Make Balance between Rights and Duties : अधिकार की पकड़ और कर्तव्यों की अपेक्षा से पतन

अधिकार की पकड़ और कर्तव्यों की अपेक्षा से पतन

मेरे पूज्यपाद गरुदेव ने कई काल में प्रकट कराया है कि जैसे आजकल जगह जगह नर्तकों का नृत्य हो रहा है, मेरी पुत्रियों (समाज के युवान बालिकाओं) को नृत्य कराने के लिए तत्पर हो गए हैं। परन्तु देखो, वह जो नृत्य का राष्ट्र में व्यवसाय बन गया है और व्यवसाय बनने के कारण मेरी पुत्रियों को नृत्य कराया जा रहा है, उसको फिर देश के अन्य युवान भाई-बहने प्रत्येक देखते है श्रवण करते है परन्तु उससे ब्रम्हचर्य  दूषित हो जाता है और ब्रम्हचर्य के दूषित होने से उसमें आलस्य और प्रमाद आ जाता है और जब आलस्य और प्रमाद आ जाता है तो वहाँ कर्तव्य नहीं रह जाता और जब वहाँ कर्तव्य नहीं रहता, कर्तव्य की भावना नहीं रहती है तो उस काल में क्या होता-रक्तभरी क्रान्ति आती है क्योंकि अधिकार की भावना बलवती हो जाती है, अधिकार (बलपुर्वक पाने या छीनने की भावना) चरम सीमा पर चली जाती है।  वह मनुष्य अधिकार प्राप्त करने को तत्पर है परन्तु कर्म करने के लिए तत्पर नहीं रहा तो ये रक्तभरी क्रान्ति के कारण बनते रहते है। ये आज कोई नवीन सिद्धान्त नहीं है सृष्टि  के प्रारम्भ से समय-समय पर ऐसा ही होता रहा है।

आज मैं ये विचार देने के लिए आया हूँ । वायुमण्डल मुझे पुकार कर कह रहा है। वायुमण्डल ये कहता है कि समाज को मानो देखो, चरित्र को आभा में लाने के लिए प्रत्येक मानव को अपनी मानवीयता के ऊपर महान चिन्तन करना है।

  • महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार