चरित्र निर्माण की कार्यशाला न होने पर हुआ रावण का विनाश | Ravan's Research work

एक बार महर्षि कुक्कट लंका पधारे। रावण ने यथायोग्य स्वागत वंदन कर उन्हें लंका का भ्रमण करवाया। उसने ऋषि को नाना भवनों का निरीक्षण कराया। उन्होंने कहा प्रभु यह कुबेर भवन है,यह जो भवन आपको मैं दिखा रहा हूँ इसका निर्माण महाराजा शिव ने किया था। यह स्वर्ण का भवन है।

उसके रावण, महर्षि को पश्चात् विज्ञान भवन में ले गये।  जहाँ पृथ्वी के ऊपर अनुसन्धान हो रहा था। रावण ने सगर्व कहा- प्रभु यह मेरे यहाँ का विज्ञान है,विज्ञानशालाएँ हैं-पृथ्वी विज्ञानशाला यहाँ पृथ्वी के ऊपर अनुसन्धान हो रहा है। भगवन् देखो यह नाना वैज्ञानिक पृथ्वीयों के ऊपर अनुसन्धान कर रहे हैं-पृथ्वी
में कितना परमाणु कितनी दूरी पर, कौन-सा खनिज कितनी दूरी पर है। कौन-सा खाद्य कैसे उत्पन्न होता है और कैसे यह पोषक हो सकता है। तो इसके ऊपर विचार-विनिमय कर रहे हैं।

इसके बाद रावण, महर्षि कुक्कट को दूसरी प्रयोगशाला में ले गया। उन्होंने कहा यह द्वितीय विज्ञानशाला है जहाँ आपः अर्थात जल-तत्व के ऊपर अनुसन्धान हो रहा है या आपाम् भूतम् ब्रह्मा यह जल ही तो जीवन है। जल ही प्राणों का देने वाला है इसके ऊपर वैज्ञानिक अपने में अनुसन्धान कर रहे हैं।

ऋषि ने कहा धन्य है राजन, तुम्हारा राष्ट्र बड़ा उन्नत है। उन्होंने कहा प्रभु यह मेरे यहाँ सूर्य अनुसन्धानशाला है। यहाँ सूर्य के ऊपर अनुसन्धान और सूर्य की ऊर्जा के साथ में यन्त्र भ्रमण कर रहे हैं। एक यन्त्र का यहाँ निर्माण हुआ है जो सूर्य की किरणों से वो गमन करता रहता।
है उसकी ऊर्जा से यह मानो सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। कोई यन्त्र पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा है, कोई ध्रुव की परिक्रमा कर रहा है। यह नाना प्रकार के वैज्ञानिक यन्त्रों का निर्माण कर करके उनका वायु कफ दे करके भ्रमण करा रही है।रावण ने आगे कहा- प्रभु यह चन्द्रशाला है, यहाँ चन्द्रमा के ऊपर अनुसन्धान होता रहता है। यह
चन्द्रमा कितना सोम लेता है समुद्रों से और सोम की कैसे वृष्टि करता है इसके ऊपर विचार-विनिमय करते रहते हैं। और चन्द्रमा में गति कैसे होती है।

नरायन्तक का विज्ञान
उसके बाद रावण, महर्षि कुक्कुट को अपने पुत्र नरायन्तक के द्वार पर ले गया और बोला, यह मेरापुत्र है नरायन्तक, यह यन्त्रों में गमन करते रहते हैं।

महर्षि ने कहा क्या तुम चन्द्र यात्री हो? नरायन्तक ने  कहा
महाराज मैं वहाँ भ्रमण कर आता हूँ। उन्होंने कहा कितनी गति है तुम्हारी जाने की? उन्होंने कहा कि मैं एक रात्रि और एक दिवस मेरे लिए पर्याप्त हैं, मैं चन्द्रमा में प्रवेश कर जाता हूँ। मैं, चन्द्रमा में मेरा गमन हो जाता है वहाँ के वैज्ञानिकों से मैं वार्ता प्रगट करके चला आता हूँ।

