हम सदा सद्गुणों को ग्रहण करें

आज के युग में गुणों से भरे मार्ग पर चलने वाले लोग उँगलियों पर गिने जा सकते हैं | गुणों के ह्रास से ही संसार आज अध्:पतन की ओर जा रहा है | अपने अधिकार पाने की एक दौड़ सी लगी हुयी है | किसी को भी कर्तव्य की ओर देखने व उसे समझने तथा उस पर चलने की भावना ही नहीं रही | आज स्थिति यहाँ तक पहुंच गयी है
कि एक बालक , जिसे पाल - पोस कर बड़ा किया जाता है, पढ़ाया - लिखाया जाता है | अच्छी प्रकार से उस का भरण - पोषण किया जाता है तथा उत्तम वस्त्र उसे पहनने को दिए जाते हैं |

यह सब कर्तव्य पूर्ण करने में माता पिता जीवन भर की कमाई लगा देता है | जब उस की आयु ढल जाती है , वह बुढ़ापे की अवस्था में पहुंचता है , अनेक रोग उसे घेर लेते हैं , इस अवस्था में उसे सहारे की आवश्यकता होती है | इसी अवस्था में वही संतान, जिसे बनाने के लिए उसने अपना जीवन खपा दिया, आज उसे दुत्कारती है तथा यह कहने पर कि माता पिता ने तेरा पालन किया है तो उतर देती है कि यह तो उनका कर्तव्य था , हमारे लिए नहीं अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए यह सब किया था, अपनी नाक बचाने के लिए यह सब किया था | जब कहा जाता है की तुम्हारा भी इन के लिए कुछ कर्तव्य बनता है , तो उतर होता है कि हमारा अपने बच्चों के लिए भी कर्तव्य है, उसे पूरा करें या इन को संभालें

            जिस माता पिता ने उसे यह संसार दिखाया, आज उनकी देख रेख करने वाला कोई नहीं , क्योंकि हम ने संतान का पालन तो किया किन्तु उसे सुसंतान न बना पाए | अच्छे गुण उनमें नहीं-भर सके | ऋग्वेद के मन्त्र ५.८२.५ में प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभु, हमें अच्छे गुण ग्रहण करने की शक्ति दो | मन्त्र मूल रूप में इस प्रकार है :

           विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुवा |
यद् भद्रं तन्न आ सुव || ऋग्वेद ५.८२.५ ||

हे संसार के उत्पादक ,कल्याणकारी परमेश्वर , आप हमारे सारे दुर्गुण, दुर्व्यसन तथा दुर्गुणों को दूर कीजिये ओर जो कल्याणकारी गुण, कर्म, पदार्थ हैं , वह हमें दीजिये |

इस मन्त्र में वैदिक संस्कृति के लक्षण बताये गए हैं | संस्कृति क्या है ?, इस का अर्थ क्या है ? आओ पहले इसे जाने , फिर हम आगे बढ़ेंगे | संस्कृति नाम है
संस्कार का | संस्कार से परिष्कार होता है तथा तथा परिष्कार से संशोधन होता है | अत: संस्कार, परिष्कार व संशोधन को ही हम संस्कृति कह सकते हैं | बालक का जन्म
होता है, उसे कुछ भी ज्ञान नहीं होता | माता , पिता उसे संस्कार देते हैं, विगत संस्कारों को परिष्क्र्त कर , उनका संशोधन करते हैं , तब कहीं जा कर वह बालक एक उत्तम मानव की श्रेणी में आ पाता है | इस लिए हमारी संस्कृति के आधार हैं संस्कार, परिष्कार तथा संशोधन | इसे समझाने के लिए हम कृषि या खेती का बड़ा ही सुन्दर उदाहरण देख सकते हैं : -

                    किसान अपने खेतों में से अनावश्यक घास फुंस, जो स्वयं ही उग आता है तथा भूमि की उर्वरक शक्ति का शोषण करने लगता है , को खोद कर निकाल बाहर
करता है | तत्पश्चात अपने खेत को समतल कर इस में उत्तम प्रकार के बीजों को डालता है | इस खेती में समय समय पर खाद व पानी दे कर इसे पुष्ट भी किया जाता है | इससे उगने वाले पोधों में अच्छे गुणों का आघान होता है तथा अच्छे फल स्वरूप इस का परिणाम किसान को मिलता है | कुछ एसा ही कार्य संस्कृति करती है | बालक के अन्दर जितने भी अवाच्छ्नीय तत्व होते हैं , जितने भी दुर्गुण होते हैं या किसी भी प्रकार की कमियां बालक में होती है, संस्कृति उन सब को दूर कर , उनके स्थान पर अच्छे गुणों को प्रतिस्थापित करती है | बस इस कार्य को ही हम संस्कृति कहते हैं | हम संस्कृति को संक्षेप में इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं " दुर्गुण निवारण और सद्गुण स्थापन
ही संस्कृति है |"

              ऊपर के प्रकाश को सम्मुख रखते हुए इस मन्त्र में कहा गया है कि जितने दुर्गुण, दुर्विचार या जितने भी दू:ख देने वाले तत्व हैं , हे प्रभू, वह सब हम से दूर कीजिये तथा जितने भी सद्गुण, सद्विचार अथवा शुभ तत्व हैं ,वह सब हमें प्रदान कीजिये |


        इस प्रकार गुणों को प्राप्त करने व दुर्गुणों को दूर करने का कार्य यह संस्कृति मानव के जीवन पर्यंत करती रहती है, यह क्रम चलता रहता है | तब ही तो मानव दुराचारों तथा पापाचारों से अपने को बचाते हुए सद्गुणों कि प्राप्ति की और बढ़ता है , इन में प्रवृत होता है , इन्हें ग्रहण करता है | जब सद्गुणों में यह प्रवृति बद्धमूल हो जाती है , समा जाती है , तब मानव में से सब प्रकार की दुर्भावनाओं, दुराचारों का नाश हो जाता है तथा अच्छे
गुण, अच्छे संस्कारों में निरंतर वृद्धि होती रहती है | इस प्रकार अच्छे गुणों को प्राप्त करते हुए मानव मानवता से देवत्व की और बढ़ता ही चला जाता है |जिस मानव में ऐसे गुणों की प्रचुरता आ जाती है , संसार उन्हें युगों युगों तक याद करता है, उसके पदचिन्हों पर चलने का प्रयास करता है तथा उसे देवता तुल्य
आदर सत्कार देने लगता है |

  अत: हम मन्त्र की भावना को अपनाते हुए संसकृति के भाव को आत्मसात करते हुए अपने दुर्गुणों को त्यागें तथा अच्छे गुणों को गृहन कर संसार के सम्मुख अच्छा  उदहारण रखें |
 
डा. अशोक आर्य

Be kind as earth. पृथ्वी के समान माता पिता भी दानी व मृदुभाषी हों

  डा. अशोक आर्य , डबवाली मण्डी


माता पिता सदा संतान का सुख चाहते हैं | संतान का पालन करते हुए कोई भी माता या पिता प्रतिफल की इच्छा नहीं रखता | इतना ही नहीं प्राय: सब माता पिता अपने बच्चों का यश चाहते है तथा उनसे मृदुभाषा में ही बात करते हैं | माता पिता के सम्बन्ध में यूँ कहा जा सकता है कि संतान के लिए यह एक महान दान है | दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि यह माता पिता की दान की प्रवृति है | एक प्रकार से बच्चों का पालन करते हुए जब बिना किसी प्रतिफल की भावना से बच्चों का भरण पोषण करते हैं , उनकी सब आवकश्यकता को पूरा करते हैं , उनको सुशिक्षा देने की न केवल व्यवस्था ही करते हैं अपितु उनको ऊँची शिक्षा दिलाने का भी प्रयास करते हैं | सदा उनसे मीठा ही बोलते हैं |

इस प्रकार माता पिता के सम्बन्ध में ऋग्वेद के अध्याय ५ मंडल ४३ के मन्त्र २ में इस प्रकार कहा गया है : -

                       
आसुष्टुतीनमसावर्तयध्यैद्यावावाजायपृथिवीअमृध्रे।
पितामातामधुवचाःसुहस्ताभरेभरेनोयशसावविष्टाम्॥ ऋ05.43.2 ||



शब्दार्थ : -
( अहं } मैं (सुष्टुति } उत्तम स्तुति से (नमसा) नमस्ते से (अम्रिध्रे )अजेय (द्यावा पृथ्वी) द्युलोक ओर पृथ्वी (वाजाय) बल या शक्ति हेतु (आ वर्त्यध्ये इच्छामि ) अपनी ओऊ लाने कि इच्छा से (यशसौ } यशस्वी (पिता माता ) पिता माता सम (म्रिधुवचा:) मीठा बोलने वाले (सुहस्ता ) सुन्दर हाथ वाले (भरे भरे ) प्रत्येक संकट मैं (न:) हमारी (अविष्टाम) रक्षा करें |
 
  इस मन्त्र में माता पिता के कर्तव्यों का बड़े ही सुन्दर व सरल ढंग से उल्लेख
किया गया है | मन्त्र कहता है कि माता पिता सदा मधुर बोलें , बड़े ही सुन्दर ढंग के दानी बनें, वह यशस्वी हों तथा संकट में पड़े अपनी सन्तान की रक्षा करें | यह माता पिता के मुख्य कर्तव्य इस मन्त्र में बताये गए हैं | |
मन्त्र कहता है कि माता पिता मधुर भाषी हों | मधुर भाषण से हमें अनेक विशेषताओं का ज्ञान होता है | जैसे मधुर भाषण करने वाला सदैव जैसे मधुर भाषण करने वाला सदैव प्रसन्न रहता है | यह मीठा बोलने की विशेषता है कि जो मीठा बोलता है, उसे किसी के विरोध का सामना नहीं करना पड़ता | इसलिए उसे कोई कष्ट होता ही नहीं | जब कष्ट नहीं होता तो वह सदा प्रसन्न ही तो रहेगा | न तो उसे कोई दु:ख होगा तथा न ही उसे कोई तंग करेगा जिससे उसकी प्रसन्नता निरंतर बढती चली जाती है |

