वैचारिक प्रदूषण के कारण और वेद ज्ञान द्वारा निवारण

परमात्मा का जो राष्ट्र(विश्व) है यह अनन्त है। इस अनन्तमयी राष्ट में अपने विचारों को याग(शुभता) में ले जाएं, सुगन्धि में ले जाएं जिससे प्रदूषण समाप्त हो जाए।  क्योंकि वर्तमान के काल में इतना प्रदूषण आ गया है की अब से कुछ समय के पश्चात् मानो देखो श्वांस लेने में भी मानव अपने में देखो दुखित होता रहेगा और श्वांस लेते ही मृत्यु भी हो सकती है। ऐसा प्रदूषण इस संसार में फैल गया है और प्रदूषण के दो कारण हैं। उनके कारणों में अशुद्ध वाक् उच्चारण करना और उनके रहन सहन की, खान-पान की पद्धतियाँ भ्रष्ट होने से मानो प्रदूषण का जन्म होता है ।

हमारा विचार, हमारा अन्नाद भूतम् पवित्र ,होना चाहिए। हम दूसरे के रक्त को जब हम पान करने में और सुरा में लगे रहते हैं तो उससे प्रदूषण का जन्म होता रहता है, यह प्रदूषण नहीं होना चाहिए। हमारा आहार और व्यवहार, हमारा जीवन पवित्रता में, पवित्रता की आभा में रत हो जाए।

राष्ट्र और राजा के लिए संदेश

एक मुझे यह वाक् उच्चारण करना है कि यह जो नाना प्रकार के ईश्वर के नाम पर नाना प्रकार की रूढ़ियाँ बनी हुई है।कोई मोहम्मद के मानने वाला है, कोई ईसा को  मानने वाला है, कोई नानक के मानने वाला है परन्तु देखो एक-दूसरे के विचारों में रक्त भरी क्रान्ति का संचार आ रहा है।

तो वह जो विचार है वह दूषित वायुमण्डल को जन्म देते हैं इसीलिए विचारवान राजा का कर्तव्य  है - दार्शनिक बनकर के राजा अपने राष्ट्र में दार्शनिकता का प्रसार करे जिससे मानव की वाणी पवित्र हो जाए, मानव का रहन, विचार पवित्र हो जाए। आहार पवित्र हो जाए और यह रूढ़िवाद विचारों का समाप्त हो जाए।
एकोकी धर्मम् ब्रह्मा यह मानव की इन्द्रियों में जो धर्म है उसको विचार करके मानव को ग्रहण करना चाहिए और राजा अपने राष्ट्र को ऊँचा बनाए, यही राजा का कर्तव्य है। पुरातन काल में जब राष्ट्र का निर्माण हुआ तो
भगवान् मनु ने सबसे प्रथम राष्ट्र का निर्माण करते उन्होंने कहा है-

क्या राजा को चाहिए कि धर्म को मानवीय जीवन पद्धति में लाने का प्रयास करे, इसीलिए राष्ट्र का जन्म होता है। राष्ट्र का जन्म इसलिए नहीं होता कि धर्म की अवहेलना की जाए और धर्म कहते किसे हैं- जो मानव की इन्द्रियों में समाहित रहता है। इन्द्रियों का दृष्टिपात करना ही वही धर्म है। और नाना प्रकार की रूढ़ियाँ नहीं रहनी चाहिए। यह रूढ़ियाँ राष्ट्र के लिए घातक हैं, मानो समाज के लिए घातक हैं और यही मानो देखो प्रदूषण को जन्म देती रहती हैं। हे यजमान (मानव) ! तेरे जीवन का सौभाग्य अखण्ड बना रहे और तेरी मानवीयता अपने में पवित्रता को धारण करती रहे।


- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार ।


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आधिदैविक यज्ञ का तत्वदर्शन | Philosophy of AdhiDavik Yagya

हमारे यहाँ नाना प्रकार के यज्ञों का प्रायः वर्णन आता रहता है। आज मैं दैवी यज्ञ के सम्बन्ध में संक्षिप्त परिचय देना चाहता हूँ। हमारे यहाँ परम्परा से ही दैवी यज्ञ होता रहा है। परन्तु यज्ञ का अभिप्रायः क्या है? उसकी दो प्रकार की रूपरेखा है एक भौतिक है, दूसरी आध्यात्मिक है। आज मैं भौतिक रूप का वर्णन किए देता हूँ।

बेटा ! भौतिक यज्ञ में यजमान विराजमान होता है, वह आधि दैवीक यज्ञ के लिए तत्पर होता है। मुनिवरो ! देखो, दैवी यज्ञ का अभिप्रायः है दैविक विचारधारा को और मानव पर जो दैविक आपत्ति आती है उसको शान्त बना देने के लिए वह यज्ञ किया जाता है। प्रकृति से जितना कष्ट होता है उसे आधि-दैविक कहते हैं।

प्रभु से याचना की जाती है कि प्रभु यह आपत्ति हमें नहीं
चाहिए। मानो हमारे जीवन में यह प्रकृति शान्त भाव से रमण करती रहे। यही ‘आवाभ्रवे’ यह जो प्रकृति है यह संसार का उपकार आप के द्वार पर होता रहे। ऐसा बेटा ! विचार है। हमारे यहाँ यह यज्ञ का अभिप्रायः है। यह जो आपत्तियाँ आती हैं दैविक अर्थात् आधिदैविक, आधिभौतिक, मानव पर आपत्तियाँ आती हैं ये नहीं आनी चाहिए। ऐसी कामना के साथ अनुष्ठान किया जाता है। मुनिवरो ! उस अनुष्ठान की बहुत ही ऊँची उड़ान रहती है।
परन्तु अभिप्राय यह कि इसको अनुष्ठान कहते हैं। अनुष्ठान की उड़ान कितनी विचित्र है? उस उड़ान के ऊपर मानव को विचार-विनिमय करना चाहिए।

मुझे स्मरण है माता अनुसुइयाअनुष्ठान पूर्वक यज्ञ करती रहती थीं। यज्ञ किसे कहते हैं? (दैवी-यज्ञ कैसा माना गया है?)
हमारे यहाँ 15 प्रकार के यज्ञ माने हैं। 84 प्रकार की
यज्ञशालाएँ होती थीं। इनमें लगभग 15 प्रकार की यज्ञशालाएं मुख्य मानी हैं। एक चतुष्कोण यज्ञशाला होती है। एक त्रिकोण होती है, पंचकोण होती है, सप्तकोण होती है।

परन्तु जो दैवी यज्ञ करने वाले होते हैं जो देवी के कर्मकाण्ड को जानते हैं वह सप्त जिह्ना वाली यज्ञशाला का निर्माण करते हैं।

क्योंकि अग्नि की सप्त जिह्नायें हैं, सप्त जिह्नाओं के  आधार पर सप्तम् प्रकार की कोणों वाली यज्ञशाला बनाई जाती है।

जिस प्रकार बेटा एक वैज्ञानिक जो परमाणुओं का मिलान करना जानता है। वह निर्माणवेत्ता निर्माण करने लगता है और उसी प्रकार का वह निर्माण करता है।

इसी प्रकार यज्ञशाला का निर्माण होता है।
चैत्र मास में प्रभु के उपासक दैवी-यज्ञ किया करते थे| जब सप्तकोण की निर्माणशाला बनाई जाती है यज्ञशाला निर्माणशाला को दोनों रूपों में परणित किया गया है। उसमें ‘अप्रतम्’ पश्चिम जो भाग है उसमें लगभग तीन जिह्ना आ जाती हैं। उनके आधार पर ही उस आसन पर यजमान विराजमान होता है। पत्नी सहित अनुष्ठान संकल्प करता है। अग्नि के समीप विराजमान हो करके
संकल्पवादी बनता है। यज्ञ का अभिप्राय है संकल्प। दैवी यज्ञ का अभिप्राय है सुगन्धि देना इस संसार को|

यज्ञ करने वाला,सबसे प्रथम ज्योति को जागरुक करता है। ज्योति को जागरुक करके उस प्रभु को जागरुक करता है। ज्योति को जागरुक करके उस प्रभु से याचना करते हुए वह प्रभु की गोद में जाने का प्रयास करता है।

तो बेटा ! अभिप्राय यह कि वह जो सप्तकोण की यज्ञशाला है उसमें जो सुगन्धि उत्पन्न होती है, उसमें जो तरंगें उत्पन्न होती हैं, वह इस पृथ्वी को प्राप्त हो जाती हैं। मानो पार्थिव जो तत्व हैं उन्हीं को वह प्राप्त हो जाती हैं। प्राप्त होने का अभिप्राय यह कि जो नाना प्रकार की वनस्पतियाँ इस पृथ्वी पर, वसुन्धरा के गर्भ में शुद्ध रूप से परिपक्व हो जाती हैं उसमें सुगन्धि प्रदान की जाती है।


अखण्ड-ज्योति

यज्ञशाला में ब्रह्मा को चुना जाता है। उद्गाता होता है। एक अध्वर्यु होता है, और होताजन होंते है , जिनको ऋत्विज कहते हैं।

बेटा ! जो यज्ञशाला में अग्नि प्रदीप्त हो रही है हमारे यहाँ ऋषि-मुनि, हमारे यहाँ ऋषि-मुनि,  द्वारा राष्ट्र गृहों में यह अग्नि वर्षों से प्रदीप्त होती रही है। इसका अभिप्राय यह किअखंड ज्योति जो अग्नि है यह कदापि यज्ञशाला से शान्त नही होना चाहिए।

जो यज्ञवेदी है, उस यज्ञवेदी का अभिप्राय यही है कि अखंड ज्योति है। अखंड अग्नि गौ धृत को लेकर के,सुगन्धि करता है, अशुद्ध परमाणुओं को नष्ट करता है। वातावरण उसी के द्वारा पवित्र होता है। आज हमें उस यज्ञ के ऊपर अनुसन्धान करना चाहिए।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार ।


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दैवी पूजा और दैवीय यज्ञों का दर्शन | Worshiping Goddes in True form

देवी की पूजा का यहाँ नाना प्रकार के क्षुद्र दर्शनों ने बहुत ही अपमान किया, संकीर्ण दर्शन अधिक संख्या में हो गए, राष्ट्र में भी इसके विनाश का मूल कारण बना। इसी प्रकार यह जो अशुद्ध परम्परा थी ऊब करके दूसरे सम्प्रदायवादी बने। सत्सनातन धर्म की मानवता, वैदिक-परंपरा को मानव ने दूर कर दिया। क्योंकि संसार में ज्ञान न रहा। ज्ञान का अधूरापन जाने के कारण संसार में रुढ़ि बनती है और वह रुढ़ि विनाश का कारण बनती हैं। वह रुढ़ि घातक बन करके इसके जीवन को नष्ट करने वाली बन जाती हैं।

जब वह उनकी सम्प्रदाय की इच्छाएँ पूर्ण नहीं होती तो वह रुढ़ि जहाँ से उत्पन्न हुई तो उसी को निगलने वाली बन जाती है। आज उससे राष्ट्र और समाज दोनों का विनाश होता जाता है। इसीलिए मैं अधिक विवेचना प्रकट नहीं करूँगा। मैं तो केवल संक्षिप्त अपना परिचय देना
चाहता हूँ। विचार देने आया हूँ कि आज हम देवी की पूजा करने वाले बनें। परन्तु जो आजकल हो रहा है, इसका नाम देवी पूजा नहीं है। ‘‘देवी पूजा का अभिप्राय है, अपने आचरण को पवित्र बनाया जाए और यज्ञ किया जाए।’’

यज्ञ प्रकृति देवी की पूजा है। भगवान् राम के यहाँ यज्ञ की यज्ञ में प्रकृति देवी की पूजा होती थी।  भगवान् राम के यहाँ यज्ञ की अग्नि अखण्ड रूप से जलती थी।

प्राचीन प्रथा है कि सतयुग के काल से चैत्र-मास में प्रतिपदा से लेकर अष्टमी तक यज्ञ रहता था। यहाँ वेदों के नाना पठन-पाठन होते और यज्ञशाला में क्रम चलता, राष्ट्र का ध्वनिमय हो जाता था। वह समय
मुझे स्मरण है जब भगवान् राम लंका को विजय करके आए तो उन्होंने देवी-यज्ञ किया। यज्ञ क्या था, उनके यहाँ एक वर्ष में दो समय देवी की पूजा की जाती थी।

