हम यज्ञमय बनें तथा उत्तम कर्म करें

हम अपने जीवन को यज्ञ के समान बनावें किन्तु यह सब यज्ञ उस परमपिता परमात्मा के द्वारा होते हुये समझे । हम सदा अच्छे कर्म करें किन्तु अपने द्वारा किये उत्तम कर्मों पर गर्व न करें । यह है देव बनने के सर्वोत्तम मार्ग । यह सब इस मन्त्र में इस प्रकार बताया गया है : -

अग्नेयंयज्ञंध्वरंविश्वत:परिभूरसि ।
स इद्देवेषुगच्छ्ति॥ ऋग्वेद १.१.४ ॥ 

गत मन्त्र मे बताया गया था कि यज्ञकर्ता अनेक प्रकार के धनों को प्राप्त करता है तथा इस धन का प्रयोग, विनियोग भी यज्ञादि उत्तम कर्मों में करता है किन्तु कभी इस धन पर इन यज्ञ कार्यों पर उसे गर्व न हो जावे , इस लिये वह उस पिता से प्रार्थना करता है कि हे सर्व कर्म संचालक प्रभो ! हिंसा से रहित हो कर श्रेष्ठ कर्म को सब ओर से व्याप्त करने वाले , सब ओर से रक्षा करने वाले तथा सब ओर से व्यवस्थित करने वाले आप ही हो। 
इस प्रकार से किया गया यज्ञ ही देवताओं को प्राप्त होता है । हे प्रभो ! वास्तव में यज्ञ तो आप ही करते हो , बस देव तो उस यज्ञ को करने का माध्यम मात्र ही होते हैं ।

वास्तव में इस संसार के प्रत्येक कर्म को करने का जीव तो माध्यम मात्र ही है , सब उत्तम कर्म करने वाले तो परम पिता परमात्मा ही होते हैं । अनेक बार अज्ञानता के कारण हम समझते हैं कि यह उत्तम कर्म मैंने किया है , इस भ्रम में हम उस कर्म की उत्तमता के कारण , उस पर गर्व करने लगते हैं । इस गर्व के कारण ही किये गये उतम कर्म की उत्तमता समाप्त हो जाती है । इन शब्दों से यज्ञ को दैवीय सम्पति स्वीकार किया गया है । यह तथ्य भी है कि यज्ञ देवों में ही होता है । 

देव लोग ही यज्ञ करते हैं किन्तु जब इस यज्ञ को करने पर किंचित मात्र भी अभिमान हो जाता है तो इसे राक्षस तुल्य कर्म के रुप में स्वीकार कर लेते हैं । राक्षस लोग यज्ञ आदि कर्म सदा यश प्राप्त करने की इच्छा से करते हैं । राक्षस लोग बिना लाभ का कोइ भी कार्य नहीं करना चाहते । अत: यज्ञ का भी लाभ लेना चाहते हैं तथा गर्व से कहते हैं कि , यह यज्ञ किया था तो यह लाभ मिला है । इससे खूब यश चाहते हैं ,आनन्द चाहते हैं , खूब कीर्ति चाहते हैं । इस प्रकार असुर लोग अपने से किये गये किसी भी कार्य के अज्ञान से मूढ , मूर्ख बने रहते हैं । 

असुर लोग यज्ञादि कर्म मात्र ढ़ोंग के लिये करते हैं । वह लोग यह यज्ञादि कर्म लाभ पूर्ण अथवा अपने हित के लिये करते हैं , उनके यह कर्म अभिमान से भरे होते हैं , आत्म सम्मान की भावना से करते है तथा इन्हें करके वह इसे उस पिता को कभी नहीं सौंपते हैं, जब कि देव लोग इन उत्तम कर्मों को करके प्रभु के अर्पण इस लिये करते हैं ताकि वह अपने कर्तव्यों को पूर्ण करते हुये अहंकार आदि दोषों से बचे रहें । इस प्रकार देव लोग निर्मल व अहंकार से रहित होकर प्रभु को पाते हैं तथा शान्त जीवन वाले बनते हैं ।

डा. अशोक आर्य 

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