अत:  स्पष्ट है की मृदुभाशी सदा प्रसन्न रहता है | जब वह मीठा बोलता है तो उसके वचनों से किसी को भी कष्ट नहीं होता अपितु उसके वचनों से सुख ही मिलता है | जिस के द्वारा किसी को सुख मिलता है तो वह निश्चित रूप से उसकी अच्छाई की चर्चा अनेक स्थानों पर करता है | इस प्रकार उसकी ख्याति भी दूर दूर तक फैलती है | इस का नाम है वशीकरण | अर्थात मीठा बोलने से सब लोग स्वयं ही उस की और खींचे चले आते हैं | इस के अतिरिक्त मीठा बोलकर जितनी सरलता से दूसरे को जीता जा सकता है, जीतनी सरलता से दूसरे को अपने वश में किया जा सकता है , उतनी सरलाता से दूसरे को वश में करने का कोई अन्य उपाय नहीं | अत: मीठा बोलने को वशीकरण मन्त्र भी कहा जा सकता है और मीठा बोलने से संतान सुसंतान बनाकर माता पिता का अनुगमन करते हुए माता पिता के समान ही मृदुभाषी बनेगी |

Oh God lead us on the right path. हे प्रभु ! हमारी बुद्धि सन्मार्ग पर चला


संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है | प्रत्येक प्राणी अपने में ज्ञान का भंडार भरना चाहता है | अच्छा व्यवहार चाहता है | अपना कल्याण चाहता है | यह सब परम पिता परमात्मा के आशीर्वाद से ही संभव है | पिता के इस आशीर्वाद को ही प्राप्त , करना मानव जीवन में सब का प्रयास रहता है | इस के लिए सन्मार्ग पर चलना आवश्यक है जो सन्मार्ग पर चलता है , उसे प्रभु का आशीर्वाद अवश्य ही मिलता है | वेद के विभिन्न गायत्री मन्त्र में इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए इस प्रकार कहा गया है : -

॥ओउम॥ भूर्भुव:स्व: | तत सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि |
धियो यो न प्रचोदयात || : ऋग.३.६२.१० , यजु ३६.३,३.३५,३०.२,२२.९ साम . १४६२ तथा तैति आर. १.११.२ तैति .१.५.६.४ , ४.१.११.१ ||


जो सच्चिदानंद स्वरूप , संसार के उत्पादक ,देव, परमात्मा का सर्वोत्कृष्ट तेज है उसे हम धारण करते हैं | वही परमात्मा हमारी बुद्धि को उतम कर्मों में प्रेरित करे |

आस्तिकता तथा बुद्धि शुद्धता दो बातों की आस्तिक होने के लिए आवश्यकता होती है | दोनों की ही सिद्धि गायत्री मन्त्र करता है | गायत्री का अर्थ गय और गाय दिया गया है जिसका भाव है – प्राण |

शतपथ ब्राह्मण में इस प्रकार दिया है : -प्राणा वै गया: ( श.ब्रा.१४.८.१५.७ ) गया:
प्राणा: , गया: एव गाया: तान त्रायते इति गायत्री | इसमें गाय या प्राणों की रक्षा करने वाले को गायत्री बताया है | यही कारण है कि गायत्री मन्त्र के जप से प्राणशक्ति बढती है | यहाँ तक कि यदि प्रतिदिन लम्बे समय तक गायत्री नाद किया जावे तो दिल का दौरा पड़ने का भय कम हो जाता है | इसके साथ ही गायत्री के जप से शारीरिक व बौद्धिक दुर्बलता भी दूर होती है | इतना ही नहीं गायत्री को सावित्री भी कहा है | सावित्री का सविता अर्थात सूर्य या ब्रह्मा से संबध होने से ही यह सावित्री कहलाया है क्योंकि इस मन्त्र के जप से सौर शक्ति उत्पन्न होती है |
इतने से ही सपष्ट होता है कि जो व्यक्ति अपने अन्दर बौधिक विकास की इच्छा,
अभिलाषा रखता है , जो व्यक्ति अपने शरीर को सशक्त रखना चाहता है , जो अपने में सूर्यवत तेजस्विता चाहता है , उसके लिए गायत्री का जप अत्यंत उपयोगी है | बिना गायत्री जप के इस सब में से कुछ भी प्राप्त कर पाना संभव नहीं है |

तैतिरीय ब्राह्मण में तो गायत्री को ब्रह्म वर्चस भी बताया है | इस का भाव है कि गायत्री ही ब्रह्मतेज है | अत: जो व्यक्ति गायत्री का नियमित जप करता है वह ब्रह्मतेज को भी पा लेता है | यह ब्रह्म वर्चस ही है, जिससे व्यक्ति संयमी ,मनोंइग्रही व जितेन्द्रिय बनता है| अत: जिसने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की इच्छा सिंजो रक्खी है , जो
अपने जीवन में संयम को धारण करना चाहता है अथवा जो मनोनिग्रह की कामना रखता है , उसके लिए गायत्री का जाप आवश्यक व उपयोगी है | तभी तो तान्द्य ब्राह्मण
में " वीर्यं वै गायत्री " कहा गया है |

यदि हम गायत्री मन्त्र की पंक्तियों को देखते हैं तो हमें स्पष्ट दिखाई देता है कि गायत्री के तीन भाग हैं :-

(१) महाव्याह्रति :-
गायत्री में ओउम भूर्भुव: स्व: | , यह प्रथम पंक्ति है | इसे ही मन्त्र का प्रथम भाग कहा गया है | इस भाग में परमात्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में बताया गया है | मन्त्र का यह भाग बताता है कि हमारा उत्पादक परमात्मा सत, चित और आनंदस्वरूप है | यह आनन्द ही तो है जिस को प्राप्त करने का प्रयास मानव जीवन भर करता रहता है यह ही उस का ध्येय है , अंतिम लक्ष्य है |

(२) परमात्मा की ज्योति का धारण

तत से लेकर धीमहि तक के गायत्री खंड को मन्त्र के दूसरे भाग स्वरूप लिया जाता है | इस का भाव है कि जो आनंद का वर्णन प्रथम भाग में किया है , उस आनन्द को पाने के लिए परमात्मा के तेज को , परमात्मा की ज्योति को ह्रदय में धारण करना होगा | इस ज्योति को जब तक हम अपने ह्रदय में धारण नहीं करते तब तक ज्ञान की शक्ति ही उद्बुद्ध नहीं होगी , ज्ञान की शक्ति का हमारे अंदर यदि है ही नहीं तो आनंद ,सुख कैसे होगा ? बुद्धि तब ही शुद्ध होती है जब हमें पिता पर पूर्ण विशवास हो ,जिसे आस्तिकता कहा गया है , हम आस्तिक हों, ईश विश्वासी हों और ईश की सर्व व्यापकता पर विश्वास रखते हों | इस प्रकार मन्त्र का यह दूसरा भाग आत्मिकता और आत्मिक शक्ति को उत्पन्न करने का साधन है | जब तक हम यह शक्ति उदित नहीं कर लेते तब तक प्रभु का स्नेह नहीं पा सकते |

(३) मन्त्र का शेषभाग - धियो ...........ध्यात

धियो ...........ध्यात इस के तृतीय भाग स्वरूप है | इस भाग में मन्त्र जप का फल बताया गया है | यह भाग हमें बताता है कि पिता को ह्रदय में धारण करने से उस प्रभु का प्रकाश बुद्धि को शुद्ध करता है | शुद्ध बुद्धि स्वयं ही उतम मार्ग की अनुगामी होने से सन्मार्ग पर चलती है | बुद्धि कुमार्ग को , अकर्तव्य पथ को त्याग कर सन्मार्ग या सुपथ या कर्तव्य पथ पर चलने लगती है | जब बुद्धि सन्मार्ग पर चलती है तो मानव जीवन सुखों से भर जाता है | अत: सुखों के इलाषी प्राणी के लिए आवश्यक है कि वह सन्मार्ग पर चले , जिसे पाने के लिए गायत्री का निरंतर जाप करे |


डा. अशोक आर्य

Yagya and Upasana are the tools for pure life. हम यज्ञ,सत्संग, व उपासना से जीवन पवित्र करें


जीवन में पवित्रता के साधन रुप में हाथ धोना , मुंह धोना तथा स्नान का मुख्य स्थान है तो अध्यात्मिक क्षेत्र में यज्ञ पवित्रता का मुख्य साधन है । यज्ञ के अतिरिक्त सत्संग तथा उपासना अर्थात प्रभु की समीपता से ही पवित्रता आ सकती है । एसा उपदेश यह मन्त्र कर रहा है :-

वसो: पवित्रमसि शतधारं वसो: पवित्रमसि सहस्रधारम ।
देवस्त्वा सविता पुनातु वसो: पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्श:॥
ऋग्वेद १.३


इस मन्त्र में मानव मात्र को उपदेश देते हुए परम प्रभु ने तीन बिन्दुओं को केन्द्र बनाया है । प्रभु उपदेश करते हैं कि :-

१. यज्ञ से पवित्रता आती है :-

परमपिता परमात्मा उपदेश करते हुए इस मन्त्र के माध्यम से सर्व पर्थम यह कहते हैं कि हे जीव ! तुम ने यज्ञ किया है । इस यज्ञ के द्वारा अपने आप को पवित्र बना लिया है । यहां पर शतधारेण के माध्यम से बताया गया है कि इस यज्ञ के द्वारा पवित्र होने के लिए , इस यज्ञ को करने के लिए, शतश: अर्थात सैंकडों मन्त्रों के द्वारा वेद वाणियों का उच्चारण किया गया है , इन वेद के मन्त्रों का ज्ञान किया गया है । मन्त्र कहता है कि केवल सैंकडों ही नहीं सहस्रों , हजारों वेद मन्त्रों का उच्चारण इस यज्ञ में किया गया है । वेद मन्त्रों की यह ध्वनि कानों में पडने से तू पवित्र हो गया है । यज्ञ की यह मन्त्रमयी प्रक्रिया सब को पवित्र कर देती है । इस प्रकार यज्ञ की इस मन्त्र युक्त विधि से तूंने इसे किया है , जिससे तेरे में पवित्रता आ गयी है । इस विधि से तुमने अपने आप को, स्वयं को पवित्र बना लिया है । वैदिक संस्कृति में विचरण करने वाला व्यक्ति अपने जीवन को यज्ञ जैसा ही बना लेता है । इस प्रकार का जीवन बनाने का प्रेरणास्रोत उसे सैंकडों , हजारो वेद वाणियों , वेद मन्त्रों के उच्चारण व गायन से मिलती है । इसे ही यह मानव समय समय पर प्रयोग करता रहता है ।

मन्त्र में पवित्रता का साधन यज्ञ को बताया गया है ओर जब इस यज्ञ को करते समय मन्त्रों को गा कर बोला जाता है तो सोने पर सुहागे वाली बात आ जाती है । हम अपने शरीर को बाहर से तो स्नान आदि करके पवित्र कर लेते हैं किन्तु अन्दर के जीवन को, अन्दर के शरीर को पवित्र करने का आधार आध्यात्मिक ही होता है । इस कार्य के लिए उसे प्रतिदिन यज्ञ करने की आवश्यकता होती है । केवल यज्ञ मात्र से ही काम नहीं चलता, इस यज्ञ को करने के लिए अनगिनत वेद मन्त्रों का भी गायन करना होता है । वेद मन्त्र के गायन से हमारे शरीर के अन्दर प्रवाहित हो रहे रक्त में अल्ट्रासानिक तथा सुपरासानिक वेव्ज का , लहरों का सन्तुलन बन जाता है , अनुपात ठीक हो जाता है ,जिस से हमारा मस्तिष्क शान्त व शीतल हो जाता है , हमारा ध्यान प्रभु की कृति में लगता है । इस प्रकार हम अन्दर से भी पवित्र हो जाते हैं । इस लिए प्रभु एक प्रकार से यह आदेश दे रहे हैं कि हमें वेदवाणी के उच्चारण के साथ , वेदवाणी के गायन के साथ प्रतिदिन नियमित रुप से यज्ञ करना चाहिये ।

२. दो काल उपासना तथा सूर्य पवित्र करे :-

मन्त्र के इस दूसरे भाग में जो उपदेश किया गया है , इसे मन्त्र ने दो भागों में बांट कर हमारे तक पहुंचाया है । मन्त्र कहता है कि :-

(क) हम दो काल प्रभु चरणॊं में आवें :-

मन्त्र अपने दूसरे चरण के इस प्रथम भाग में हमें उपदेश करता है कि वह परम पिता सब का प्रेरक है , सब को प्रेरणा देने वाला है , सब का मार्ग दर्शक है , सब को हाथ पकड कर सुमार्ग पर ले जाने वाला है । वह पिता ही दिव्य गुणों का पुन्ज है , दिव्य गुणों का भण्डार है, जितने भी दिव्य गुण हैं , उन सब का केन्द्र बिन्दु वह प्रभु ही है । एसा प्रभु , हे मानव ! तुझे अवश्य ही पवित्र करे , अध्यात्मिक रुप से पवित्र करे । जो मानव दिन में दो काल अर्थात प्रात: व सायं , उस पिता को स्मरण करता है , उस पिता के निकट जा कर कुछ प्रार्थना करता है , उस प्रभु का स्मरण करता है , प्रभु के आशीर्वाद से उसका जीवन पवित्र बन जाता है । मानव के जीवन को पवित्र करने के लिए उपासना अर्थात प्रभु की निकटता पाने से उपर कुछ भीव नहीं है ।

(ख). सूर्य तुझे निरोग रखे :-

परम पिता परमत्मा को स्मरण करने , उसकी निकटता पाने तथा यज्ञ करने से जो पवित्रता हमें मिलती है , उसे हम आध्यात्मिक पवित्रता कहते हैं । इस के पश्चात जिस पवित्रता को हम जनते हैं , उसे शारीरिक पवित्रता कहते हैं । यह पवित्रता शरीर के स्वच्छ व निरोग होने से होती है । इस पवित्रता को देने वाला मुख्य आधार सूर्य होता है । सूर्य को मन्त्र में सविता का नाम दिया गया है । कहा गया है कि सविता देव अर्थात सूर्य प्रात: काल उदय होता है तथा सबको कर्मों में लगा देता है । यह ज्योति का पथ देता है , सब को प्रकाश देता है । दिन भर के कार्य से निवृत हो कर थका हुआ प्राणी रात्रि को विश्राम करता है । इस विश्राम के पश्चात पुन: प्रात: काल का निमन्त्रण ले कर सूर्य आता है । दिन निकल आता है , सब ओर प्रकाश ही प्रकाश होता है । सब लोग अपने बिस्तर को छोड देते हैं । पक्षी भी चहचहाने लगते हैं । बडा ही सुहाना द्रश्य बन जाता है । इस प्रकार सब लोग जाग्रत होते हैं तथा अपने अपने कामों में लग जाते हैं । मानो सूर्य उन्हें अपने काम करने के लिए प्रेरित कर रहा हो । इस प्रकार सूर्य जहां हमें हमारे काम में लगाता है , वहां इस सूर्य के प्रभाव से सब प्रकार के कीटाणु , सब प्रकार के रोगाणु इस सूर्य के तेज के आगे क्षीण हो जाते हैं , नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार यह जगत सूर्य के कारण रोगाणु रहित हो कर पवित्र हो जाता है । अत: सूर्य हमें निरोगता व पवित्रता देता है ।

३. सत्संग से उत्तम मनों वाले हों :-

हे मनुष्य तूने सैंकडों , सहस्रों वेदवाणियों का पाट किया है , इन वेदवाणियों का स्मरण किया है , इन्हें गाया है तथा इन के साथ तूंने यग्य किया है । इससे अपने आप को तूंने अपने आप को पवित्र बनाया है । एसे पवित्र मानव के साथ तूण सम्पर्क कर , एसे पवित्र मानव का साथ बना , एसे पवित्र व्यक्तित्ब्व वाले पुरुषों का साथ करने से ही तूं अच्छी प्रकार से , उत्तम विधि से पवित्र करने वाला बना है । अब तेरे अन्दर भी एसी शक्ति आ गयी है कि जिससे तूं अपने साथ ही साथ दूसरों को भी पवित्र करने के योग्य , पवित्र करने वाला बन गया है ।

यह कहावत भी है जैसे का साथ करोगे वैसा ही बनोगे । इस लिए ही माता पिता सदा अपने बच्चों को सूझवान , दुसरों के सहायक ,आज्ञाकारी तथा बुद्दिशील ,मेहनती बच्चों का साथ बनाने का उपदेश देते हैं ताकि उनके बच्चे भी वैसे ही बन सकें । यह वेद मन्त्र भी कह रहा है कि हे मानव ! तू यग्यशील अर्थात प्रतिदिन दो काल यग्य करने वालों को अपना साथी बना, तू उत्तम ग्यानी को ही अपना मित्र बना । जब तूं एसे लोगों के सम्पर्क में रहे गा तो तूं भी यज्ञशील बनेगा , ग्यानी बनेगा , वेदवाणियों का गायन करने वाला बनेगा , पवित्र बनेगा । इस प्रकार धीरे धीरे उपर उटते हुए , उन्नति करते हुए तू उत्थान को प्राप्त करने में सफ़ल होगा । जीवन की सिद्दियों को पाने में सफ़ल होगा ।

जो सत्संग के वातावरण में रहता है , वह व्यक्ति पापाचार से सदा दूर रहता है । जब पापों से दूर हो जावेंगे तो स्वयमेव ही हित साधक , पुण्य के तथा पवित्र कार्यों में ही लगेंगे । यह कार्य सत्संग ही करता है , जिस के कार्ण हम्पाप से मुक्त हो कर सर्व हितकारि कार्य करते हैं । वेद के इस मन्त्र के माध्यम से यह प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभु ! एसी दया करो कि हमारे सब मित्र , सम्बन्धी आदि सत्संग करए हुए उत्तम तथा पवित्र मनों वाले हों । पवित्र बनने के ल;इए इस मन्त्र में तीन उपाय बताये गये हैं :-

(अ) यज्ञमय जीवन :-
हम अपने जीवन को यग्य्मय बनायें । प्रतिदिन यज्ञ करें । सदा यज्ञ कार्यों में लगे रहें ।

(आ) प्रभु की उपासना :-
पवित्र बनने के लिए हमें प्रभु की निकटता चाहिये । अत; सदा प्रभु की उपासना करें । अपना आसन प्रभु के समीप लगावें ।

(ई) ज्ञानियों व यज्ञीय व्यक्तियों के सम्पर्क में रहें :-

प्रभु कहते हैं कि जब हम ग्यानी लोगों का , विद्वान लोगों के सम्पर्क में रहते हैं । जब हम नित्य प्रति यग्य करने वाले , परोपकारियों के सम्पर्क में रहते हैं , तो उन के से गुण अपने आप ही हममें आने लगते हैं । अत: इस प्रकार के उपायों को व्यवहार में लाने वाले व्यक्तियों से परमपिता कह रहे हैं कि वास्तव में तू ने वेदवाणी का उत्तम प्रकार से दूहन किया है । इन वाणियों का अच्छी प्रकार से प्रयोग किया है । इस का टीक से सदुपयोग किया है । इन के प्रयोग से , इन के दूहन के कारण ही उन्नति पथ पर बटते हुए , उपर उटते हुए परमेष्टी को प्राप्त किया है । इतना ही नहीं यग्यशील बनकर तूने सब का पालन किया है , यग्यशील बनकर तूंने सब के कष्टों को दूर किया है , सब को निरोग किया है , इस कारण तू प्रजापति भी बन गया है ।

डा. अशोक आर्य

Veda secreats for Happy Family, पारिवारिक सुख के लिए वेद 


ऋग्वेद का अंतिम सूक्त संगठन सूक्त के रूपा में जाना गया है | इस सूक्त का एक मन्त्र है :


संगच्छध्वंसंवदध्वंसंवोमनांसिजानताम्।
देवाभागंयथापूर्वेसंजानानाउपासते॥ ऋ010.191.2


इस मन्त्र में परिवार का दृश्य स्पष्ट किया गया है | परिवार के सुख उपदेश करते हुए कह रहा है संगच्छध्वं अर्थात हम साथ साथ चले | जिस परिवार के सब सदस्य एक साथ चलें ,वह उन्नति कि और सदा अग्रसर रहता है किन्तु तब जब संवदध्वं अर्थात न केवल साथ साथ ही चलते हों बल्कि एक जैसा या एक स्वर से बोलते भी हों | मन्त्र आगे उपदेश करता है कि साथ चलने और एक जैसा ओलाने के अतिरिक्त परिवार के सुख के लिए मन्त्र बताता है कि संवोमनांसिजानताम् अर्थात सब के मन भी एक जैसे हों | सब एक जैसा बोलते हों, एक जैसा सोचते हों , एक जैसा विचार करते हों |


जिस परिवार में इस प्रकार के विचार होंगे , सब एक दुसरे का आदर सत्कार करेंगे , वहां निश्चय ही सब प्रकार के सुख होंगे अन्यथा परिवार में सुख आ ही नहीं सकता | सदा लड़ाई झगडा कलह क्लेश का वाता वरण बना रहेगा | इस अवस्था में परिवार के सब सदस्यों पर अनेक प्रकार के रोगों के आक्रमण होंगे | इस सब से बचने के लिए इस मन्त्र पर आचरण करें | अपने अहं को भुला करके बलिदान कि भावना से प्रत्येक सदस्य का आदर सत्कार करोगे तो परिवार में सब सुखों के साथ ही साथ सब प्रकार के धन ऐश्वर्यों की वर्षा होगी, परिवार को स्वर्गिक आनंद मिलेगा तथा परिवार का यश व कीर्ति दूर दूर तक जावेगी |

- अशोक आर्य

Past life of Maharshi Dayananda.ऋषि दयानंद के पूर्व जन्म की झलक झांकी

ऋषि दयानंद के पूर्व जन्म की झलक झांकी और दयानंद-जन्म का प्रयोजन

महर्षि दयानंद अपने पूर्व जन्म में ऋषि शमीक के नाम से प्रसिद्ध थे, इनकी माता का नाम
सोमवती था जो महर्षि कोलसती की पत्नी थी। उसने अपने जीवन मे सोचा कि मेरा पुत्र देवयान मे विचरने वाला हो। पुत्र उत्पन्न होने के पश्चात् माता ने सोचा कि मैं तो अपने बालक को अटूटी नाम से उच्चारण करूंगी। जिसकी आत्मा मे अटूट धारणा हो।

देवताओ के लिए अपने पुत्र को अर्पण करती हूँ। उस समय उस बालक ने माता के महान् आदेशो का पालन करके, ब्रह्मचारी बन करके देवयान का प्रयत्न किया। धारणा, ध्यान, समाधियो मे संलग्न होकर उस अन्तरिक्ष को और तीनो प्रकार की वायु (1) सोमहिती (2) मध्यान और (3) इन्द्र वायु मे विचरने वाले बने।

माता ने उसको आदेश दिया था कि यह देव की अमूल्य निधि है। हे पुत्र! यह प्राप्त हो जाए तू इसको ऊँचा बनाना। उसने इस अमूल्य निधि को जान कर देवयान मे रमण किया। उसी ने इस कलियुग मे आकर माता के गर्भ मे जन्म लिया और जन्म पा करके संसार को ऊँचा बनाने का प्रयत्न किया।

शमीक से दयानन्द

उन्ही  शमीक ऋषि की आत्मा ने यहाँ पुनः आकर जन्म लिया। यह वह महान् विभूति आत्मा थी जिसे प्यार और स्नेह मे आकर उसकी माता अटूटी नाम से उच्चारण किया करती थी। उसी शमीक ऋषि की पवित्र आत्मा ने पुनः से जन्म लकेर लोककल्याणार्थ अपने जीवन को न्यौछावर किया और ‘‘दयानन्द’’ कहलाये  

इस संसार मे जन्म लेकर ही उनका नाम मूल रूप मे रखा गया ‘मूलशंकर’। इस मूल ने सबसे पूर्व मूल वेद को ही लिया उनके हृदय की वेदना यही थी कि मानव को मानवता के क्षेत्र मे आ करके मानववाद को लाने मे संलग्न हो जाना चाहिए।  

राष्ट्र के प्रति उनमे यह वेदना थी कि जब वह पाश्चात्य शासको से वार्ता करते तो स्पष्ट घोषणा करते थे कि मुझे दूसरे देश का शासक सुन्दर प्रतीत नहीं होता।  दूसरी वेदना उनके हृदय मे थी कि राष्ट्र मे चरित्रवाद को लाना है। इसके लिए ब्रह्मचारियो तथा ब्रह्मचारिणियो के लिए भिन्न-भिन्न विद्यालय होने चाहिएं। जिससे दोनो पवित्रता मे ओत-प्रोत हो जावे।उनकी शिक्षा पद्धति अरण्य, उपनिषद, शतपथ आदि की होगी जिससे हमारी प्राचीन ऋषि-मुनियो की पद्धति पुनः से आकर ऊँचा संसार बन सके।

वे कहते थे - जहाँ कन्याओ का आदर न होकर उन्हे कुदृष्टि से देखा जाता है। उनके दूषित विचार गहृ को दूषित किया करते हैं। राष्ट्र मे वे ही भ्रष्टाचार के अंकुर बन जाते हैं।  यह संसार स्वार्थियो और दुराचारियो का नहीं रहना चाहिए। जब राष्ट्र मे स्वार्थवादियो का साम्राज्य हो जाता है तो वह विनाश के मार्ग की ओर भ्रष्टाचार की धारा मे परिणत हो जाता है।

आज जो विज्ञान पाश्चात्य देशो से आया है वह सब हमारे दर्शन शास्त्रो मे है। जैसे पतंजली के सिद्धान्तो मे पूर्णतया मौलिकता है।   

निर्लिप्त  दयानन्द

ऋषि दयानन्द की महत्ता इतनी विचित्र थी कि उन्हे अनेको द्रव्य की लोलुपता दी जाती, किन्तु वे कहा करते कि ये मुझे नहीं चाहिए। मुझे इनकी इच्छा नहीं, मुझे इच्छा है अपने राष्ट्र की, अपने समाज की। मेरी पवित्र माताएं अपने कर्तव्य  का पालन करे, वेद के अनुयायी बने, वेद के प्रकाश को जाने,वेद की मर्मज्ञानी बने।

दयानन्द जी ने कहा कि मैं ऐसे राष्ट्रपिता के राष्ट्र मे हूँ जहाँ मुझे कोई प्रलोभन नहीं व्याप सकता। प्रलोभन उसको व्यापता है जो प्रभु को अपने से दूर कर देता है। उनका जीवन, विचारधारा, ब्रह्मचर्य तथा तप बड़ा विचित्र था।  दयानन्द जी ने यथार्थ क्रान्ति को लाने का प्रयत्न किया। उस यथार्थ क्रान्ति का परिणाम यह हुआ कि इस राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र वाले छोड़कर चले गए।

राष्ट्र सुधारक दयानन्द

महर्षि दयानन्द ने एक विचार दिया था कि राष्ट्र मे अराजकता नहीं होनी चाहिए।  सब प्रजा को सुगठित विचार बनाने चाहिएं। आर्यों का एक समाज होना चाहिए तथा उनके सुगठित विचार होने चाहिएं, उन्हे वाद-विवाद से रहित होना चाहिए। दयानन्द के पुजारी बनने के लिए यह आवश्यक है कि वह घृणा न करे, क्योंकी  घृणा से मानव जीवन का विनाश होता है।

विद्या प्रसारक दयानन्द

महर्षि दयानन्द ने कहा था कि बुद्धि के अनुसार संसार की प्रत्येक विद्या को अपमाने का प्रयास करो। उसी को अपनाना हमारा धर्म और मानवता कहलाती है। वह वेद की प्रतिभा, जो अन्तःकरण की प्रेरणा है, उसी के आधार पर अपने कार्य को करते चले जाओ।  

दयानंद के मार्ग पर

महात्मा दयानन्द ने केवल वेद की प्रतिभा के लिए अपने जीवन की आहुति प्रदान कर दी। ईश्वर की प्रेरणा के आधार पर जिनका हृदय और मस्तिष्क मानसिक वेदना से परिणत होते हैं, उसका मरण हो जाता है, वे संसार के प्रलोभन मे नहीं आते। सदैव संसार के द्रव्यवाद से उनका जीवन ऊँचा होता है, विशाल होता है, महत्ता वाला होता है।

इसलिए हमे उनके पदचिन्हो पर चलना चाहिए, उनकी धाराओ को अपनाना चाहिए।   महात्मा दयानन्द ने अपने विचार यथार्थ दिए हे । परन्तु उनके मानने वाल तो ऐसे अबुध मार्ग तथा ऐसे स्वार्थ मे परिणत हो गए कि उनमे न द्रव्य का त्याग है, न जीवन का त्याग है। जिस बात के लिए उन्होने अपना बलिदान किया, अपने जीवन की धारा को त्याग दिया। अरे! केवल वाणी से उच्चारण करने से संसार ऊँचा नहीं बनता या धर्म और वेद ऊँचा नहीं बनता। वेद उस कर्म से ऊँचा बनता है, जब मानव अपने जीवन को क्रियात्मक बनाता है, महान् बनाता है।  

आहार के सन्म्बन्ध मे दयानन्द  

ऋषि दयानन्द ने कहा कि जहाँ प्राणी को अन्न प्राप्त नहीं होता, जहाँ केवल मांस ही मांस है वहाँ प्राणियो को नहीं रहना चाहिए। उनका कितना ऊँचा आदेश था। आज उनका जो अनुयायी समाज है, यह यज्ञवेदी पर विराजमान होता है। परन्तु संकल्प मे बद्ध रहता है पर गहृो मे नाना प्रकार के गर्भों (अण्डो) को पान करता है। कहाँ है वह ऋषि का विचार?