यह समय ऐसे हैं जिसमें पृथ्वी के गर्भ में बीज की स्थापना की जाती है। एक यज्ञ में कृषि के गर्भ से नाना प्रकार की वनस्पतियों का अन्न उत्पन्न हो करके गृह में आता है। तो उस समय प्रत्येक गृह में यज्ञ होने चाहिएं। जब प्रत्येक गृह में यज्ञ होते हैं तो वह प्रकृति माता
की पूजा है, देवी की पूजा है; वही तो हमारे यहाँ अखण्ड-ज्योति है।

भगवान् राम का जीवन मुझे स्मरण है। मेरे पूज्यपाद गुरुदेव कहा करते हैं कि उन्होंने जब से राष्ट्र स्थापित किया और मृत्यु तक; उनके गृह से यज्ञमयी ज्योति का विनाश नहीं हुआ,वह यज्ञ ज्योति, यज्ञ की अग्नि उनकी यज्ञशाला में सदैव प्रदीप्त रहती थी, यज्ञ होते रहते थे।

तो राष्ट्र और समाज उस काल में ऊँचा बना करता था। क्योंकि इनका सम्बन्ध राष्ट्र के और समाज के ऊपर बहुत ही गम्भीरता से अपना प्रभुत्व निर्धारित करता है। इसीलिए इन विचारों को मैं देने आया हूँ कि यज्ञ होने
चाहिए। जितने यज्ञ होंगे उतना राष्ट्र और वायु-मण्डल ऊँचा बन जाएगा।

यज्ञ,मांस और दैवी
परन्तु जहाँ यज्ञों में मांसों की स्थापना की जाती है वे यज्ञ नहीं। अरे ! यज्ञ तो दूसरों की रक्षा करने के लिए होते हैं। दूसरों को नष्ट करने नहीं आते सँसार में। इसीलिए देवी तो पालना करती है। देवी किसी का भक्षण नहीं करती सँसार में। हाँ देवी उस काल में भक्षण करती है जब उसके सतीत्व पर कोई आक्रमण करता है। उस समय देवी चण्डी बन जाती है। वह देवी रुद्र का रूप धारण कर लेती है। माँ काली बन करके वह उस मानव को नष्ट कर देती है। इसीलिए आज हम उस महामना देवी की याचना करने वाले बनें। वह देवी क्या है? वह माता है जिसके गर्भ से मानव का जन्म होता है। जिस गृह में माता का निरादर किया जाता है वह गृह आज नहीं तो कल नष्ट हो जाएगा, जिस राष्ट्र में इस प्रकार की निरादर भावना है वह राष्ट्र नष्ट हो जाते हैं।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार ।


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ऋषियों की सभा में मृत्यु के तत्वदर्शन पर चिंतन

एक समय बेटा! महर्षि व्रेतकेतु ने एक सभा का आयोजन किया। वह  महात्मा जमदग्नि के आश्रम में हुई। एक प्रसंग में ऋषि मुनियों ने एक प्रश्न किया, कि यह मृत्यु है क्या?

तो बेटा! उनमें महर्षि प्रवाहण, महर्षि दालभ्य, महर्षि शिलक, महर्षि रोहणीकेतु, देवऋषि नारद, चाक्राणी गार्गी, महात्मा दिग्ध, महात्मा अर्द्धभाग और
भी नाना ऋषिवर, ब्रह्मचारी और ब्रह्मवेत्ता महर्षि पिप्पलाद विद्यमान थे। तो यह प्रसंग उनके समीप आया कि मृत्यु क्या है?

जब ऋषि मुनि एकत्रित हो गये, तो महर्षि जमदग्नि ने और पारेत्वर ऋषि ने एक प्रश्न किया और यह कहा हे ब्रह्मवेत्ताओं हमारे यहाँ एक नियमावली है, कि जब भी ऋषि मुनि एकत्रित होते हैं, उनका सम्मेलन होता है
और वह समकालीन विद्यमान हो करके अपने विचारों को व्यक्त करते हैं और नाना प्रकार की जो मनों में ग्रन्थियाँ लगी हुई होती हैं, उनका स्पष्टीकरण करना उनका कर्त्तव्य रहा है। तो हम यह चाहते हैं कि हमारा एक ही प्रश्न है, हम मृत्यु को नहीं चाहते, मृत्युंजय बनना
चाहते हैं। आप हमें मृत्यु से पार ले चलिए।

तो बेटा! देखो नाना ऋषियों में यह प्रसंग आया कि मृत्यु है क्या। तो बेटा! देखो इसमें महात्मा अर्द्धभागम
ने कहा, ऋषि मुनि इस प्रश्न का तुम समाधान करो।

तो कोई ब्रह्मवेत्ता का प्रथम उद्गीत गाने का प्रसंग नहीं आया, परन्तु देखो कोई भी उद्गीत गाने के लिए जब तत्पर नहीं हुआ, तो चाक्राणी गार्गी उपस्थित हुई और उसने कहा हे ब्रह्मवेत्ताओं यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं अपने वाक्(दर्शन) को प्रारम्भ करूँ?

तो महात्मा अर्द्धभाग ने कहा कि अवश्य कीजिए। तो उन्होंने कहा कि-  “मेरे विचार में अब तक यह आया है की  शरीर और आत्मा, दोनों के विच्छेद का नाम मृत्यु कहा
जाता है।”

अब मुनिवरो! देखो इसमें देवर्षि नारद मुनि बोले कि हे दिव्या यह वाक् तो तुम्हारा यथार्थ है, क्या शरीर और आत्मा का,दोनों का विच्छेद होना, परन्तु उसको मृत्यु शब्द नहीं बनता। यहाँ मृत्यु का प्रसंग है, यहाँ शरीर और आत्मा के त्यागने का प्रसंग नहीं है। तो मुनिवरो! देखो वह (गार्गी) उतना उद्गीत गा करके, जितना उन्होंने अब तक जाना, उतना उच्चारण किया। क्योंकि ऋषियों का जो हृदय होता है, वह निष्पक्ष होता है और वह मानो देखो अपने में निरभिमानी होता है। गार्गी अपने में शान्त विद्यमान हो गईं और इतने में महर्षि पिप्पलाद मुनि महाराज उपस्थित हुए।

