिलते ही हमारे सब मनोरथ, सब कामनाएं पूर्ण हो जाते हैं । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार बता रहा है :-

सनोवृषन्नमुंचरुंसत्रादावन्नपावृधि।
अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः॥ ऋ01.7.6

इस मन्त्र में दो बिन्दुओं पर विचार किया गया है :-

१. ज्ञान के भण्डार को खोलो ;-

मन्त्र आरम्भ में ही कह रहा है कि हे प्रभु ! आप हमें वाज व सह्स्रधन अर्थात आप हमें भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विजयें , दोनों प्रकार की सफ़लताएं दिलाने का कारण हैं क्योंकि आप हमारे मित्र हो । मित्र सदा अपने मित्र के सुख दु:ख का ध्यान रखता है, उसे सब प्रकार की वह सुख-सुविधायें दिलाता है , जिन की उसे आवश्यकता होती है । यह आप ही हैं , जिसकी मित्रता के कारण हम यह सब प्राप्त कर पाते हैं । इसलिए हम सदा आप का साथ , सदा आप का सहयोग , सदा आप की मित्रता बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं । 

हे सब प्रकार के सुखों को देने वाले मित्र रुप प्रभो ! हे सदा , सर्वदा सब प्रकार के उतम फ़लों - प्रतिफ़लों के देने वाले प्रभो ! आप हमारे लिए उस ज्ञान के कोष को , उस ज्ञान के भण्डार को खोलिए ।

ब्रह्मचर्य का भाव होता है ज्ञान को चरना, ज्ञान में घूमना , ज्ञान में विचरण करना । इस ब्रह्मचारी को आचार्य लोग विविध विषयों का , अनेक प्रकार के विषयों का ज्ञान कराते हैं , ज्ञान का उपभोग कराते हैं , ज्ञान का भक्षण कराते हैं , ज्ञान में घुमाते हैं , इस ज्ञान की सैर कराते हैं । जिस भी वस्तू का भक्षण या चरण किया जाता है जीव उसका चरु बन जाता है ।

 मानव मुख्य रुप से ज्ञान का भक्षण करने के लिए आचार्य के पास जाता है । जब वह इसे पुरी तरह से , समग्र रुप में चरण कर लेता है तो वह ज्ञानचरु हो जाता है , वहां से ज्ञानचरु बन कर निकलता है । जब हम इसे विशालता से देखते हैं , जब हम इसे बढा कर देखते हैं , जब हम इस का अपावरण करके देखते हैं तो इस का प्रकट करना ही वेद ज्ञान का कोश है , वेद ज्ञान का भण्डार है । 

प्रभु कृपा ही इस ज्ञान के भण्डार को खोलने की चाबी है, कुंजी है । जब तक हमें उस पिता की दया नहीं मिलती , तब तक हम इस ज्ञान का ताला नहीं खोल सकते । इस लिए हम सदा ही उस पिता की दया रुपी वरद ह्स्त पाने का प्रयास करते रहते हैं । ज्यों ही हम उस प्रभु का आशीर्वाद पाने में सफ़ल होते हैं त्यों ही हम इस ज्ञान के भण्डार का ताला खोल कर इसे पाने में सफ़ल हो पाते हैं । हम इसे खोल कर ज्ञान का विस्तार कर पाते हैं ।

२. प्रभु कभी इन्कार नहीं करता

परम पिता परमात्मा प्रतिशब्द से रहित है । वह अपने भक्त के लिए , अपने मित्र के लिए न नामक शब्द अपने पास रखता ही नहीं । उसके मुख से अपने मित्र के लिए, अपने उपासक के लिए , अपने निकट बैठने वाले के लिए सदा हाँ ही निकलता है , सहयोग ही देता है , मार्ग - दर्शन ही देता है , ज्ञान ही बांटता है , कभी भी नकारात्मक भाव प्रकट नहीं करता । भाव यह है कि जीव प्रभु की प्रार्थना करता है तथा चाहता है कि वह पिता सदा उसको सकारात्मक रुप से ही देखे , कभी नकारात्मक उतर न दे । वह प्रभु हमारी प्रार्थना को सदा ध्यान से सुने । 

परम पिता परमात्मा को सत्रादावन कहा गया है । इसका भाव है वह पिता सदा देने ही वाले हैं , सदा दिया ही करते हैं , बांटते ही रहते हैं किन्तु देते उसे हैं जो नि:स्वार्थ भाव से मांगता है , जो देने के लिए मांगता है । जो दूसरों की सहायता के लिए मांगता है , ऐसा व्यक्ति ही प्रभु के दान के लिए सुपात्र होता है , एसा व्यक्ति ही प्रभु से कुछ पाने के लिए अधिकारी होता है , ऐसा व्यक्ति ही उस पिता की सच्ची दया का अधिकारी होता है । यदि पिता की दया प्राप्त हो गयी तो उसे सब कुछ ही मिल गया । अत: मन्त्र के इस अन्तिम चरण में जीव प्रभु से याचना करता है कि हे प्रभो ! हम सदा आप से यह ज्ञान का कोष पाने के अधिकारी बने रहें ।

डा. अशोक आर्य 

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