पिछल जन्मो का इतिहास  
दयानन्द के तेरह जन्मो की तपस्या के परिणाम से आज समाज कुछ उत्थान की ओर चला है।  इस आत्मा का इससे पूर्व का जन्म शमीक ऋषि का था। उससे पूर्व कोकोतु ऋषि, उससे पूर्व सोमपान, उससे पूर्व कुर्केतु था।

दयानन्द की महत्ता

महाभारत के पश्चात् जितनी महान् आत्माएँ संसार मे उत्पन्न हुई उनमे दयानन्द तथा शंकराचार्य की महानता जैसी कोई और हो इसका कोई प्रमाण नहीं। किन्तु शंकर के अनुयायी तो ब्रह्म बनकर यह समझ बैठे हैं कि अब उनको करने को कुछ शेष नहीं। वास्तव मे संसार मे कार्य करने के लिए तो तब तक रहता है जब तक मानव संसार मे अन्न ग्रहण करता है, जब तक कार्य करता रहता है जब तक ब्रह्म की स्थिति नहीं आती। दयानन्द के मानने वाले इतने लालायिता हो गए हैं कि ऋषि के आदर्शों को त्यागकर केवल कटुता मे रह गए हैं, उदारता को उन्होने त्याग दिया है।

ऋषि दयानंद और हम

दयानन्द के विचारो को पूर्ण करने वाल आर्य होते हैं। आर्य श्रेष्ठ होते हैं, उनका कार्य है प्रकाश देना। जहाँ प्रकाश होता है वहाँ अन्धकार नहीं होता, वहाँ विवेक होता है, यथार्थता होती है। उस यथार्थता को लेकर वह भ्रमण करता है और संसार को सुगन्धि देता है।

दयानन्द कैसे तपस्वी तथा दृढ़संकल्पवादी थे कि जहाँ जाते थे उन पर वज्रो की वर्षा होती थी। उनके अनुयायी आज जहाँ जाते हैं उन पर पुष्पो की वर्षा होती है। किन्तु उनके वज्र तो पुष्प बन गए और इनके पुष्प वज्र बनते जा रहे हैं।

एकवाद और त्रैतवाद मे से दयानन्द ने जो शमीक के रूप मे त्रैतवाद का प्रसार किया।

अंत समय ऋषिवर की ईच्छा

ऋषि ने मरते समय अपने शिष्य से कहा था कि हे शिष्य! यदि तुम संसार मे मेरे पथ को ऊँचा बनाना चाहते हो, यह पथ मेरा नहीं है, यह आदि ब्रह्मा से लकेर जैमिनी तक का यह उद्देश्य है कि यथार्थता और वेद को अपनाते चले जाओ।

मैं तो चला हूँ, जैसी प्रभु की इच्छा है उतना ही कार्य प्रभु ने मुझसे लिया है। अब मैं अपने शरीर को त्याग रहा हूँ। परन्तु मेरी जो भूमिका है, मेरा जो विचार है वह सार्वभौम विचार होना चाहिए, वह विचार संकीर्णता मे नहीं रहना चाहिए। आज स्वार्थी प्राणियो ने उनके विचारो को संकीर्ण बना दिया है, उनके विचार मे अब इतना बल नहीं रहा है कि वे याज्ञिक बन सकें। क्योंकि धर्म शब्द तो व्यापक है, वह कदापि नष्ट नहीं होगा, ऋषि का वाक्य ज्यो का त्यो रहेगा। वह सदैव वायुमण्डल मे रमण करता रहेगा, उनके विचार वायुमण्डल मे क्रान्ति करते रहेंगे परन्तु तुम अक्रान्ति, रूढ़िवादी बन करके अपने मानवत्व और उस पथ को त्याग चुके हो, जो पथ वास्तव मे आज के दिवस शरीर को त्यागकर जाने वाल का था, वह तो यहाँ से चला गया।

दयानन्द ने मरते समय कहा था, ‘परमात्मा की इतनी अनुपम कृपा थी जो इतने समय तक जीवित रह सका। अब मैं मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ। मेरी एक इच्छा थी कि शिक्षालयो मे, ब्रह्मचारियो मे, ब्रह्मचारिणियो मे और राष्ट्र मे अरण्यको और ब्राह्मणो का प्रसार हो।’

- महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज के प्रवचनों से साभार 

Maharshi Yagyavallakya was a true scientist of both the worlds.

महर्षि याज्ञवलक्य की अन्तर्जगत के साथ साथ विज्ञान जगत में भी थी महान पकड़।

महर्षि याज्ञवल्क्य जहाँ ब्रह्म विचारक तथा ब्रह्मवेत्ता थे, वहाँ उनकी विज्ञानशाला मे लोको की उड़ान उड़ी जाती थी। एक बार ब्रह्मचारी कवन्धी तथा गार्गी मे वाद उत्पन्न हुआ कि वह आकाश गंगा क्या है? बात का निपटारा न होने पर दोनो ने मध्यरात्रि मे याज्ञवल्क्य मुनि के शयन कक्ष मे  प्रवेश किया और उन्हे जागरूक करके अपने वाद को प्रस्तुत करते हुए कहा कि वेदमन्त्र मे आ रहा था कि यह आकाश-गंगा लोको का क्षेत्र है, क्या यह सत्य है? याज्ञवल्क्य ने कहा कि हे ब्रह्मचारी! तुम मेरे यहां अध्ययन करते हो। तुम्हे यह प्रतीत है कि विद्यालय मे जहां यज्ञशाला है वहाँ वैद्यशाला है और वहीं विज्ञानशाल है। इस विज्ञानशाला मे यह यन्त्र विद्यमान हैं। इन यन्त्रो से दृष्टिपात करो। वह इन दोनो को प्रत्यक्ष दृष्टिपात कराने लगे। उन यन्त्रो मे आकाश गंगाएं दृष्टिपात आने लगीं।

उन्होने कहा कि हे ब्रह्मचारियो! तुम्हे मालूम  है कि जब मैं एक आकाश गंगा मे पहुँचा तो उसके सूर्यों की गणना करने लगा। मैंने जब 3 खरब 5 करोड़ 500 सूर्यों की गणना की तो उसके पश्चात् मैंने ध्रुव-मण्डलों की गणना की। जब मैंने 2 अरब के लगभग ध्रुव-मण्डालों की आकाश-गंगा मे गणना कर ली तो ज्येष्ठाय नक्षत्र मे पहुँच गया। जब ज्येष्ठाय नक्षत्रो की गणना करने लगा तो जब एक अरब ज्येष्ठाय नक्षत्रो की एक आकाश-गंगा मे गणना कर ली तो मौन हो गया और कहा कि यह तो परमात्मा का अनन्त मण्डल है।

जैसे परमात्मा अनन्त है वैसे उसका ब्रह्माण्ड, उसका स्वरूप भी अनन्त है। आगे उन्होंने कहा कि हे ब्रह्मचारियो! एक आकाश गंगा की गणना करने के पश्चात् मैंने आगे उड़ान उड़ी तो द्वितीय आकाश गंगा दिखने लगी। मैंने 272 आकाशगंगाएँ अपने यन्त्रो के द्वारा देख ली।   

यह सुनकर दोनो ब्रह्मचारी मौन हो गए। मौन हो करके उन्होंने  आगे कहा कि यह तो अनन्त मण्डल है। परन्तु अब क्या किया जाए।

तब याज्ञवल्क्य ने कहा कि हे ब्रह्मचारियो! यह मानव की परमाणुवाद की उड़ान है। यह हमारे यहाँ परमात्मा से उड़ी जाती है। यह तो विज्ञान का विशाल क्षेत्र है, परमात्मा की कृति वाला क्षेत्र है। यदि इसमे प्राणी को अभिमान हो तो अणुवाद के ही सहारे रमण करता हुआ यह लोको को प्राप्त हो जाता है। परन्तु इसमे अभिमान की मात्रा प्रायः आ जाती है।

क्योंकी यह अणुवाद का क्षेत्र प्रकृति का क्षेत्र है। जब हम इसके ऊपर अध्ययन करने लगते हैं, तो वेद का मन्त्र कहता है कि प्रत्येक मानव को तपस्वी बनना चाहिए। अब एक स्थान मे तो विज्ञानवाद है, यन्त्रवाद है, चित्रवाद है, शब्दो के साथ मे  चित्रो की उड़ान है और एक स्थान मे वेद का ऋषि कहता है कि हृदय को तपाना चाहिए। जितना हृदय तपा हुआ होगा उतना ही मानव के जीवन मे  प्रकाश होगा।

आगे ऋषि कहता है कि-वास्तव मे विशाल विज्ञान से गूंथा हुआ जो वैदिक विचार है, उसको मानव को अपनाना चाहिए। मानव को अपने मे धारण करते हुए, इस संसार से पार हो जाना चाहिए। यह मानव का कर्तव्य  कहलाया गया है। इसी विज्ञान को विचार-विनिमय करते हुए प्रत्येक मानव यहाँ कर्तव्य पालन करने के लिए आता है। तपस्या मे जाना ही मानव का कर्तव्य है। तप यह है कि प्रत्येक वस्तु मानव की सीमा मे बद्ध रहनी चाहिए।

 महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार 

Who were Ashvini Kumar. अश्विनी कुमार का जीवन परिचय - महर्षि कृष्णदत्त जी की वाणी में

अश्विनी कुमार  का जीवन परिचय - महर्षि कृष्णदत्त जी की वाणी में

अश्विनी कुमार महान् वैद्यराज थे। ये दोनो भाई माता सोमलता तथा पिता शोगेमिक ऋषि के पुत्र थे। एक का नाम अश्विनी तथा दूसरे का नाम कुमार था। सोमलता के पिता शृंगी ऋषि थे। सोमलता ने अपने पिता से आयुर्वेद  का अध्ययन किया था। उसने यहाँ तक अनुसन्धान किया था कि कौन-कौन से मास मे कौन-कौन सी औषधियो का पान करने से बालक का कौन-कौन सा अंग बलवान होता है। वास्तव मे प्रत्येक माता को आयुर्वेद की विदूषी होना चाहिए।

जिस समय अश्विनी कुमार गर्भ मे थे तो उसने अपने अनुसन्धानो के आधार पर ही चलकर इनको विकसित किया था। इन दोनो का जन्म एक साथ ही हुआ था। माता के अनुसन्धान के अनुसार प्रथम मास मे परमात्मा पाक-घृत को बना देता है। प्रथम महीने से ही गर्भ में बालक का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है तथा चतुर्थ मास मे जरायुज पूर्ण हो जाता है। तथा उसका कार्य समाप्त हो जाता है।

इससे आगे नाना प्रकार की औषधियो, नाना कान्तियो, किरणो तथा ओज के द्वारा बालक गर्भ मे बलवान होता है। छठे मास मे बालक की बुद्धि का निर्माण होता है। उस समय माता ने नाना प्रकार की औषधियो का पान किया। इस प्रकार अश्विनी कुमारो का जन्म हुआ। इन्होंने पठन-पाठन का कार्य महाराजा अश्वपति के राज्य में किया था। ये ही अश्विनी कुमार राजा रावण के यहाँ विराजमान हुए थे। दोनो ने बाल्यकाल मे आयुर्वेद की शिक्षा पाने के पश्चात् दधीचि के आश्रम मे ब्रह्म का उपदेश पान किया। इसके पश्चात् वे यहीं कार्य करने लगे। उनको वैद्यराज की उपाधि दी गई थी। ‘सुधा अमृत वैद्य’ जिसको सुर्धामा भी कहते हैं इन्हीं का शिष्य था।  ये कण्ठ से ऊपर वाले भाग को छः मास तक औषधियो मे स्थिर कर देते थे, वे नाना लपेन भी जानते थे। एक वर्ष तक मानव हृदय को औषधियो  के पात्र में  स्थिर कर देना तथा मानव के शव को औषधियो के द्वारा ज्यो का त्यो बना देना तथा एक वर्ष पश्चात् ज्यो का त्यो हृदय को स्थिर करना वे जानते थे।  

जब अश्विनी कुमार वेद-विद्या मे पारंगत हो गए और नाना प्रकार की औषधियो का पान करने से वे उनके विधान से सुन्दर-सुन्दर रूपो को जानने लगे तो वे इतने प्रकाण्ड आयुर्वेदज्ञ बन गए, और उनकी बुद्धि इतनी तीव्र हो गई मानो उनके समक्ष औषधि स्वयं उच्चारण करने लगती थी ‘कि मैं अमुक रोग की औषधि हूँ।’

एक बार उन्होंने विचार बनाया कि हम ब्रह्मवेता बनेंगे। उन्होने नाना ऋषियो के आश्रम मे भ्रमण करना आरम्भ किया। जब वे शौनक ऋषि के आश्रम मे पहुंच तो उसी समय इन्द्र ने घोषणा कर दी कि जो अश्वनी कुमारो को ब्रह्मविद्या का उपदेश देगा, उसके कण्ठ के ऊपर के भाग को उतार लिया जाएगा। इस घोषणा को सुनकर कोई भी ऋषि उन्हे ब्रह्मविद्या का उपदेश देने के लिए सन्नद्ध न हुआ। भ्रमण करते हुए वे महर्षि दधीचि के आश्रम मे पहुँचे -  ये कामधेनु का दुग्धपान करते थे तथा ब्रह्मवेत्ता बन गए थे। ये वही दधीचि थे जिन्होने अपनी अस्थियो का दान कर दिया था और देवत्व को प्राप्त हो गए थे।

जब अश्विनी कुमारो ने उनसे ब्रह्मविद्या प्राप्त करने की प्रार्थना की तो दधीचि ने भी इन्द्र की घोषणा का सन्दर्भ देकर मना कर दिया। तब अश्विनी कुमारो ने कहा कि हम ऐसा कर सकते हैं कि आपके कण्ठ के ऊपर के भाग को पृथक् करके औषधियो मे सुरक्षित कर दे  और आप इस अश्व के सिर से हमे उपदेश दीजिए। यह सुनकर दधीचि को आश्चर्य हुआ।

अश्विनी कुमारो ने अनेक औषधियां एकत्रित कीं, उनका पात बनाया, उसमे दधीचि के सिर को सुरक्षित रख दिया और उसके स्थान पर अश्व का सिर रख दिया। दधीचि के हृदय से ब्रह्म का उपदेश होने लगा।

यहाँ यह शंका होना स्वाभाविक है कि क्या अश्व के सिर से मानव की वाणी का उच्चारण हो सकता है। इसका समाधान यह है कि अश्विनी कुमार एक अश्वक नाम की औषधि को जानते थे, जिनको मन्थन करके चालीस दिन तक पान करने से मानव अश्व की वाणी को श्रवण करने लगता है।

इस प्रकार जब अश्विनी कुमारो ने अश्व की शिक्षा से इस विद्या को पान कर लिया। इस विद्या को इन्द्र भी जानता था।  जब इन्द्र को प्रतीत हुआ कि अश्विनी कुमार दधीचि के आश्रम मे ब्रह्मविद्या प्राप्त कर रहे हैं तो उसने दधीचि के कण्ठ के ऊपर के भाग को पृथक् कर दिया। उसके चले जाने के पश्चात् अश्विनी कुमारो ने उसके वास्तविक मस्तिष्क को लकेर उसके कण्ठ पर पुनः आयोजित कर दिया। 1-कुक, 2-त्रिगाढ़, 3-रेश्मिन, 4-काचन, 5-सौममुनि, 6-काकाऊनी नाम की छः औषधियो को तपाकर पात बनाया जाता है। जिस मानव का कण्ठ पृथक् हो गया हो, उसको ज्यो का त्यो लगाकर इस पात का लेपन कर देना चाहिए।

यह लपेन के पश्चात् एक ही दिवस मे वह सुरक्षित हो जाता है जब दधीचि ज्यो के त्यो बन गए, तो ब्रह्म का उपदेश प्रवाह के साथ होने लगा। जब इन्द्र को यह प्रतीत हुआ कि अश्विनी कुमारो ने दधीचि को ज्यो  का त्यो कर दिया है और वह तो अश्व का सिर था, तो इन्द्र को बड़ा पश्चाताप हुआ। क्योंकि  वह पुनः उसको नष्ट नहीं कर सकता था। यह अश्विनी कुमारो की आयुवर्दे विद्या का परिचय है।

अश्विनी कुमारो के विषय मे कहा जाता है कि उन्होने  101 वर्ष तक आयुर्वेद पर अनुसन्धान किया था। उन्हे इतना अभ्यास हो गया था कि निन्द्रा मे, स्वप्न मे उन्हे ऐसा प्रतीत होता था जैसे मन औषधियो मे चरने जा रहा हो। जागरूक होने पर मन उन्हे निश्चित करा देता था कि अमुक औषधि, अमुक रोग मे कार्य करती है।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार

Meaning of Vishnu in context to a King.महर्षि वशिष्ठ ने श्री राम को समझाया विष्णु रूप का राष्ट्रिय तत्वदर्शन

महर्षि वशिष्ठ ने श्री राम को समझाया विष्णु रूप का राष्ट्रिय तत्वदर्शन

एक बार वन गमन से पूर्व श्री राम ने महर्षि वशिष्ठ से निवेदन किया की है प्रभु मेरा राष्ट्र रावण जैसे राक्षसों से पीड़ित है इसकी सुरक्षा और राष्ट्र की उन्नति का उपाय कहे।

महर्षि बोले - राम, अगर तुम अपने राष्ट्र को राम राज्य बनाना चाहते हो तो पहले विष्णु बनों और विष्णुराष्ट्र स्थापना का प्रयत्न करो। श्री राम बोले - प्रभु , विष्णु बनने का अर्थ और विष्णु राष्ट्र का क्या अभिप्राय है।

श्री राम की जिज्ञासा जानकर -तत्वदर्शी ऋषिवर वशिष्ठ जी बोले-
विष्णु कहते ही उसे हैं जिस राजा के राष्ट्र मे विज्ञान पराकाष्ठा पर हो, जहाँ वैज्ञानिक पुरुष हो और वे वैज्ञानिक पुरुष अनुसन्धान करने वाले हो।

हे राम, विष्णु का वहां गरुड़ है , इसका वैदिक अर्थ सुनो -
हे राम,  गरुड़ इत्यादि के रूप मे प्रायः वैज्ञानिको का वर्णन आता रहता है। (1) गरुड़ नाम का पक्षी भी होता है, (2) परन्तु गरुड़ यहाँ वैदिक परम्परा मे मन को कहा गया है। (3) गरुड़ अनुसन्धान करने वाल वैज्ञानिको को कहा जाता है। उस विज्ञान पर विराजमान होकर जो लोक-लोकान्तरो की उड़ान उड़ने वाला राजा हो उन्हे विष्णु कहा जाता है।

विष्णु के दो गणों के अर्थ :

सनातन सत्य की प्रज्ञा से ओतप्रोत महर्षि वशिष्ठ प्रभु राम से आगे बोले।

विष्णु के जय-विजय दो गण हैं। जब हम राष्ट्रीय बनकर दूसरे राष्ट्रो को विजय करना चाहते हैं तो उस समय हम जय और विजय दोनो को अपने समीप रखते हैं। राजा जब दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण करता हुआ जय विजय की घोषणा करता है, वह विष्णु बन जाता है।

ऐसा राजा विष्णु बन करके रुद्र रूप (न्यायकारी और दुष्टों को दण्डित करने वाला रूप)  धारण करके अपने राष्ट्र को उत्तम बनाता है, उसे महत्ता मे लाता है ताकि राष्ट्र की प्रतिष्ठा समाप्त न हो जाए। राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाला जो चालक होता है, संचालक होता है, वह जानता है कि विष्णु की कितनी महत्ता मानी गयी है। जो राजा विष्णु बनकर रुद्र रूप को धारण नहीं कर सकता, उस विष्णु की आभा को नहीं जान सकता, वह राजा नहीं कहलाता।

जब वह उसको क्रियात्मक बनाने का प्रयास करता है तो उसका जीवन एक महत्ता में परिणत हो जाता है। जो राजा विष्णु नहीं बन सकता, अपने राष्ट्र की प्रतिष्ठा को ऊँचा नहीं बना सकता, तो उत्तम ब्राह्मण समाज को चाहिये कि उस राजा को राष्ट्र से दूर कर दे जो ज्ञानी और विवेकी न हो।

चतुर्भुज विष्णु का राष्ट्रिय स्वरुप

पद्म

वशिष्ठ आगे बोले हे राम! सुनो- सर्व प्रथम तुम्हारे भुजाओ मे एक पद्म होना चाहिए। पद्म नाम सदाचार और शिष्टाचार का है। जिस राजा के राष्ट्र मे सदाचार और शिष्टाचार होता है उस राजा का राष्ट्र पवित्र कहलाता है।

जिस राजा के राष्ट्र मे सदाचार नहीं होता, हृदय मे एक-दूसरे का सम्मान नहीं होता, तो जानो कि वह राष्ट्र आज नहीं तो कल अवश्य समाप्त हो जायेगा।  हे राम! यदि तुम अपने राष्ट्र को पवित्र बनाना चाहते हो तो अनिवार्य है कि तुम्हारे एक भुजा मे पद्म होना चाहिए। राजा के राष्ट्र मे  यथार्थ-विद्या होनी चाहिए। जिस विद्या मे सदाचार और शिष्टाचार की तरंगे हो, वही  विद्या सवार्तेम मानी जाती है, वह विद्या राज्य को सफल बना देती है।