पिप्पलाद जी ने यह कहा, कि मेरे विचार में तो यह आता
है, कि मृत्यु अपने में कुछ नहीं होती। उन्होंने कहा यह मृत्यु क्या है? तो ऋषि कहता है-  “मृत्युमबाहा ज्ञानम् ब्रहे”।  संसार में यह जो मृत्यु है, अज्ञान का नाम मृत्यु है और अज्ञान को त्यागा मृत्यु से मानव पार हो जाता है। जहाँ वह ज्ञान के प्रकाश में वह रत होजाता है, तो वह मृत्युंजय बनकर मृत्यु को त्याग देता है और प्रकाश में चला जाता है, जीवन उसे प्राप्त हो जाता है।

महर्षि पिप्पलाद मुनि ने यह कहा, की संसार में मेरे विचार में, मृत्यु कोई वस्तु नहीं होती। देवर्षि नारद मुनि ने और महात्मा अर्द्धभाग ने इसका समर्थन किया, उन्होंने कहा- ‘यही यथार्थ है’।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार ।


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गार्हपत्य अग्नि और भगवान् कृष्ण का बाल्यकाल| story of Shri Krishna


सबसे प्रथम अग्नि सबसे प्रथम अग्नि गार्हपत्य नाम की अग्नि है। उस गार्हपत्य नाम की अग्नि में कौन तपता है, ब्रह्मचारी तपता है। जब प्रातः कालीन वह अपने में मनन  करने लगता है, प्रातःकालीन गृह को त्याग देता है।


भगवान् कृष्ण का जीवन।


एक समय प्रातःकालीन संदीपन ऋषि के आश्रम में बेटा ! नैतिकता के लिए जब ऋषि ने सब ब्रह्मचारी को उपस्थित किया तो श्रीकृष्ण जो वहाँ विद्यार्थी थे उन्होंने यह प्रश्न किया कि- हे महाराज, हे आचार्यजन, हे पूज्यपाद आप नित्य प्रति नैतिक शिक्षा में हमें ले जाते हैं। हम सदैव यह जानना चाहते रहते हैं हे प्रभु! प्राचीदिग किसे कहते हैं?


उन्होंने (महर्षि संदीपन ने ) कहा प्राचीदिग कहते हैं कि परमात्मा का जो स्वरूप है, वह प्रकाश में रहता है। जैसे दो पक्ष हैं एक माह में एक उत्तरायण है तो एक दक्षिणायन कहलाता है। मानो उत्तरायण में प्रकाश है और दक्षिणायन में देखो अन्धकार माना गया है। तो इसी प्रकार दोनों की सत्ता में रत रहने वाले का नामकरण ही अपने में अवृत कहलाता है। तो इसके ऊपर तुम्हारा विचार होना चाहिए।


भगवान् कृष्ण बोले हे प्रभु! चलो यह भी वाक् मैंने जान लिया है। परन्तु मैं ये जानना चाहता हूँ, कि यह प्राचीदिग क्या है?


उन्होंने कहा यह प्राचीदिग मानो देखो अग्नि की दिशा है, और अग्नि काष्ठों में नहीं मानो जो द्यु में प्रकाश देती है और द्यु से मानव के मन मस्तिष्क में रत होती है और वही अग्नि प्रकाश में रत् हो करके दिशाओं को जानने वाला  बनता है। वही दिशाओं को जैसे प्राचीदिग है, वह एक दिशा भी है, अग्नि भी है, वह अग्रणीय बना करके मानव को प्रकाश देती है जिससे मानव को एक मार्ग
प्राप्त होता है। उन्होंने कहा कि इसका नाम ही प्राचीदिग
कहा जाता है।


जब पुनः आचार्य से ब्रह्मचारी ने कहा कि प्रभु यह प्राचीदिग क्या है?


उन्होंने कहा प्राचीदिग ज्ञान का कुंज कहलाता है। ब्रह्मचारी जब प्रातःकालीन अध्ययन करता है वह पूर्व मुख हो करके ही, पूर्व मुख बन करके जब वह अध्ययन करता है तो उसकी स्मरण शक्ति में जागरूकता आ जाती है और स्मरण शक्ति बलवती होती है। इसलिए प्राचीदिग को, दिशा को ले करके जब वह अध्ययन करता है और दिशा का देखो अपने में समन्वय करता रहता है। तो वह ज्ञान के कुंज में प्रवेश हो जाता है। तो इसीलिए उसका
नाम प्राचीदिग कहा जाता है।  

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार ।


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श्रावणी पर्व का महत्त्व और दर्शन | Significance of Shravani Parv and Its message


यह दिवस वह है जहाँ वेद का प्रारम्भ हुआ था, जहाँ वेद की शिक्षा का प्रारम्भ हुआ यह श्रावणी पर्व कहलाता है।

चार वर्णों, चार पुरुषार्थों में विभक्त प्राचीन वैदिक व्यवस्था में भारतवर्ष में चार ही प्रमुख राष्ट्रीय पर्व हुआ करते थे, जिनमें प्रथम वर्ण ब्राह्मण द्वारा संयोजित श्रावणी रक्षाबंधन पर्व; जो राष्ट्र कीआध्यात्मिक शक्ति को पूंजीभूत करने का पर्व था। दूसरा विजया दशमी जो क्षत्रिय वर्ण द्वारा संयोजित राष्ट्र की सैन्य शक्ति को सुसज्जित करने का पर्व। तीसरा महालक्ष्मी पूजा दीपावली पर्व वैश्य वर्ण द्वारा राष्ट्र की अर्थशक्ति को व्यवस्थित करने का पर्व और चौथा होली शूद्रवर्ण के संयोजन में समग्र राष्ट्र की शक्ति को पूंजीभूत करने का समन्वयात्मक पर्व के रूप में प्रचलित था।

चारों पर्व, चारों वर्णों की आध्यात्मिक शक्ति, सैन्य शक्ति, अर्थशक्ति एवं पुरुषार्थ प्रधान शक्तियों को राष्ट्र को सुदृढ़ करने के लिए समन्वयात्मक प्रयास ही इन पर्वों के प्रमुख उद्देश्य थे। इसी कारण अनेक बार विदेशी आक्रांताओं द्वारा देश को छिन्न-भिन्न करने के क्रूर प्रयासों के बाद भी हम आज विश्व के समक्ष अपनी अस्मिता को सुरक्षित रख सके हैं और भारतवर्ष के नवसृजन में सतत अग्रसर हैं।   श्रावणी पर्व पर किए जाने वाले रक्षा विधान में वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों से अभिमंत्रित किया जाने वाला कलावा केवल तीन धागों का समूह ही नहीं है अपितु इसमें आत्मरक्षा, धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा के तीनों सूत्र संकल्प बद्ध होते हैं।   

प्राचीन मान्यताओं से इस पर्व को मानने वाले श्रद्धालु इस दिन नदियों के जल में खड़े होकर विराट भारत की महान परंपराओं का स्मरण करते हुए संकल्प करते हैं जिसे हेमाद्रि संकल्प अर्थात्‌ हिमालय जैसा महान संकल्प का नाम दिया हुआ है।  

जैसे परमपिता परमात्मा देखो मेघों के द्वारा, वायु द्वारा  प्राण रूपी वज्र से नाना प्रकार के खनिज पदार्थ और खाद्यों की रक्षा करता है इसी प्रकार यह पर्व है कि बुद्धिमान अपने पुरोहित की भी रक्षा करता रहे, और पुरोहित यजमान की रक्षा करता रहे, ज्ञान देता रहे जिससे समाज में कुरीति न आ जाएं और राष्ट्र को भी चाहिए कि वह अपने गृह में याग करते रहे।  

अश्वमेघ याग भी प्रायः देखो इसी पर्व पर प्रारम्भ हुआ करते हैं।

श्रावणी पर्व पर प्रायः पंडित जन, वेद के मर्म को जानने वाले पण्डित, सर्वत्र राजाओं के यहाँ जा करके याग की घोषणा करते।

कहीं अश्वमेघ-याग, कहीं मानो देखो वृष्टियाग का चलन होता रहा है क्योंकि याग ही यह रक्षार्थी बना रहता है।

राजा के राष्ट्र में प्रदूषण नहीं होना चाहिए यदि समाज में प्रदूषण आ गया है और राजा के राष्ट्र में कर्तव्य  की भी हीनता आ गई है तो एक मानव, मानव के रक्त का पिपासी बन जाता है और राजा के राष्ट्र में कर्तव्यवाद  की हीनता हो जाती है। इसलिए राजा को चाहिए क्या समय-समय पर वह अश्वमेघ-याग करता रहे और वह प्रजा को नाना प्रकार की ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देता रहे।

यज्ञोपवीत का दर्शन

पुरोहित के द्वारा राजा जब अपने राष्ट्र में यह घोषणा करता है कि हे प्रजाओं, हे ब्राह्मणजनों आओ इस वेदमन्त्र को विचारो। वेदमन्त्र कहता है कि जहाँ यह सूत्रों में सूत्रित किया जाता है वहाँ यह तीन बन्धनों में देखो वह यज्ञोपवीत में बद्ध कर दिया गया है और यज्ञोपवीत तीन प्रकार के ऋणों से मानव को संकेत करता रहता है।

देखो मातृ-ऋण है, ऋषि-ऋण है, और देव-ऋण कहलाता है। मानव देवताओं के लिए याग करता है देवता मानो अग्नि को मुख बना करके और देवा देवानाम मुखारम ब्रह्मे व्रतम अग्नि और वह देवताओं का जो मुख है वो अग्नि उसमें हुत करता है तो इससे देवता प्रसन्न होते हैं। जड़ और चैतन्य दोनों प्रसन्न होते हैं और

द्वितीय पितृ-ऋण है तो पितृ हमारे लिए जो क्रियाकलाप करते हैं और पितरों का जो शुद्धिकरण किया हुआ पितरों का जो शुद्धिकरण किया हुआ संसार है उसको अग्रणीय बनाना यह हमारा कर्तव्य है संसार है।

ऋषि-ऋण: आत्मा से परमात्मा तक और परमात्मा को आत्मा में और आत्मा को मनस्तत्त्व प्राणत्व का पुट लगा करके यह पंचभूतों को जानना यह ऋषि-ऋण कहलाता है। ऋषि-ऋण कहलाता है।

श्रावणी का वो जो पर्व है जिस पर्व पर देखो महापिता ब्रह्मा के पुत्र अथर्वा ने जब वेद के मन्त्रों का उद्गीत गाया था, यह पुत्र अथर्वा ने जब वेद मन्त्रों का उद्गीत गाया था यह आज का वही दिवस है।  

पूर्णिमा के द्वारा और चन्द्रमा अपनी सम्पूर्ण कलाओं से युक्त हो करके और वह गान गाता है, वह अमृत देता है। इसी प्रकार देखो वेद को जानने वाला वैदिक ज्ञान में प्रवेश करता है। राजा और प्रजा मिल करके
देखो अपने जीवन में एक अमृत को प्रदान करते रहते हैं। यह आज का वही दिवस है ।

यह पूर्णिमा का दिवस है,जब चन्द्रमा अपनी सोलह  कलाओं से युक्त हो करके रात्रि को,अपने अन्धकार को अपने गर्भ में धारण करके देखो वह प्रकाश का
पुंज बन जाता है और वह अमृत देता रहता है। वनस्पतियाँ उसे अपने में सहायतार्थ जीवन को पान करती रहती हैं वह कर्तव्यवाद कहा जाता है।

श्रावणी कहते हैं जहाँ यह पृथ्वी अपने गर्भ से परिपक्व होती है और परिपक्व होते ये अपने गर्भ में नाना वनस्पतियों को अपने में सजातीय बना लेती है और
सजातीय बना करके मेघ मण्डलों से पुकार होती है वह वृष्टि प्रारम्भ होती है।

इसीलिए श्रावणी पर्व पर सब ऋषि मुनिऔर गृह में राजा महाराजा सब याग में अपने को परणित करते रहे हैं। निष्कर्ष  केवल यह कि मानव को अपने कर्तव्य में निहित होना चाहिए, द्रव्य का सदुपयोग होना चाहिए। हे यजमान तेरे जीवन का सौभाग्य अखण्ड बना रहे, जीवन की प्रतिभा महान बनी रहे और द्रव्य का सदुपयोग होता रहे ऐसा मेरा सदैव विचार रहता है।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार ।

