Guru and Disciple Relationship in Vedic Time

  • वैदिक काल में  गुरु शिष्य द्वारा वेदाध्ययन
मेरे पुत्रों! आज मैं तुम्हें एक विद्यालय में ले जाना चाहता हूँ  जिस विद्यालय में ऋषि मुनि और शिष्यगण विद्यमान हो करके एक दूसरे की आभा में परिणत होते रहे हैं। हमारे यहा परम्परा से ऋषि मुनियों का एकान्त स्थलियों में विद्यमान हो करके वेद मन्त्रों के ऊपर विचार विनिमय होता रहा है।

ऋषि मुनियों ने तपस्वी होते हुए, तप करते हुए उग्रता को प्राप्त करते हुए उन्होंने ब्रह्माण्ड और पिण्ड दोनों को एक सूत्र में लाने का प्रयास किया। जो क्रिया-कलाप ब्रह्माण्ड में हो रहा है; वही क्रियाकलाप पिण्ड में भी हो रहा है। जितने देवत्व यह बाह्य जगत में हमें दिखाई देते हैं आन्तरिक जगत में भी इसी प्रकार का होते है।  

आज मैं तुम्हें एक विद्यालय में ले जाना चाहता हूँ ; जिस विद्यालय में ब्रह्मचारी, आचार्यजन पितरयाग में परिणत होते रहे हैं, पितरों की विवेचन होती रही है। मुझे वह काल स्मरण आ रहा है जिस काल में ब्रह्मचारी, ब्रह्मचर्य की उपासना करते हुए उस प्रातःकाल की भव्य बेला में गार्हपथ्य नाम की अग्नि की उपासना करते हुए उसमे रत होते रहे हैं। यह विचारते रहे हैं कि इस ब्रह्माण्ड और पिण्ड को कैसे एक सूत्र में लाने का प्रयास करें।

हे गार्हपथ्य अग्नि! तू हमें तेजामयी प्रदान कर जिससे तेरे तेज को ग्रहण करते हुए हम तेजस्वी बन कर के मृत्युंजय बन जायें और मृत्यु, अन्धकार हमारे समीप न आये।

हे गार्हपथ्य अग्नि! तू हमारे हृदयों में प्रवेश हो ।जैसे तू द्यौ में ओत-प्रोत हो कर के द्यौ में पानी परमाणुओं में गति और तेजोमयी और उन्हीं तेजोमयी पदार्थों को लेकर के यह सूर्य ऊध्र्वा में मानव को प्रकाशवान बना देता है। ब्रह्मचारी अपने में उपासना करते रहे हैं।

तेजोमयी की उपासना करते हुए एक समय महर्षि याज्ञवक्ल्य मुनि महाराज के विद्यालय में एक पद्धति का निर्माण किया कि मानव का जीवन किस प्रकार उर्ध्व बनाया जाये और किस प्रकार का वह क्रिया-कलाप होना चाहिये।

ब्रह्मचारीजन प्रातःकालीन आचार्यों के समीप अपनी सारी क्रियाओं से निःवृत हो करके वह यज्ञशाला में विद्यमान हो जाते थे ।ऋषि मुनियों ने अनुसन्धान और विचार करते हुए यह वर्णन किया है कि याग होना बहुत अनिवार्य है। याग का जो जन्म है वह मानवीय हृदयों में समाहित रहना चाहिये ।

ऋषि मुनियों ने यह कहा कि जितना भी शुभ हृदय आत्मा मनस्तत्त्व प्राणत्व इनका जो अनुवृत्तियों में चिन्तन होता है उस चिन्तन की धाराओं का नाम ही याग माना गया है। अग्न्याधान, अग्नि को ही प्रकाश में लाना यह याग कहा गया है। यह अग्नि कितने प्रकार की है? मानव के हृदय में एक अग्नि प्रदीप्त होती रहती है। वह अग्नि माता के गर्भस्थल से लेकर कर मानव का जब तक शरीर का प्राणान्त नहीं हो जाता, तब तक वह अग्नि प्रदीप्त रहती है। उस अग्नि को हमें उदबुद्ध करना है, उस अग्नि को जागरूकता में लाना है। जब तक मानव उस अग्नि को नहीं जगाता, तब तक वह स्वयं की महानता को प्राप्त नहीं होता।

- महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज ( श्रृंगी ऋषि)