हे राम! यह पद्म तुम्हे ऊँचे से ऊँचा बना सकता है। तुम संसार पर शासन कर सकते हो। यदि सदाचार और शिष्टाचार नहीं तो तुम्हारा राष्ट्र राम-राज्य कदापि न बनेगा।

गदा

द्वितीय, तुम्हारे दूसरे हाथ में  ‘गदा’ होनी चाहिए। गदा नाम है क्षत्रियो का। राजा के राष्ट्र मे बलवान क्षत्रिय होने चाहिएं। उन्हे अपनी आत्मा का ज्ञान होना चाहिए। ब्रह्मचर्य उनके द्वारा पुष्ट होना चाहिए। जिस राजा के राष्ट्र मे अपराधियो को दण्ड दिया जाता है वह राष्ट्र सदैव राम-राज्य बनकर रहता है और जिस राजा के राज्य मे अपराधियो को दण्ड नहीं मिलता, उस राजा का राष्ट्र आज नहीं तो कल अवश्य नष्ट हो जायेगा। हे राम! तुम्हे  ‘गदा’ को स्थिर करना है, अपराधी को दण्ड देना है; दुराचार को नहीं रहने देना है। उस काल मे तुम्हारा राष्ट्र राम-राज्य कहलायेगा। हे राम! तुम्हारे राष्ट्र मे गदा और पद्म मुख्य रूप से रहने चाहिएं। यदि तुम्हारे राष्ट्र की कोई वार्ता किसी दूसरे राष्ट्र मे पहुँच जाती है तो जानो कि राष्ट्र के क्षत्रिय ऊँचे नहीं हैं। जिस राष्ट्र मे गदा होती है उस राजा का राष्ट्र पवित्र होता है।

चक्र

तृतीय ‘चक्र’ होना चाहिए। ‘चक्र’ नाम संस्कृति का है। जिस राजा के राष्ट्र मे संस्कृति होती है, उसके राष्ट्र मे चक्र होता है। संस्कृति वह अमूल्य वाणी है जो मानव को सदाचार और शिष्टाचार देने वाली है। संस्कृति कौन सी वाणी को कहते हैं? संस्कृति राष्ट्र से लेकर कृषि मे,व्यापार मे,धनुर्विद्या मे, और नाना प्रकार के यन्त्रो का आविष्कार करने मे,सदाचार मे, ब्रह्मचर्य की सुरक्षा करने मे और अपनी आत्मा की उन्नति करने मे और परमात्मा तक पहुंचने में  प्रयुक्त होने वाला ज्ञान जिस वाणी मे ओत-प्रोत हो उस वाणी का नाम हमारे यहाँ संस्कृति है। हे राम! इसको आज तुम्हे  विचारना है। यदि तुम्हे अपने राष्ट्र को राम-राज्य बनाना है तो संसार में चक्र फैलाओ।

शंख

इन सबके पश्चात् राम ने प्रश्न किया कि भगवन्! मुझे शंख का निर्णय और करा दीजिए। मैं इस शंख को जानना चाहता हूँ। ऋषि बोले-शंख नाम वेद-ध्वनि का है। जिस राजा के राष्ट्र मे वेद ध्वनि होती है और वह भी जटा-पाठ मे, माला-पाठ मे, घन-पाठ मे, विसर्ग पाठ मे, विदानद-पाठ मे और भी नाना प्रकार के स्वरो में जहाँ भी वेदो का पाठ गाया जाता है उस राष्ट्र में अन्तरिक्ष भी वेद-मन्त्रो के पाठ से आच्छादित रहता है। जिस राजा के राष्ट्र मे सदाचार की शिक्षाएँ, वेद की शिक्षाएँ दी जाती हैं वहाँ का वातावरण भी उत्तम होता है। मनुष्य की विचारधाराएँ ऊँची होती हैं। सदाचार और शिष्टाचार रहता है। हे राम! आज शंख-ध्वनि का प्रश्न किया है। शंख-ध्वनि नाम वेद-ध्वनि का है, ज्ञान का है। हे राम! जिस राजा के राष्ट्र मे यज्ञ होते हैं और यज्ञों मे वेदो का पाठ होता है, उस राष्ट्र मे कार्य करने वाल देवता भी प्रसन्न होते हैं और प्रसन्न होकर उस राजा के राष्ट्र को और प्रजा को और राजा को मनवांछित फल देते हैं। हे राम! तुम्हे अपने राष्ट्र को ऊँचा बनाना है तो तुम्हे विष्णु बनना पड़ेगा ।   

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार

Theory of Nation's ideal: महाराजा ज्ञानश्रुति तथा महर्षि भारद्वाज संवाद

भारद्वाज-हे ब्रह्मज्ञानी राजन्! मैं यह जानना चाहता हूँ कि राष्ट्र का प्राण क्या है?  
ज्ञानश्रुति-भगवन्! राष्ट्र का प्राण ईश्वरवाद है।  

भारद्वाज-राष्ट्र की क्रान्ति क्या है?
ज्ञानश्रुति-राष्ट्र की क्रान्ति मानव मे वे मानवीय विचार हैं जो राष्ट्रीय-क्रान्ति लाते हैं। अपना-अपना अधिकार पाने के लिए महान् क्रान्ति हुआ करती है।  

भारद्वाज-राष्ट्र की शान्ति क्या है?  
ज्ञानश्रुति-राष्ट्र की शान्ति है राजा के राष्ट्र मे यज्ञ-कर्म होना। यज्ञादि कर्मों का होना ही राष्ट्र मे शान्ति मानी गयी है। इस प्रकार राष्ट्र का प्राण ईश्वरवाद है; शान्ति यज्ञ है तथा क्रान्ति मानव का कर्तव्य है। इसलिए मानव मे ईश्वरवाद होगा तो कर्तव्य होगा, कर्तव्य होगा तो यज्ञ होगा, यज्ञ होगा तो मानव को राष्ट्र मे सुख होगा, शान्ति होगी और महत्ता की जिज्ञासा सदैव मानव के हृदय मे प्रदीप्त होती रहेगी।  

भारद्वाज-राष्ट्र का भूषण(गहना) क्या है?  
ज्ञानश्रुति-राष्ट्र का भूषण राष्ट्र का चरित्र है। राजा के राष्ट्र में जितना चरित्र होगा, उतना ही राष्ट्र पवित्र होगा। अतः राष्ट्र मे चरित्र होना चाहिए।  

भारद्वाज-हे राजन्! आप राजा हैं,अधिराज हैं, राजा के राष्ट्र में वसुन्धरा क्या है?
ज्ञानश्रुति-हे ऋषिवर! राष्ट्र की वसुन्धरा मानव की प्रतिभा है। मानव की प्रतिभा मे जो ज्ञान-विज्ञान है, यही राष्ट्र की वसुन्धरा है। वसुन्धरा का अभिप्राय है जिसमे हम बसते हैं। अतः राष्ट्र की प्रतिभा ही मानवता मे परिणत रहने वाली है। इसीलिए हमारे यहाँ उसे राष्ट्र की प्रतिभा को स्वीकार किया गया है।  

भारद्वाज-क्या आप इसका विश्लेषण जानते हैं?
ज्ञानश्रुति-हे भगवन्! राजा के राष्ट्र मे जितना चरित्रवाद होगा। एक मानव दूसरे का विश्वासी होगा; एक नारी राष्ट्र के एक भाग से दूसरे भाग तक जाने पर उसको माता तथा भौजाई के अतिरिक्त अन्य दृष्टि से कोई न देखे, यह चरित्र है। दूसरी मीमांसा चरित्र की यह है कि राष्ट्र मे द्रव्य का सामान्य दृष्टि से व्यापकता के साथ सन्तुलित वितरण होना। इससे राष्ट्र मे सच्चरित्रता होती है। दूसरे के अधिकार को जो मानव हनन करता है वह भी अचरित्रवान व्यक्ति माना जाता है। इसलिए राष्ट्र मे सर्वत्र समान विभाजित वस्तुएं होनी चाहिए।

भारद्वाज-कर्तव्य  किसे कहते हैं?  
ज्ञानश्रुति-जो मानव अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ अपने अधिकार पर निर्भय रहता है, वह कर्तव्यवादी है, वह अपने जीवन की प्रतिभा मे  कटिबद्ध रहता है, उसमे मानवता एक महत्ता होती है, उसी से वह अपने जीवन को स्वराष्ट्र बना लेता है।

भारद्वाज-राजा के राष्ट्र की क्रान्ति क्या है?
ज्ञानश्रुति-क्रान्ति उसे कहते हैं जो मानव अपने कर्तव्य का पालन करने के पश्चात अधिकार को स्वीकार करता है तथा अपने अधिकार मे ही सन्तुष्ट रहता है। जो दूसरो के अधिकार को छीनने का प्रयास करता है, उस समय राष्ट्र मे अजीर्ण हो जाता है। जहाँ अजीर्ण होता है, वहां क्रान्ति नहीं होती। वहाँ मानव एक-दूसरे के रक्त का पिपासु बन जाता है। अतः अपने अधिकार से सन्तुष्ट रहने को क्रान्ति  कहते हैं, तथा दूसरे के अधिकार को छीनने का प्रयास करने वाल को दण्डित करना चाहिए, क्योंिक यह प्रवृत्ति रक्तभरी क्रांति को जन्म देती है।

भारद्वाज-राष्ट्र मे पवित्रवाद, मानवता तथा महत्ता को वसुन्धरा कहते हैं, इस वसुन्धरा की मीमांसा क्या है?  
ज्ञानश्रुति-हे ऋषिवर! राष्ट्र मे इस प्रकार के वैज्ञानिक होने चाहिएं जो खाद्य और खनिज-पदार्थों के जानने वाल हो। जहाँ खाद्य और खनिज-पदार्थों पर अनुसन्धान होता रहता है वहाँ पर पवित्रवाद होता रहता है। माता वसुन्धरा या प्रकृति के गर्भ मे क्या नहीं होता। राष्ट्र मे  खाद्य-पदार्थ अधिक होने चाहिएं। ये तभी होंगे जब अनुसन्धान करने वाल व्यक्ति हो,एवं जो बुद्धि के विशेषज्ञ हो।  जब वे माता के गर्भ मे अनुसन्धान करने को कटिबद्ध होते हैं तो गर्भ मे नाना प्रकार की धातुओ को तथा खनिजो को जानकर, उनसे नाना प्रकार के यन्त्रो को बनाकर दूसरे लोको मे  भ्रमण करते हैं।

जब इस प्रकार ऊँचे-ऊँचे विभाग राष्ट्र मे होते हैं तो वह पवित्र होता है। यही वसुन्धरा की मीमांसा है। वसुन्धरा नाम माता का भी है। जो माता अपने गर्भस्थल से सुन्दर-सुन्दर पुत्रों को जन्म देती है वह संसार मे पूज्यनीय होती है। वह माता वसुन्धरा वास्तव मे पूज्य है। उसकी मानवता उसका गर्भाशय है। वह उस समय उज्ज्वल होता है जब कृष्ण जैसे महापुरुष तथा कणाद और गौतम जैसे वैज्ञानिक को जन्म देता हुआ उसका गर्भाशय पवित्र होता है।   

भारद्वाज-हे राजन्! आपके राष्ट्र मे जहाँ मानवता के अंकुर होते हैं वहाँ एक धारा होती है, यज्ञ-कर्म होते हैं। आपके राष्ट्र मे यज्ञ-कर्म किसे कहते हैं?  

