मानवता, सर्वधर्म और मानव धर्म का वैदिक दर्शन | humanity in Vedas

वेद का आचार्य कह रहा है कि ‘‘ममं वृतं देवाः मम वाचां दिव्यं देवो हृरणयम् गच्छाः।’’ वेद का ऋषि यह कहता है कि हे मानव ! तू अपनी मानवता को जानने का अवश्य प्रयास कर।

प्रत्येक मानव की एक आकांक्षा बनी रहती है कि मेरी मानवता बहुत ऊध्र्व गति में जाने वाली हो। प्रत्येक
मानव अपनी सम्पदा को ऊँचा बनाना चाहता है। राष्ट्रीयता में क्या,मानवता में क्या, सामाजिक विचारधारा को एक महान् क्षेत्र में ले जाना चाहता है।

वेद का ऋषि भी यही कहता है कि प्रत्येक मानव को अपनी मानवता पर विचार विनिमय करना चाहिए। मानव कौन है,जो मननशील कहलाता है।

जो सँसार में मननशील प्राणी नहीं होता, मनन नहीं कर पाता, वह मानव नहीं कहलाता।

मानव धर्म

हे मानव ! तेरा भी धर्म वही है जो तू अपने मन में धारण करता है।

मेरे पुत्रो ! जिस विचारधारा में विज्ञान नहीं होता, मननशीलता नहीं होती, नम्रता नहीं होती, जिस वाणी में सँयम नहीं होता वह मानव धर्म से दूर रहता है। तो मानव को अपने धर्म को विचारना चाहिए।

ऋषि मुनि मानव धर्म के ऊपर विचार विनिमय करते थे। मानव किसे कहते हैं?
मैं तुम्हें मानवता पर महान् ऋषि मुनियों की चर्चा प्रकट करने जाऊँगा। मुझे वह काल स्मरण आता रहता
है जिस काल में महाराजा अश्वपति राष्ट्र का निर्माण करने लगे।राष्ट्र की पद्धति को निर्धारण करने लगे। भगवान् मनु के विचारों को ले करके तो महाराजा अश्वपति ने नाना ऋषि मुनियों को निमन्त्रण
दिया।

सर्व ऋषि उस सभा में विराजमान हुए। जिसमें महर्षि शौनक मुनि, महाराजा के राज पुरोहित कहलाते थे। और भी नाना ऋषियों का एक सम्मेलन हुआ। विचार-धारा प्रारम्भ हुई। राजा ने यह कहा कि हे मुनियों ! हे तपस्वियो ! मैं अपने राष्ट्र को ऐसा बनाना चाहता हूँ जिससे मेरे राष्ट्र में मानवता आ जाए और मानव उसे कहते हैं जो सँसार में एक दूसरे का ऋणी (देव ऋण, पितृ ऋण और ऋषि ऋण) न हो।

मैं अपने राष्ट्र में यह चाहता हूँ कि मेरे राष्ट्र में एक दूसरे का कोई भी मानव ऋणी नहीं रहना चाहिए।
सर्वधर्म किसे कहते हैं?

सबका धर्म मानो एक ही धर्म होता है और वह धर्म क्या है? वह मानवता है। धर्म  सबका एक है। फिर सर्व धर्म की विचारधारा यह कैसे उत्पन्न हुई? इसके गर्भ में अभिमान होता है। हे मानव ! जब तक तू इस अभिमान को शान्त नहीं करता, तू वेद के प्रकाश को प्राप्त नहीं कर सकता। वेद का ऋषि यह कहता है कि वेद को
जानने वाले का हृदय तो सूर्य के सृदश है। उसके पटल पर जो ज्ञान है वह ईश्वर का ज्ञान है। ईश्वर सर्वत्र एक-एक कण में व्याप्त रहने वाला है। इस प्रकार की विचारधारा मानवीय मस्तिष्कों में होनी चाहिए।

हमारा धर्म क्या है? धर्म केवल ईश्वरीय धर्म है; ईश्वरत्व  को धारण करना है।

हम सँसार में दुर्गन्धि करने के लिए नहीं आए, हम सुगन्धि देने के लिए आए हैं।

दुर्गन्धि क्या है?  सुगन्धि क्या है?

सुगन्धि वह कहलाती है जिसका हृदय नम्र होता है। सुगन्धि वह कहलाती है जिसके द्वारा ‘अहिंसा परमोधर्मः’, होता है, सुगन्धि वह कहलाती है जिसके अन्तःकरण के विचारों को श्रवण करके  सर्पराज और मृगराज और सिंहराज, चरणों में ओत-प्रोत हो जाते हैं। वह मानवीय सुगन्धि कहलाती है।

दुर्गन्धि वह कहलाती है जिसके अन्तःकरण में द्वितीय(परायेपन का) भाव होता है। दुरिता होती है, कालिमा होतीहै। वह केवल दूसरों को अपने प्रभाव में लाना चाहता है। मेरे पुत्रो ! वेद का ऋषि कहता है कि ऐसे अभिमानी प्राणी को सँसार में नष्ट कर देना चाहिए। यह वेद का ऋषि कहता है।

धर्म क्या है?

धर्म वह है जो स्वाभाविक आभा है, सुगन्धि है उसका
नाम धर्म है। नाम धर्म है। जो देवताओं की ध्वनि उसी का है उसी नाम धर्म है। देवताओं की ध्वनि क्या है? अग्नि की ध्वनि तेज,वायु की ध्वनि गति करना है, जल की जो ध्वनि है वह अमृत है, अन्तरिक्ष की जो गति है वह शब्द है, पृथ्वी से सुगन्धि आती है, दुर्गन्ध आती है, दुर्गन्ध को त्यागो सुगन्ध को लेना स्वीकार करो। तो यह जो पँच भूतों में स्वाभाविकता है अरे ! इसी को धारण करने का नाम धर्म कहलाता है।

धर्म क्या वस्तु है?

मानो अन्तरिक्ष से शब्दों का ज्ञान हो जाता है, वायु से गति करने का ज्ञान होता है। गति हम कैसे करें? अग्नि से हम तेज को लाना चाहते हैं, जल से हम अपनी रसना में रस को लाना चाहते हैं और पृथ्वी से हम क्या चाहते हैं कि पृथ्वी नाना प्रकार की यातना सह करके भी तुम्हें सुगन्धि ही देती है। नाना प्रकार की कठोरता को भी अपने में धारण करके तुम्हें खाद्य और खनिज पदार्थ प्रदान करती है। तो हे मानव तेरा धर्म क्या है? तेरा धर्म है कि इन स्वाभाविक तत्वों को अपनाना ही तेरा धर्म कहलाया गया है।अरे ! वह धर्म सर्वत्र वायु की भाँति ओत-प्रोत है, एक ही धर्म है सँसार में, मानवता।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार