दैवी पूजा और दैवीय यज्ञों का दर्शन | Worshiping Goddes in True form

देवी की पूजा का यहाँ नाना प्रकार के क्षुद्र दर्शनों ने बहुत ही अपमान किया, संकीर्ण दर्शन अधिक संख्या में हो गए, राष्ट्र में भी इसके विनाश का मूल कारण बना। इसी प्रकार यह जो अशुद्ध परम्परा थी ऊब करके दूसरे सम्प्रदायवादी बने। सत्सनातन धर्म की मानवता, वैदिक-परंपरा को मानव ने दूर कर दिया। क्योंकि संसार में ज्ञान न रहा। ज्ञान का अधूरापन जाने के कारण संसार में रुढ़ि बनती है और वह रुढ़ि विनाश का कारण बनती हैं। वह रुढ़ि घातक बन करके इसके जीवन को नष्ट करने वाली बन जाती हैं।

जब वह उनकी सम्प्रदाय की इच्छाएँ पूर्ण नहीं होती तो वह रुढ़ि जहाँ से उत्पन्न हुई तो उसी को निगलने वाली बन जाती है। आज उससे राष्ट्र और समाज दोनों का विनाश होता जाता है। इसीलिए मैं अधिक विवेचना प्रकट नहीं करूँगा। मैं तो केवल संक्षिप्त अपना परिचय देना
चाहता हूँ। विचार देने आया हूँ कि आज हम देवी की पूजा करने वाले बनें। परन्तु जो आजकल हो रहा है, इसका नाम देवी पूजा नहीं है। ‘‘देवी पूजा का अभिप्राय है, अपने आचरण को पवित्र बनाया जाए और यज्ञ किया जाए।’’

यज्ञ प्रकृति देवी की पूजा है। भगवान् राम के यहाँ यज्ञ की यज्ञ में प्रकृति देवी की पूजा होती थी।  भगवान् राम के यहाँ यज्ञ की अग्नि अखण्ड रूप से जलती थी।

प्राचीन प्रथा है कि सतयुग के काल से चैत्र-मास में प्रतिपदा से लेकर अष्टमी तक यज्ञ रहता था। यहाँ वेदों के नाना पठन-पाठन होते और यज्ञशाला में क्रम चलता, राष्ट्र का ध्वनिमय हो जाता था। वह समय
मुझे स्मरण है जब भगवान् राम लंका को विजय करके आए तो उन्होंने देवी-यज्ञ किया। यज्ञ क्या था, उनके यहाँ एक वर्ष में दो समय देवी की पूजा की जाती थी।

यह समय ऐसे हैं जिसमें पृथ्वी के गर्भ में बीज की स्थापना की जाती है। एक यज्ञ में कृषि के गर्भ से नाना प्रकार की वनस्पतियों का अन्न उत्पन्न हो करके गृह में आता है। तो उस समय प्रत्येक गृह में यज्ञ होने चाहिएं। जब प्रत्येक गृह में यज्ञ होते हैं तो वह प्रकृति माता
की पूजा है, देवी की पूजा है; वही तो हमारे यहाँ अखण्ड-ज्योति है।

भगवान् राम का जीवन मुझे स्मरण है। मेरे पूज्यपाद गुरुदेव कहा करते हैं कि उन्होंने जब से राष्ट्र स्थापित किया और मृत्यु तक; उनके गृह से यज्ञमयी ज्योति का विनाश नहीं हुआ,वह यज्ञ ज्योति, यज्ञ की अग्नि उनकी यज्ञशाला में सदैव प्रदीप्त रहती थी, यज्ञ होते रहते थे।

तो राष्ट्र और समाज उस काल में ऊँचा बना करता था। क्योंकि इनका सम्बन्ध राष्ट्र के और समाज के ऊपर बहुत ही गम्भीरता से अपना प्रभुत्व निर्धारित करता है। इसीलिए इन विचारों को मैं देने आया हूँ कि यज्ञ होने
चाहिए। जितने यज्ञ होंगे उतना राष्ट्र और वायु-मण्डल ऊँचा बन जाएगा।

यज्ञ,मांस और दैवी
परन्तु जहाँ यज्ञों में मांसों की स्थापना की जाती है वे यज्ञ नहीं। अरे ! यज्ञ तो दूसरों की रक्षा करने के लिए होते हैं। दूसरों को नष्ट करने नहीं आते सँसार में। इसीलिए देवी तो पालना करती है। देवी किसी का भक्षण नहीं करती सँसार में। हाँ देवी उस काल में भक्षण करती है जब उसके सतीत्व पर कोई आक्रमण करता है। उस समय देवी चण्डी बन जाती है। वह देवी रुद्र का रूप धारण कर लेती है। माँ काली बन करके वह उस मानव को नष्ट कर देती है। इसीलिए आज हम उस महामना देवी की याचना करने वाले बनें। वह देवी क्या है? वह माता है जिसके गर्भ से मानव का जन्म होता है। जिस गृह में माता का निरादर किया जाता है वह गृह आज नहीं तो कल नष्ट हो जाएगा, जिस राष्ट्र में इस प्रकार की निरादर भावना है वह राष्ट्र नष्ट हो जाते हैं।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार ।


( इस प्रकार के वैदिक संदेशो को प्राप्त करने के लिए https://vedokojane.blogspot.in पर हमसे जुड़े )