ज्ञानश्रुति-भगवन्! मेरे राष्ट्र मे नाना प्रकार के संकल्प को जानने वाल तथा अग्नि मे आहुति देने वाल हैं। जब अग्नि मे आहुति दी जाती है तो राष्ट्र सुगन्धमय हो जाता है। विचारो तथा नाना प्रकार की वनस्पतियो की सुगन्धि जिस राजा के राष्ट्र मे होती है, वह राष्ट्र वास्तव में पवित्र होता है। मेरी यही कामना रहती है, तथा इसी को लेकर मैं राष्ट्र का पालन करता हूँ। मेरे राष्ट्र मे ईश्वरवाद की प्रतिभा रहनी चाहिये क्योकि ईश्वरवाद ही राष्ट्र का भूषण है।  

-महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज के प्रवचनों से साभार

Contemplation on the real glory of God.परमात्मा और निज स्वरूप का निदिध्यासन

परमात्मा और निज स्वरूप का निदिध्यासन

परमात्मा के गुणों की प्रतिभा प्राणी मात्र में समाहित हो रही है, चाहे वह तरंगों में प्राण गति करने वाला हो, चाहे वह मानवीय श्वास पर श्वास की प्रतिभा को, चाहे वह नाना प्रकार के वनस्पति विज्ञान में रत रहने वाला हो, उनमें रसों का आदान-प्रदान करने वाला हो।

वह जो अनुपम है जो प्रत्येक के अन्तर्हृदय में विद्यमान रहता है, हम उस परमपिता परमात्मा की महत्ता  जो अनुपम स्वरुप रहने वाला है, यज्ञ उसका आयतन माना गया है मानो विज्ञान उसका गृह और सदन माना गया है, ऐसा जो मेरा प्यार प्रभु है जो इस प्रकार का व्यापक स्वरूप एक अवृत कहलाता है, हम उस परमपिता परमात्मा की महिमा को अपने अंतःकरण में चिन्तन का एक विषय बनाए।
नाना प्रकार का जो चिन्तन करता रहता है,और चिन्तन की जो अनुपम एक शैली है, जो मानव के हृदयों में निहित रहने वाली है।
हे मानव! तू चिन्तनीय आभा को अपनाने का प्रयास कर। क्योंकि तुझे तो संसार में कुछ न कुछ विचारना है यह जो मन है, यह प्रकृति के तन्तुओं को विचारता रहता है।
मानों यह अपने गुणों में जाना चाहता है, क्योंकि जिससे जिस का निर्माण होता है वह उसी को प्राप्त होना चाहता है। जैसे यज्ञशाला में अग्नि विद्यमान है उसका मुख उर्ध्वा  कहलाता क्योंकि उसका जो सखा है, वह द्यौ माना गया है मानो जो उर्ध्वा में वास कर रहा है, जो सूर्य की किरणों से समन्वय रहने वाला है, वह उसी में रत होना चाहता है।

इसी प्रकार जो मानव के शरीर में अन्तरात्मा है, मानो वह भी जब शान्त मुद्रा में मुद्रित होता है और मन को अपने द्वार पर समेट लेते है तो अंतरात्मा से ही प्रेरणा आती है कि यह संसार, संसार नहीं है, यह शरीर काया वाला नहीं है, अकाय है; मैं निरंजन हूँ, मेरी मृत्यु नहीं होती, मैं अपने में शाश्वत हूँ ।

महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार

Connection between Sunrays and Cow. सूर्य की विशिष्ट किरणों और गौ का उनके साथ सम्बन्ध

सूर्य की विशिष्ट किरणों और गौ का उनके साथ सम्बन्ध


हमारे आचार्यों ने गौ नाम के पशु (गाय) की बड़ी प्रशंसा की है वास्तव में प्रत्येक प्राणी की प्रशंसा वैदिक साहित्य में आती रहती है परन्तु देखो विशेष कर हमारे यहा गौ नाम के पशु की बड़ी विशेषता आती रहती है, क्योंकि जैसे प्रत्येक धातुओं का निर्माण वसुन्धरा के गर्भ में होता है, परन्तु एक स्वर्ण धातु का निर्माण होता है। स्वर्ण अपने स्थान पर अद्वितीय धातु मानी जाती है।   


हमारे देश में भिन्न-भिन्न प्रकार के पशु हैं परन्तु गौ नाम के पशु की महान प्रशंसा की है।  उनकी प्रशंसा क्यों की है ?


ऋषि मुनि एक समय अध्ययन करने के लिये तत्पर हो गये क्रियात्मक पशुओं के जीवन में विचारने लगे कि प्रत्येक पशु में कौन-सा विशेष गुण है? और उनके जैव सृष्टि के साथ के संबंधो का अध्ययन करने लगे। इस क्रम में उन्होंने जाना की सूर्य की किरणें ‘‘अस्वानं वन्दे देवोः ब्रम्हा:” सूर्य की किरणों और उनके प्रभावों का अध्ययन करने लगे। अध्ययन के इस क्रम में उन्होंने पाया की  सूर्य की एक वैष्णव नाम की किरण कहलाती है, एक ‘इन्द्रगोतिक’ नाम की किरण कहलाती है, ये भिन्न-भिन्न प्रकार की किरणों का समावेश पृथ्वी पर आता रहता है। सूर्य की किरणों में एक स्वर्ण नाम की विशेष किरण होती है जो स्वर्ण के परमाणुओं को आदान-प्रदान करती रहती है।  सूर्य की एक किरण उर्ध्वगति करती है जिसका नाम सुमेरकेतु है जो कि परमाणुओं में गति का संचार करती है।

उसके सूक्ष्मतम रहस्य को यदि और जानना हैं तो एक अणु के मध्य में देखो उसके अन्तर्गत अरबों-खरबों परमाणु गति करते रहते हैं। जैसे एक ब्रम्हाण्ड के अन्तर्गत नाना पृथ्विया गति करती रहती हैं। इसी प्रकार ‘‘प्रमाणम् ब्रम्ही वृत्ता: ’’ नाम की एक किरण होती है उस किरण का समावेश गौ नाम के पशु पर होता है। जैसे पृथ्वी के गर्भ में वह किरण जाती है, स्वर्ण की धातु का निर्माण करती है,इसी प्रकार जब वही किरण गौ नाम के पशु के रीढ़ के विभाग में जाती है तो गौ के रीढ़ के विभाग में एक स्वर्णकेतु नाम की नाड़ी होती है उस नाड़ी का सम्बन्ध जैसे सूर्य उदय हुआ उसका उर्ध्वमुख हो जाता है।  


सूर्य की किरण को वह नाड़ी अपने में सिंचन करने लगती है अपने में धारण करने लगती है और जब वो धारण करती है तो परमाणु उस गौ नाम के शरीर में प्रवेश करते है।  
उसमें जब उन परमाणुओं का मन्थन होता है वे दुग्ध देते हैं तो उसके दुग्ध में पीत वर्ण होता है, पीत वर्ण का अभिप्राय ये है कि उसमें स्वर्ण की मात्रा विशेष होती है।  


इसी कारण आयुर्वेद आचार्यों ने इस गौ नाम के पशु की बहुत प्रशंसा की है।


हमारे यहाँ परम्परा से ही राजाओं के यहाँ जब कोई ब्रम्हवेत्ता उपदेश देता था तो राजा द्वारा उसे कामधेनु नाम उच्चारण करके उपदेश देने  वाले को गौ-दान दिया जाता था। कि इसके दुग्ध को पान करने से तुम्हारी बुद्धि में महानता आ जायेगी। इस प्रकार का क्रियाकलाप परम्परा से रहा है।


और अब तो कुछ हो समय बाकि है जब संसार का वैज्ञानिक भी यज्ञ कर्म को अपनाने वाला है मुझे अभी-अभी यह प्रतीत हुआ है कि कुछ समय हुआ कि समुद्रों के तट पर वैज्ञानिकों की एक सभा एकत्रित हुई है उन वैज्ञानिकों की सभा में निर्णय हुआ है कि वायु का दूषण हो रहा है यह जो वायुमण्डल दूषित हो रहा है परन्तु इसका यह कछु समय तक चलता रहा तो यह प्राणी श्वास की गति के साथ ही नष्ट हो सकता है।
परन्तु देखो, अब उन वैज्ञानिकों का यह विचार है कि यह जो गौ नामक जो पशु है यह गौ नाम के पशु से उसके घृत में, दुग्ध में इस प्रकार के परमाणु हैं जो अग्नि में परिणत करने से ऐसे परमाणुओं का प्रादुर्भाव हो रहा है यह परमाणु समूह अशुद्ध परमाणुओं को निगलता हुआ शुद्ध वायुमण्डल को उत्पन्न कर सकता है। शुद्धता की प्रसारणता और अशुद्धता को नष्ट करना इन परमाणुओं का कर्तव्य है, यह भी गौ घृत की ही शक्ति का माहात्म्य है।


  • महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार