आधिदैविक यज्ञ का तत्वदर्शन | Philosophy of AdhiDavik Yagya

हमारे यहाँ नाना प्रकार के यज्ञों का प्रायः वर्णन आता रहता है। आज मैं दैवी यज्ञ के सम्बन्ध में संक्षिप्त परिचय देना चाहता हूँ। हमारे यहाँ परम्परा से ही दैवी यज्ञ होता रहा है। परन्तु यज्ञ का अभिप्रायः क्या है? उसकी दो प्रकार की रूपरेखा है एक भौतिक है, दूसरी आध्यात्मिक है। आज मैं भौतिक रूप का वर्णन किए देता हूँ।

बेटा ! भौतिक यज्ञ में यजमान विराजमान होता है, वह आधि दैवीक यज्ञ के लिए तत्पर होता है। मुनिवरो ! देखो, दैवी यज्ञ का अभिप्रायः है दैविक विचारधारा को और मानव पर जो दैविक आपत्ति आती है उसको शान्त बना देने के लिए वह यज्ञ किया जाता है। प्रकृति से जितना कष्ट होता है उसे आधि-दैविक कहते हैं।

प्रभु से याचना की जाती है कि प्रभु यह आपत्ति हमें नहीं
चाहिए। मानो हमारे जीवन में यह प्रकृति शान्त भाव से रमण करती रहे। यही ‘आवाभ्रवे’ यह जो प्रकृति है यह संसार का उपकार आप के द्वार पर होता रहे। ऐसा बेटा ! विचार है। हमारे यहाँ यह यज्ञ का अभिप्रायः है। यह जो आपत्तियाँ आती हैं दैविक अर्थात् आधिदैविक, आधिभौतिक, मानव पर आपत्तियाँ आती हैं ये नहीं आनी चाहिए। ऐसी कामना के साथ अनुष्ठान किया जाता है। मुनिवरो ! उस अनुष्ठान की बहुत ही ऊँची उड़ान रहती है।
परन्तु अभिप्राय यह कि इसको अनुष्ठान कहते हैं। अनुष्ठान की उड़ान कितनी विचित्र है? उस उड़ान के ऊपर मानव को विचार-विनिमय करना चाहिए।

मुझे स्मरण है माता अनुसुइयाअनुष्ठान पूर्वक यज्ञ करती रहती थीं। यज्ञ किसे कहते हैं? (दैवी-यज्ञ कैसा माना गया है?)
हमारे यहाँ 15 प्रकार के यज्ञ माने हैं। 84 प्रकार की
यज्ञशालाएँ होती थीं। इनमें लगभग 15 प्रकार की यज्ञशालाएं मुख्य मानी हैं। एक चतुष्कोण यज्ञशाला होती है। एक त्रिकोण होती है, पंचकोण होती है, सप्तकोण होती है।

परन्तु जो दैवी यज्ञ करने वाले होते हैं जो देवी के कर्मकाण्ड को जानते हैं वह सप्त जिह्ना वाली यज्ञशाला का निर्माण करते हैं।

क्योंकि अग्नि की सप्त जिह्नायें हैं, सप्त जिह्नाओं के  आधार पर सप्तम् प्रकार की कोणों वाली यज्ञशाला बनाई जाती है।

जिस प्रकार बेटा एक वैज्ञानिक जो परमाणुओं का मिलान करना जानता है। वह निर्माणवेत्ता निर्माण करने लगता है और उसी प्रकार का वह निर्माण करता है।

इसी प्रकार यज्ञशाला का निर्माण होता है।
चैत्र मास में प्रभु के उपासक दैवी-यज्ञ किया करते थे| जब सप्तकोण की निर्माणशाला बनाई जाती है यज्ञशाला निर्माणशाला को दोनों रूपों में परणित किया गया है। उसमें ‘अप्रतम्’ पश्चिम जो भाग है उसमें लगभग तीन जिह्ना आ जाती हैं। उनके आधार पर ही उस आसन पर यजमान विराजमान होता है। पत्नी सहित अनुष्ठान संकल्प करता है। अग्नि के समीप विराजमान हो करके
संकल्पवादी बनता है। यज्ञ का अभिप्राय है संकल्प। दैवी यज्ञ का अभिप्राय है सुगन्धि देना इस संसार को|

यज्ञ करने वाला,सबसे प्रथम ज्योति को जागरुक करता है। ज्योति को जागरुक करके उस प्रभु को जागरुक करता है। ज्योति को जागरुक करके उस प्रभु से याचना करते हुए वह प्रभु की गोद में जाने का प्रयास करता है।

तो बेटा ! अभिप्राय यह कि वह जो सप्तकोण की यज्ञशाला है उसमें जो सुगन्धि उत्पन्न होती है, उसमें जो तरंगें उत्पन्न होती हैं, वह इस पृथ्वी को प्राप्त हो जाती हैं। मानो पार्थिव जो तत्व हैं उन्हीं को वह प्राप्त हो जाती हैं। प्राप्त होने का अभिप्राय यह कि जो नाना प्रकार की वनस्पतियाँ इस पृथ्वी पर, वसुन्धरा के गर्भ में शुद्ध रूप से परिपक्व हो जाती हैं उसमें सुगन्धि प्रदान की जाती है।


अखण्ड-ज्योति

यज्ञशाला में ब्रह्मा को चुना जाता है। उद्गाता होता है। एक अध्वर्यु होता है, और होताजन होंते है , जिनको ऋत्विज कहते हैं।

बेटा ! जो यज्ञशाला में अग्नि प्रदीप्त हो रही है हमारे यहाँ ऋषि-मुनि, हमारे यहाँ ऋषि-मुनि,  द्वारा राष्ट्र गृहों में यह अग्नि वर्षों से प्रदीप्त होती रही है। इसका अभिप्राय यह किअखंड ज्योति जो अग्नि है यह कदापि यज्ञशाला से शान्त नही होना चाहिए।

जो यज्ञवेदी है, उस यज्ञवेदी का अभिप्राय यही है कि अखंड ज्योति है। अखंड अग्नि गौ धृत को लेकर के,सुगन्धि करता है, अशुद्ध परमाणुओं को नष्ट करता है। वातावरण उसी के द्वारा पवित्र होता है। आज हमें उस यज्ञ के ऊपर अनुसन्धान करना चाहिए।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार ।


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