नरायन्तक ने आगे कहा मेरे जो आचार्य हैं वह महर्षि भारद्वाज रहे हैं और भारद्वाज की विज्ञानशाला में मैंने विज्ञान की शिक्षा को प्राप्त किया है। मैंने ऐसे-ऐसे यन्त्रों का निर्माण किया-एक यन्त्र में विद्यमान होता हुआ यहाँ से जो यन्त्र उड़ाने उड़ता है तो यहाँ से उड़ान उड़ता हूँ तो सबसे प्रथम चन्द्रमा में।

चन्द्रमा से उड़ान उड़ी तो बुध में और बुध से उड़ान उड़ी तो शुक्र में और शुक्र से उड़ान उड़ी तो मानो देखो मंगल में। और मंगल से उड़ान उड़ी तो मानो देखो मृचिका मण्डल में, मृचिका मण्डल से उड़ान उड़ी तो मेृतकेतु मण्डल में, मृेतकेतु मण्डल से उड़ान उड़ी तो अरून्धति में, अरून्धति मण्डल से उड़ान उड़ी तो वशिष्ठ मण्डल में और वशिष्ठ मण्डल से उड़ान उड़ी तो मैं मानो देखो स्वाति नक्षत्र में
चला जाता हूँ। और स्वाति नक्षत्र से उड़ान उड़ता हुआ मूल नक्षत्र में चला जाता हूँ और मूल नक्षत्र से उड़ान हुआ मैं मौन अवृतिओं मण्डलों में प्रवेश कर जाता हूँ। तो उन्होंने कहा, नरायन्तक ने, भगवन मैं बहत्तर लोकों का भ्रमण करके मेरा यान मेरी विज्ञानशाला में पुनः
प्रवेश कर जाता हूँ।  

महर्षि बोले-  धन्य है।

तब राजा रावण ने कहा प्रभु यह मेरे यहाँ विज्ञानशालाएँ हैं। नाना प्रकार के अस्त्रों-शस्त्रों का निर्माण होता रहता है। यहाँ आग्नेय अस्त्र और देखो ब्रह्मास्त्रों का प्रायः निर्माण होता रहता है।

आयुर्वेद विज्ञान

वहाँ से भ्रमण करते हुए वह चिकित्सालय में पहुँचे जहाँ महात्मा भुंजु के दोनों पुत्र अश्विनी कुमार इसके ऊपर अन्वेषण करते थे, सुशेण वैद्य भी देखो उनके मध्य में विद्यमान थे। उन्होंने चर्चाएँ प्रगट कीं कि तुम्हारी इस आयुर्वेद में कितनी गति है? उन्होंने कहा प्रभु हम मानव के मस्तिष्क को, कण्ठ से ऊपर वाले भाग को भी हम दूर कर देते हैं उसे पुनः गति दे देते हैं और मानव के हृदय को, हृदय को निकाल करके और शरीर से पृथक करके औषधियों में दोनों को संरक्षित कर देते हैं और छः माह के पश्चात् पुनः उसमें गति प्रदान कर देते हैं। इस प्रकार का हमारा यह चिकित्सालय हैं।

चिकित्सालाओं में और भी नाना प्रकार का अन्वेषण होता रहता है। कहीं इस प्रकार की बुटियाँ हैं जिनको पान करके मानव देखो भिन्न-भिन्न प्राणियों की भाषा को जानने लगते हैं। ऋषि बड़े प्रसन्न हुए।

मार्गशालाएँ
भ्रमण करते हुए रावण महर्षि को मार्गशालाओं के विभाग की तरफ ले गया मार्गशालाओं के जो विशेषज्ञ थे, जहाँ मार्गों के निर्माण हो रहे थे, मार्गो में मानो देखो उर्ध्वगामी मार्ग थे। रावण ने कहा प्रभु यह मार्गशालाएं हैं यहाँ मार्ग के विशेषज्ञ हैं और यहाँ निर्माण होता रहता है।

महर्षि कुक्कुट मुनि का उद्बोधन
सर्वत्र लँका का भ्रमण कराने के पश्चात् राजा रावण, ऋषि के चरणों में प्रणाम करके बोले-  हे भगवन् मैं यह जानना चाहता हूँ आपको मेरी लँका कैसी प्रतीत हुई?

