ऋषियों की सभा में मृत्यु के तत्वदर्शन पर चिंतन

एक समय बेटा! महर्षि व्रेतकेतु ने एक सभा का आयोजन किया। वह  महात्मा जमदग्नि के आश्रम में हुई। एक प्रसंग में ऋषि मुनियों ने एक प्रश्न किया, कि यह मृत्यु है क्या?

तो बेटा! उनमें महर्षि प्रवाहण, महर्षि दालभ्य, महर्षि शिलक, महर्षि रोहणीकेतु, देवऋषि नारद, चाक्राणी गार्गी, महात्मा दिग्ध, महात्मा अर्द्धभाग और
भी नाना ऋषिवर, ब्रह्मचारी और ब्रह्मवेत्ता महर्षि पिप्पलाद विद्यमान थे। तो यह प्रसंग उनके समीप आया कि मृत्यु क्या है?

जब ऋषि मुनि एकत्रित हो गये, तो महर्षि जमदग्नि ने और पारेत्वर ऋषि ने एक प्रश्न किया और यह कहा हे ब्रह्मवेत्ताओं हमारे यहाँ एक नियमावली है, कि जब भी ऋषि मुनि एकत्रित होते हैं, उनका सम्मेलन होता है
और वह समकालीन विद्यमान हो करके अपने विचारों को व्यक्त करते हैं और नाना प्रकार की जो मनों में ग्रन्थियाँ लगी हुई होती हैं, उनका स्पष्टीकरण करना उनका कर्त्तव्य रहा है। तो हम यह चाहते हैं कि हमारा एक ही प्रश्न है, हम मृत्यु को नहीं चाहते, मृत्युंजय बनना
चाहते हैं। आप हमें मृत्यु से पार ले चलिए।

तो बेटा! देखो नाना ऋषियों में यह प्रसंग आया कि मृत्यु है क्या। तो बेटा! देखो इसमें महात्मा अर्द्धभागम
ने कहा, ऋषि मुनि इस प्रश्न का तुम समाधान करो।

तो कोई ब्रह्मवेत्ता का प्रथम उद्गीत गाने का प्रसंग नहीं आया, परन्तु देखो कोई भी उद्गीत गाने के लिए जब तत्पर नहीं हुआ, तो चाक्राणी गार्गी उपस्थित हुई और उसने कहा हे ब्रह्मवेत्ताओं यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं अपने वाक्(दर्शन) को प्रारम्भ करूँ?

तो महात्मा अर्द्धभाग ने कहा कि अवश्य कीजिए। तो उन्होंने कहा कि-  “मेरे विचार में अब तक यह आया है की  शरीर और आत्मा, दोनों के विच्छेद का नाम मृत्यु कहा
जाता है।”

अब मुनिवरो! देखो इसमें देवर्षि नारद मुनि बोले कि हे दिव्या यह वाक् तो तुम्हारा यथार्थ है, क्या शरीर और आत्मा का,दोनों का विच्छेद होना, परन्तु उसको मृत्यु शब्द नहीं बनता। यहाँ मृत्यु का प्रसंग है, यहाँ शरीर और आत्मा के त्यागने का प्रसंग नहीं है। तो मुनिवरो! देखो वह (गार्गी) उतना उद्गीत गा करके, जितना उन्होंने अब तक जाना, उतना उच्चारण किया। क्योंकि ऋषियों का जो हृदय होता है, वह निष्पक्ष होता है और वह मानो देखो अपने में निरभिमानी होता है। गार्गी अपने में शान्त विद्यमान हो गईं और इतने में महर्षि पिप्पलाद मुनि महाराज उपस्थित हुए।

पिप्पलाद जी ने यह कहा, कि मेरे विचार में तो यह आता
है, कि मृत्यु अपने में कुछ नहीं होती। उन्होंने कहा यह मृत्यु क्या है? तो ऋषि कहता है-  “मृत्युमबाहा ज्ञानम् ब्रहे”।  संसार में यह जो मृत्यु है, अज्ञान का नाम मृत्यु है और अज्ञान को त्यागा मृत्यु से मानव पार हो जाता है। जहाँ वह ज्ञान के प्रकाश में वह रत होजाता है, तो वह मृत्युंजय बनकर मृत्यु को त्याग देता है और प्रकाश में चला जाता है, जीवन उसे प्राप्त हो जाता है।

महर्षि पिप्पलाद मुनि ने यह कहा, की संसार में मेरे विचार में, मृत्यु कोई वस्तु नहीं होती। देवर्षि नारद मुनि ने और महात्मा अर्द्धभाग ने इसका समर्थन किया, उन्होंने कहा- ‘यही यथार्थ है’।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार ।


( इस प्रकार के वैदिक संदेशो को प्राप्त करने के लिए https://vedokojane.blogspot.in पर हमसे जुड़े )