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मानवता, सर्वधर्म और मानव धर्म का वैदिक दर्शन | humanity in Vedas

वेद का आचार्य कह रहा है कि ‘‘ममं वृतं देवाः मम वाचां दिव्यं देवो हृरणयम् गच्छाः।’’ वेद का ऋषि यह कहता है कि हे मानव ! तू अपनी मानवता को जानने का अवश्य प्रयास कर।

प्रत्येक मानव की एक आकांक्षा बनी रहती है कि मेरी मानवता बहुत ऊध्र्व गति में जाने वाली हो। प्रत्येक
मानव अपनी सम्पदा को ऊँचा बनाना चाहता है। राष्ट्रीयता में क्या,मानवता में क्या, सामाजिक विचारधारा को एक महान् क्षेत्र में ले जाना चाहता है।

वेद का ऋषि भी यही कहता है कि प्रत्येक मानव को अपनी मानवता पर विचार विनिमय करना चाहिए। मानव कौन है,जो मननशील कहलाता है।

जो सँसार में मननशील प्राणी नहीं होता, मनन नहीं कर पाता, वह मानव नहीं कहलाता।

मानव धर्म

हे मानव ! तेरा भी धर्म वही है जो तू अपने मन में धारण करता है।

मेरे पुत्रो ! जिस विचारधारा में विज्ञान नहीं होता, मननशीलता नहीं होती, नम्रता नहीं होती, जिस वाणी में सँयम नहीं होता वह मानव धर्म से दूर रहता है। तो मानव को अपने धर्म को विचारना चाहिए।

ऋषि मुनि मानव धर्म के ऊपर विचार विनिमय करते थे। मानव किसे कहते हैं?
मैं तुम्हें मानवता पर महान् ऋषि मुनियों की चर्चा प्रकट करने जाऊँगा। मुझे वह काल स्मरण आता रहता
है जिस काल में महाराजा अश्वपति राष्ट्र का निर्माण करने लगे।राष्ट्र की पद्धति को निर्धारण करने लगे। भगवान् मनु के विचारों को ले करके तो महाराजा अश्वपति ने नाना ऋषि मुनियों को निमन्त्रण
दिया।

सर्व ऋषि उस सभा में विराजमान हुए। जिसमें महर्षि शौनक मुनि, महाराजा के राज पुरोहित कहलाते थे। और भी नाना ऋषियों का एक सम्मेलन हुआ। विचार-धारा प्रारम्भ हुई। राजा ने यह कहा कि हे मुनियों ! हे तपस्वियो ! मैं अपने राष्ट्र को ऐसा बनाना चाहता हूँ जिससे मेरे राष्ट्र में मानवता आ जाए और मानव उसे कहते हैं जो सँसार में एक दूसरे का ऋणी (देव ऋण, पितृ ऋण और ऋषि ऋण) न हो।

मैं अपने राष्ट्र में यह चाहता हूँ कि मेरे राष्ट्र में एक दूसरे का कोई भी मानव ऋणी नहीं रहना चाहिए।
सर्वधर्म किसे कहते हैं?

सबका धर्म मानो एक ही धर्म होता है और वह धर्म क्या है? वह मानवता है। धर्म  सबका एक है। फिर सर्व धर्म की विचारधारा यह कैसे उत्पन्न हुई? इसके गर्भ में अभिमान होता है। हे मानव ! जब तक तू इस अभिमान को शान्त नहीं करता, तू वेद के प्रकाश को प्राप्त नहीं कर सकता। वेद का ऋषि यह कहता है कि वेद को
जानने वाले का हृदय तो सूर्य के सृदश है। उसके पटल पर जो ज्ञान है वह ईश्वर का ज्ञान है। ईश्वर सर्वत्र एक-एक कण में व्याप्त रहने वाला है। इस प्रकार की विचारधारा मानवीय मस्तिष्कों में होनी चाहिए।

हमारा धर्म क्या है? धर्म केवल ईश्वरीय धर्म है; ईश्वरत्व  को धारण करना है।

हम सँसार में दुर्गन्धि करने के लिए नहीं आए, हम सुगन्धि देने के लिए आए हैं।

दुर्गन्धि क्या है?  सुगन्धि क्या है?

सुगन्धि वह कहलाती है जिसका हृदय नम्र होता है। सुगन्धि वह कहलाती है जिसके द्वारा ‘अहिंसा परमोधर्मः’, होता है, सुगन्धि वह कहलाती है जिसके अन्तःकरण के विचारों को श्रवण करके  सर्पराज और मृगराज और सिंहराज, चरणों में ओत-प्रोत हो जाते हैं। वह मानवीय सुगन्धि कहलाती है।

दुर्गन्धि वह कहलाती है जिसके अन्तःकरण में द्वितीय(परायेपन का) भाव होता है। दुरिता होती है, कालिमा होतीहै। वह केवल दूसरों को अपने प्रभाव में लाना चाहता है। मेरे पुत्रो ! वेद का ऋषि कहता है कि ऐसे अभिमानी प्राणी को सँसार में नष्ट कर देना चाहिए। यह वेद का ऋषि कहता है।

धर्म क्या है?

धर्म वह है जो स्वाभाविक आभा है, सुगन्धि है उसका
नाम धर्म है। नाम धर्म है। जो देवताओं की ध्वनि उसी का है उसी नाम धर्म है। देवताओं की ध्वनि क्या है? अग्नि की ध्वनि तेज,वायु की ध्वनि गति करना है, जल की जो ध्वनि है वह अमृत है, अन्तरिक्ष की जो गति है वह शब्द है, पृथ्वी से सुगन्धि आती है, दुर्गन्ध आती है, दुर्गन्ध को त्यागो सुगन्ध को लेना स्वीकार करो। तो यह जो पँच भूतों में स्वाभाविकता है अरे ! इसी को धारण करने का नाम धर्म कहलाता है।

धर्म क्या वस्तु है?

मानो अन्तरिक्ष से शब्दों का ज्ञान हो जाता है, वायु से गति करने का ज्ञान होता है। गति हम कैसे करें? अग्नि से हम तेज को लाना चाहते हैं, जल से हम अपनी रसना में रस को लाना चाहते हैं और पृथ्वी से हम क्या चाहते हैं कि पृथ्वी नाना प्रकार की यातना सह करके भी तुम्हें सुगन्धि ही देती है। नाना प्रकार की कठोरता को भी अपने में धारण करके तुम्हें खाद्य और खनिज पदार्थ प्रदान करती है। तो हे मानव तेरा धर्म क्या है? तेरा धर्म है कि इन स्वाभाविक तत्वों को अपनाना ही तेरा धर्म कहलाया गया है।अरे ! वह धर्म सर्वत्र वायु की भाँति ओत-प्रोत है, एक ही धर्म है सँसार में, मानवता।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार

चरित्र निर्माण की कार्यशाला न होने पर हुआ रावण का विनाश | Ravan's Research work

एक बार महर्षि कुक्कट लंका पधारे। रावण ने यथायोग्य स्वागत वंदन कर उन्हें लंका का भ्रमण करवाया। उसने ऋषि को नाना भवनों का निरीक्षण कराया। उन्होंने कहा प्रभु यह कुबेर भवन है,यह जो भवन आपको मैं दिखा रहा हूँ इसका निर्माण महाराजा शिव ने किया था। यह स्वर्ण का भवन है।

उसके रावण, महर्षि को पश्चात् विज्ञान भवन में ले गये।  जहाँ पृथ्वी के ऊपर अनुसन्धान हो रहा था। रावण ने सगर्व कहा- प्रभु यह मेरे यहाँ का विज्ञान है,विज्ञानशालाएँ हैं-पृथ्वी विज्ञानशाला यहाँ पृथ्वी के ऊपर अनुसन्धान हो रहा है। भगवन् देखो यह नाना वैज्ञानिक पृथ्वीयों के ऊपर अनुसन्धान कर रहे हैं-पृथ्वी
में कितना परमाणु कितनी दूरी पर, कौन-सा खनिज कितनी दूरी पर है। कौन-सा खाद्य कैसे उत्पन्न होता है और कैसे यह पोषक हो सकता है। तो इसके ऊपर विचार-विनिमय कर रहे हैं।

इसके बाद रावण, महर्षि कुक्कट को दूसरी प्रयोगशाला में ले गया। उन्होंने कहा यह द्वितीय विज्ञानशाला है जहाँ आपः अर्थात जल-तत्व के ऊपर अनुसन्धान हो रहा है या आपाम् भूतम् ब्रह्मा यह जल ही तो जीवन है। जल ही प्राणों का देने वाला है इसके ऊपर वैज्ञानिक अपने में अनुसन्धान कर रहे हैं।

ऋषि ने कहा धन्य है राजन, तुम्हारा राष्ट्र बड़ा उन्नत है। उन्होंने कहा प्रभु यह मेरे यहाँ सूर्य अनुसन्धानशाला है। यहाँ सूर्य के ऊपर अनुसन्धान और सूर्य की ऊर्जा के साथ में यन्त्र भ्रमण कर रहे हैं। एक यन्त्र का यहाँ निर्माण हुआ है जो सूर्य की किरणों से वो गमन करता रहता।
है उसकी ऊर्जा से यह मानो सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। कोई यन्त्र पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा है, कोई ध्रुव की परिक्रमा कर रहा है। यह नाना प्रकार के वैज्ञानिक यन्त्रों का निर्माण कर करके उनका वायु कफ दे करके भ्रमण करा रही है।रावण ने आगे कहा- प्रभु यह चन्द्रशाला है, यहाँ चन्द्रमा के ऊपर अनुसन्धान होता रहता है। यह
चन्द्रमा कितना सोम लेता है समुद्रों से और सोम की कैसे वृष्टि करता है इसके ऊपर विचार-विनिमय करते रहते हैं। और चन्द्रमा में गति कैसे होती है।

नरायन्तक का विज्ञान
उसके बाद रावण, महर्षि कुक्कुट को अपने पुत्र नरायन्तक के द्वार पर ले गया और बोला, यह मेरापुत्र है नरायन्तक, यह यन्त्रों में गमन करते रहते हैं।

महर्षि ने कहा क्या तुम चन्द्र यात्री हो? नरायन्तक ने  कहा
महाराज मैं वहाँ भ्रमण कर आता हूँ। उन्होंने कहा कितनी गति है तुम्हारी जाने की? उन्होंने कहा कि मैं एक रात्रि और एक दिवस मेरे लिए पर्याप्त हैं, मैं चन्द्रमा में प्रवेश कर जाता हूँ। मैं, चन्द्रमा में मेरा गमन हो जाता है वहाँ के वैज्ञानिकों से मैं वार्ता प्रगट करके चला आता हूँ।

नरायन्तक ने आगे कहा मेरे जो आचार्य हैं वह महर्षि भारद्वाज रहे हैं और भारद्वाज की विज्ञानशाला में मैंने विज्ञान की शिक्षा को प्राप्त किया है। मैंने ऐसे-ऐसे यन्त्रों का निर्माण किया-एक यन्त्र में विद्यमान होता हुआ यहाँ से जो यन्त्र उड़ाने उड़ता है तो यहाँ से उड़ान उड़ता हूँ तो सबसे प्रथम चन्द्रमा में।

चन्द्रमा से उड़ान उड़ी तो बुध में और बुध से उड़ान उड़ी तो शुक्र में और शुक्र से उड़ान उड़ी तो मानो देखो मंगल में। और मंगल से उड़ान उड़ी तो मानो देखो मृचिका मण्डल में, मृचिका मण्डल से उड़ान उड़ी तो मेृतकेतु मण्डल में, मृेतकेतु मण्डल से उड़ान उड़ी तो अरून्धति में, अरून्धति मण्डल से उड़ान उड़ी तो वशिष्ठ मण्डल में और वशिष्ठ मण्डल से उड़ान उड़ी तो मैं मानो देखो स्वाति नक्षत्र में
चला जाता हूँ। और स्वाति नक्षत्र से उड़ान उड़ता हुआ मूल नक्षत्र में चला जाता हूँ और मूल नक्षत्र से उड़ान हुआ मैं मौन अवृतिओं मण्डलों में प्रवेश कर जाता हूँ। तो उन्होंने कहा, नरायन्तक ने, भगवन मैं बहत्तर लोकों का भ्रमण करके मेरा यान मेरी विज्ञानशाला में पुनः
प्रवेश कर जाता हूँ।  

महर्षि बोले-  धन्य है।

तब राजा रावण ने कहा प्रभु यह मेरे यहाँ विज्ञानशालाएँ हैं। नाना प्रकार के अस्त्रों-शस्त्रों का निर्माण होता रहता है। यहाँ आग्नेय अस्त्र और देखो ब्रह्मास्त्रों का प्रायः निर्माण होता रहता है।

आयुर्वेद विज्ञान

वहाँ से भ्रमण करते हुए वह चिकित्सालय में पहुँचे जहाँ महात्मा भुंजु के दोनों पुत्र अश्विनी कुमार इसके ऊपर अन्वेषण करते थे, सुशेण वैद्य भी देखो उनके मध्य में विद्यमान थे। उन्होंने चर्चाएँ प्रगट कीं कि तुम्हारी इस आयुर्वेद में कितनी गति है? उन्होंने कहा प्रभु हम मानव के मस्तिष्क को, कण्ठ से ऊपर वाले भाग को भी हम दूर कर देते हैं उसे पुनः गति दे देते हैं और मानव के हृदय को, हृदय को निकाल करके और शरीर से पृथक करके औषधियों में दोनों को संरक्षित कर देते हैं और छः माह के पश्चात् पुनः उसमें गति प्रदान कर देते हैं। इस प्रकार का हमारा यह चिकित्सालय हैं।

चिकित्सालाओं में और भी नाना प्रकार का अन्वेषण होता रहता है। कहीं इस प्रकार की बुटियाँ हैं जिनको पान करके मानव देखो भिन्न-भिन्न प्राणियों की भाषा को जानने लगते हैं। ऋषि बड़े प्रसन्न हुए।

मार्गशालाएँ
भ्रमण करते हुए रावण महर्षि को मार्गशालाओं के विभाग की तरफ ले गया मार्गशालाओं के जो विशेषज्ञ थे, जहाँ मार्गों के निर्माण हो रहे थे, मार्गो में मानो देखो उर्ध्वगामी मार्ग थे। रावण ने कहा प्रभु यह मार्गशालाएं हैं यहाँ मार्ग के विशेषज्ञ हैं और यहाँ निर्माण होता रहता है।

महर्षि कुक्कुट मुनि का उद्बोधन
सर्वत्र लँका का भ्रमण कराने के पश्चात् राजा रावण, ऋषि के चरणों में प्रणाम करके बोले-  हे भगवन् मैं यह जानना चाहता हूँ आपको मेरी लँका कैसी प्रतीत हुई?

उन्होंने कहा रावण तुम्हारा राष्ट्र तो बड़ा पवित्र है, तुम्हारा तो विकासवादी राष्ट्र है।

राजन् तुम्हें धन्य है परन्तु देखो मुझे सर्वत्र लँका को भ्रमण करने के पश्चात् मुझे ऐसा प्रतीत हुआ है जैसे तुम्हारी लँका में जल्दी ही आग लगने वाली है।

जब महर्षि ने यह कहा तो रावण ने नत-मस्तिष्क हो करके कहा प्रभु ! आपने ऐसा क्यों कहा? उन्होंने कहा मैंने इसलिए कहा है तुमने मुझे ऊँचे-ऊँचे भवनों का दर्शन करायाहै, स्वर्ण के भवनों का दर्शन कराया है। तुमने मानो देखो जल अनुसन्धानशाला,पृथ्वी अनुसन्धानशालाएं, सूर्य अनुसन्धानशाला, चन्द्र अनुसन्धानशालाएं, लोक लोकान्तरों में जाने वाले यात्री यन्त्र विद्यमान हैं परन्तु (और) नाना प्रकार की चिकित्सालाएं हैं और मार्गशालाएं हैं।

हे रावण तुमने मुझे सब कुछ दिखाया कराया परन्तु तुमने मुझे कोई चरित्रशाला का दर्शन नहीं कराया है। और जिस राजा के राष्ट्र में चरित्र नहीं होता उस राजा का राष्ट्र आज नहीं तो कल अवश्य देखो अग्नि का काण्ड बन करके रहेगा।

राजा रावण नत-मस्तिष्क हो गये और उन्होंने कहा प्रभु वास्तव में मैं विज्ञान में लगा रहा हूँ, विद्या में लगा रहा हूँ, परन्तु देखो चरित्र का वास्तव में अभाव है।

उन्होंने कहा रावण तुम्हें प्रतीत है जिस समय तुम्हारा राज्याभिषेक हुआ था उस समय देखो महात्मा पुलस्त्य ऋषि महाराज ने मुझे सभापति बनाया और सभापति बना करके यह कहा कि तुम इसका राज्याभिषेक करो। मैंने तुम्हारे मस्तिष्क का अध्ययन किया और मस्तिष्क को अध्ययन करके ये कहा पुलस्त्य से ये राष्ट्र को चरित्र नहीं दे सकेगा, यह राष्ट्र को विज्ञान दे सकेगा, भवन दे
सकेगा, विज्ञान में पहुँचा देगा, लोक लोकान्तरों का यात्री बना सकता है परन्तु ये चरित्र नहीं दे सकता इसलिए मैं इसका राज्याभिषेक नहीं करूँगा। तो तुम्हें प्रतीत है कि महात्मा भुन्जु  ने तुम्हारा राज्याभिषेक किया था।

इतना कहकर महर्षि कुक्कुट मुनि महाराज ने कहा  अब राजन् मुझे आज्ञा दो, मैं अपने आश्रम में गमन करूँगा। कहकर महर्षि अपने आश्रम लोट गए।

हमारे यहाँ वैदिक साहित्य में राष्ट्र का अपना बड़ा महत्त्व माना गया है परन्तु राष्ट्र बिना चरित्र के ऊँचा नहीं बनता। गृह बिना चरित्र के ऊँचे नहीं बनते। विद्यालयों में जब चरित्र होता है, मानवीयता होती है तो विद्यालय
ऊँचे बनते हैं।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार