श्रावणी पर्व का महत्त्व और दर्शन | Significance of Shravani Parv and Its message


यह दिवस वह है जहाँ वेद का प्रारम्भ हुआ था, जहाँ वेद की शिक्षा का प्रारम्भ हुआ यह श्रावणी पर्व कहलाता है।

चार वर्णों, चार पुरुषार्थों में विभक्त प्राचीन वैदिक व्यवस्था में भारतवर्ष में चार ही प्रमुख राष्ट्रीय पर्व हुआ करते थे, जिनमें प्रथम वर्ण ब्राह्मण द्वारा संयोजित श्रावणी रक्षाबंधन पर्व; जो राष्ट्र कीआध्यात्मिक शक्ति को पूंजीभूत करने का पर्व था। दूसरा विजया दशमी जो क्षत्रिय वर्ण द्वारा संयोजित राष्ट्र की सैन्य शक्ति को सुसज्जित करने का पर्व। तीसरा महालक्ष्मी पूजा दीपावली पर्व वैश्य वर्ण द्वारा राष्ट्र की अर्थशक्ति को व्यवस्थित करने का पर्व और चौथा होली शूद्रवर्ण के संयोजन में समग्र राष्ट्र की शक्ति को पूंजीभूत करने का समन्वयात्मक पर्व के रूप में प्रचलित था।

चारों पर्व, चारों वर्णों की आध्यात्मिक शक्ति, सैन्य शक्ति, अर्थशक्ति एवं पुरुषार्थ प्रधान शक्तियों को राष्ट्र को सुदृढ़ करने के लिए समन्वयात्मक प्रयास ही इन पर्वों के प्रमुख उद्देश्य थे। इसी कारण अनेक बार विदेशी आक्रांताओं द्वारा देश को छिन्न-भिन्न करने के क्रूर प्रयासों के बाद भी हम आज विश्व के समक्ष अपनी अस्मिता को सुरक्षित रख सके हैं और भारतवर्ष के नवसृजन में सतत अग्रसर हैं।   श्रावणी पर्व पर किए जाने वाले रक्षा विधान में वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों से अभिमंत्रित किया जाने वाला कलावा केवल तीन धागों का समूह ही नहीं है अपितु इसमें आत्मरक्षा, धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा के तीनों सूत्र संकल्प बद्ध होते हैं।   

प्राचीन मान्यताओं से इस पर्व को मानने वाले श्रद्धालु इस दिन नदियों के जल में खड़े होकर विराट भारत की महान परंपराओं का स्मरण करते हुए संकल्प करते हैं जिसे हेमाद्रि संकल्प अर्थात्‌ हिमालय जैसा महान संकल्प का नाम दिया हुआ है।  

जैसे परमपिता परमात्मा देखो मेघों के द्वारा, वायु द्वारा  प्राण रूपी वज्र से नाना प्रकार के खनिज पदार्थ और खाद्यों की रक्षा करता है इसी प्रकार यह पर्व है कि बुद्धिमान अपने पुरोहित की भी रक्षा करता रहे, और पुरोहित यजमान की रक्षा करता रहे, ज्ञान देता रहे जिससे समाज में कुरीति न आ जाएं और राष्ट्र को भी चाहिए कि वह अपने गृह में याग करते रहे।  

अश्वमेघ याग भी प्रायः देखो इसी पर्व पर प्रारम्भ हुआ करते हैं।

श्रावणी पर्व पर प्रायः पंडित जन, वेद के मर्म को जानने वाले पण्डित, सर्वत्र राजाओं के यहाँ जा करके याग की घोषणा करते।

कहीं अश्वमेघ-याग, कहीं मानो देखो वृष्टियाग का चलन होता रहा है क्योंकि याग ही यह रक्षार्थी बना रहता है।

राजा के राष्ट्र में प्रदूषण नहीं होना चाहिए यदि समाज में प्रदूषण आ गया है और राजा के राष्ट्र में कर्तव्य  की भी हीनता आ गई है तो एक मानव, मानव के रक्त का पिपासी बन जाता है और राजा के राष्ट्र में कर्तव्यवाद  की हीनता हो जाती है। इसलिए राजा को चाहिए क्या समय-समय पर वह अश्वमेघ-याग करता रहे और वह प्रजा को नाना प्रकार की ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देता रहे।

यज्ञोपवीत का दर्शन

पुरोहित के द्वारा राजा जब अपने राष्ट्र में यह घोषणा करता है कि हे प्रजाओं, हे ब्राह्मणजनों आओ इस वेदमन्त्र को विचारो। वेदमन्त्र कहता है कि जहाँ यह सूत्रों में सूत्रित किया जाता है वहाँ यह तीन बन्धनों में देखो वह यज्ञोपवीत में बद्ध कर दिया गया है और यज्ञोपवीत तीन प्रकार के ऋणों से मानव को संकेत करता रहता है।

देखो मातृ-ऋण है, ऋषि-ऋण है, और देव-ऋण कहलाता है। मानव देवताओं के लिए याग करता है देवता मानो अग्नि को मुख बना करके और देवा देवानाम मुखारम ब्रह्मे व्रतम अग्नि और वह देवताओं का जो मुख है वो अग्नि उसमें हुत करता है तो इससे देवता प्रसन्न होते हैं। जड़ और चैतन्य दोनों प्रसन्न होते हैं और

द्वितीय पितृ-ऋण है तो पितृ हमारे लिए जो क्रियाकलाप करते हैं और पितरों का जो शुद्धिकरण किया हुआ पितरों का जो शुद्धिकरण किया हुआ संसार है उसको अग्रणीय बनाना यह हमारा कर्तव्य है संसार है।

ऋषि-ऋण: आत्मा से परमात्मा तक और परमात्मा को आत्मा में और आत्मा को मनस्तत्त्व प्राणत्व का पुट लगा करके यह पंचभूतों को जानना यह ऋषि-ऋण कहलाता है। ऋषि-ऋण कहलाता है।

श्रावणी का वो जो पर्व है जिस पर्व पर देखो महापिता ब्रह्मा के पुत्र अथर्वा ने जब वेद के मन्त्रों का उद्गीत गाया था, यह पुत्र अथर्वा ने जब वेद मन्त्रों का उद्गीत गाया था यह आज का वही दिवस है।  

पूर्णिमा के द्वारा और चन्द्रमा अपनी सम्पूर्ण कलाओं से युक्त हो करके और वह गान गाता है, वह अमृत देता है। इसी प्रकार देखो वेद को जानने वाला वैदिक ज्ञान में प्रवेश करता है। राजा और प्रजा मिल करके
देखो अपने जीवन में एक अमृत को प्रदान करते रहते हैं। यह आज का वही दिवस है ।

यह पूर्णिमा का दिवस है,जब चन्द्रमा अपनी सोलह  कलाओं से युक्त हो करके रात्रि को,अपने अन्धकार को अपने गर्भ में धारण करके देखो वह प्रकाश का
पुंज बन जाता है और वह अमृत देता रहता है। वनस्पतियाँ उसे अपने में सहायतार्थ जीवन को पान करती रहती हैं वह कर्तव्यवाद कहा जाता है।

श्रावणी कहते हैं जहाँ यह पृथ्वी अपने गर्भ से परिपक्व होती है और परिपक्व होते ये अपने गर्भ में नाना वनस्पतियों को अपने में सजातीय बना लेती है और
सजातीय बना करके मेघ मण्डलों से पुकार होती है वह वृष्टि प्रारम्भ होती है।

इसीलिए श्रावणी पर्व पर सब ऋषि मुनिऔर गृह में राजा महाराजा सब याग में अपने को परणित करते रहे हैं। निष्कर्ष  केवल यह कि मानव को अपने कर्तव्य में निहित होना चाहिए, द्रव्य का सदुपयोग होना चाहिए। हे यजमान तेरे जीवन का सौभाग्य अखण्ड बना रहे, जीवन की प्रतिभा महान बनी रहे और द्रव्य का सदुपयोग होता रहे ऐसा मेरा सदैव विचार रहता है।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार ।

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