उन्होंने कहा रावण तुम्हारा राष्ट्र तो बड़ा पवित्र है, तुम्हारा तो विकासवादी राष्ट्र है।

राजन् तुम्हें धन्य है परन्तु देखो मुझे सर्वत्र लँका को भ्रमण करने के पश्चात् मुझे ऐसा प्रतीत हुआ है जैसे तुम्हारी लँका में जल्दी ही आग लगने वाली है।

जब महर्षि ने यह कहा तो रावण ने नत-मस्तिष्क हो करके कहा प्रभु ! आपने ऐसा क्यों कहा? उन्होंने कहा मैंने इसलिए कहा है तुमने मुझे ऊँचे-ऊँचे भवनों का दर्शन करायाहै, स्वर्ण के भवनों का दर्शन कराया है। तुमने मानो देखो जल अनुसन्धानशाला,पृथ्वी अनुसन्धानशालाएं, सूर्य अनुसन्धानशाला, चन्द्र अनुसन्धानशालाएं, लोक लोकान्तरों में जाने वाले यात्री यन्त्र विद्यमान हैं परन्तु (और) नाना प्रकार की चिकित्सालाएं हैं और मार्गशालाएं हैं।

हे रावण तुमने मुझे सब कुछ दिखाया कराया परन्तु तुमने मुझे कोई चरित्रशाला का दर्शन नहीं कराया है। और जिस राजा के राष्ट्र में चरित्र नहीं होता उस राजा का राष्ट्र आज नहीं तो कल अवश्य देखो अग्नि का काण्ड बन करके रहेगा।

राजा रावण नत-मस्तिष्क हो गये और उन्होंने कहा प्रभु वास्तव में मैं विज्ञान में लगा रहा हूँ, विद्या में लगा रहा हूँ, परन्तु देखो चरित्र का वास्तव में अभाव है।

उन्होंने कहा रावण तुम्हें प्रतीत है जिस समय तुम्हारा राज्याभिषेक हुआ था उस समय देखो महात्मा पुलस्त्य ऋषि महाराज ने मुझे सभापति बनाया और सभापति बना करके यह कहा कि तुम इसका राज्याभिषेक करो। मैंने तुम्हारे मस्तिष्क का अध्ययन किया और मस्तिष्क को अध्ययन करके ये कहा पुलस्त्य से ये राष्ट्र को चरित्र नहीं दे सकेगा, यह राष्ट्र को विज्ञान दे सकेगा, भवन दे
सकेगा, विज्ञान में पहुँचा देगा, लोक लोकान्तरों का यात्री बना सकता है परन्तु ये चरित्र नहीं दे सकता इसलिए मैं इसका राज्याभिषेक नहीं करूँगा। तो तुम्हें प्रतीत है कि महात्मा भुन्जु  ने तुम्हारा राज्याभिषेक किया था।

इतना कहकर महर्षि कुक्कुट मुनि महाराज ने कहा  अब राजन् मुझे आज्ञा दो, मैं अपने आश्रम में गमन करूँगा। कहकर महर्षि अपने आश्रम लोट गए।

हमारे यहाँ वैदिक साहित्य में राष्ट्र का अपना बड़ा महत्त्व माना गया है परन्तु राष्ट्र बिना चरित्र के ऊँचा नहीं बनता। गृह बिना चरित्र के ऊँचे नहीं बनते। विद्यालयों में जब चरित्र होता है, मानवीयता होती है तो विद्यालय
ऊँचे बनते हैं।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार