Yagya and Upasana are the tools for pure life. हम यज्ञ,सत्संग, व उपासना से जीवन पवित्र करें


जीवन में पवित्रता के साधन रुप में हाथ धोना , मुंह धोना तथा स्नान का मुख्य स्थान है तो अध्यात्मिक क्षेत्र में यज्ञ पवित्रता का मुख्य साधन है । यज्ञ के अतिरिक्त सत्संग तथा उपासना अर्थात प्रभु की समीपता से ही पवित्रता आ सकती है । एसा उपदेश यह मन्त्र कर रहा है :-

वसो: पवित्रमसि शतधारं वसो: पवित्रमसि सहस्रधारम ।
देवस्त्वा सविता पुनातु वसो: पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्श:॥
ऋग्वेद १.३


इस मन्त्र में मानव मात्र को उपदेश देते हुए परम प्रभु ने तीन बिन्दुओं को केन्द्र बनाया है । प्रभु उपदेश करते हैं कि :-

१. यज्ञ से पवित्रता आती है :-

परमपिता परमात्मा उपदेश करते हुए इस मन्त्र के माध्यम से सर्व पर्थम यह कहते हैं कि हे जीव ! तुम ने यज्ञ किया है । इस यज्ञ के द्वारा अपने आप को पवित्र बना लिया है । यहां पर शतधारेण के माध्यम से बताया गया है कि इस यज्ञ के द्वारा पवित्र होने के लिए , इस यज्ञ को करने के लिए, शतश: अर्थात सैंकडों मन्त्रों के द्वारा वेद वाणियों का उच्चारण किया गया है , इन वेद के मन्त्रों का ज्ञान किया गया है । मन्त्र कहता है कि केवल सैंकडों ही नहीं सहस्रों , हजारों वेद मन्त्रों का उच्चारण इस यज्ञ में किया गया है । वेद मन्त्रों की यह ध्वनि कानों में पडने से तू पवित्र हो गया है । यज्ञ की यह मन्त्रमयी प्रक्रिया सब को पवित्र कर देती है । इस प्रकार यज्ञ की इस मन्त्र युक्त विधि से तूंने इसे किया है , जिससे तेरे में पवित्रता आ गयी है । इस विधि से तुमने अपने आप को, स्वयं को पवित्र बना लिया है । वैदिक संस्कृति में विचरण करने वाला व्यक्ति अपने जीवन को यज्ञ जैसा ही बना लेता है । इस प्रकार का जीवन बनाने का प्रेरणास्रोत उसे सैंकडों , हजारो वेद वाणियों , वेद मन्त्रों के उच्चारण व गायन से मिलती है । इसे ही यह मानव समय समय पर प्रयोग करता रहता है ।

मन्त्र में पवित्रता का साधन यज्ञ को बताया गया है ओर जब इस यज्ञ को करते समय मन्त्रों को गा कर बोला जाता है तो सोने पर सुहागे वाली बात आ जाती है । हम अपने शरीर को बाहर से तो स्नान आदि करके पवित्र कर लेते हैं किन्तु अन्दर के जीवन को, अन्दर के शरीर को पवित्र करने का आधार आध्यात्मिक ही होता है । इस कार्य के लिए उसे प्रतिदिन यज्ञ करने की आवश्यकता होती है । केवल यज्ञ मात्र से ही काम नहीं चलता, इस यज्ञ को करने के लिए अनगिनत वेद मन्त्रों का भी गायन करना होता है । वेद मन्त्र के गायन से हमारे शरीर के अन्दर प्रवाहित हो रहे रक्त में अल्ट्रासानिक तथा सुपरासानिक वेव्ज का , लहरों का सन्तुलन बन जाता है , अनुपात ठीक हो जाता है ,जिस से हमारा मस्तिष्क शान्त व शीतल हो जाता है , हमारा ध्यान प्रभु की कृति में लगता है । इस प्रकार हम अन्दर से भी पवित्र हो जाते हैं । इस लिए प्रभु एक प्रकार से यह आदेश दे रहे हैं कि हमें वेदवाणी के उच्चारण के साथ , वेदवाणी के गायन के साथ प्रतिदिन नियमित रुप से यज्ञ करना चाहिये ।

२. दो काल उपासना तथा सूर्य पवित्र करे :-

मन्त्र के इस दूसरे भाग में जो उपदेश किया गया है , इसे मन्त्र ने दो भागों में बांट कर हमारे तक पहुंचाया है । मन्त्र कहता है कि :-

(क) हम दो काल प्रभु चरणॊं में आवें :-

मन्त्र अपने दूसरे चरण के इस प्रथम भाग में हमें उपदेश करता है कि वह परम पिता सब का प्रेरक है , सब को प्रेरणा देने वाला है , सब का मार्ग दर्शक है , सब को हाथ पकड कर सुमार्ग पर ले जाने वाला है । वह पिता ही दिव्य गुणों का पुन्ज है , दिव्य गुणों का भण्डार है, जितने भी दिव्य गुण हैं , उन सब का केन्द्र बिन्दु वह प्रभु ही है । एसा प्रभु , हे मानव ! तुझे अवश्य ही पवित्र करे , अध्यात्मिक रुप से पवित्र करे । जो मानव दिन में दो काल अर्थात प्रात: व सायं , उस पिता को स्मरण करता है , उस पिता के निकट जा कर कुछ प्रार्थना करता है , उस प्रभु का स्मरण करता है , प्रभु के आशीर्वाद से उसका जीवन पवित्र बन जाता है । मानव के जीवन को पवित्र करने के लिए उपासना अर्थात प्रभु की निकटता पाने से उपर कुछ भीव नहीं है ।

(ख). सूर्य तुझे निरोग रखे :-

परम पिता परमत्मा को स्मरण करने , उसकी निकटता पाने तथा यज्ञ करने से जो पवित्रता हमें मिलती है , उसे हम आध्यात्मिक पवित्रता कहते हैं । इस के पश्चात जिस पवित्रता को हम जनते हैं , उसे शारीरिक पवित्रता कहते हैं । यह पवित्रता शरीर के स्वच्छ व निरोग होने से होती है । इस पवित्रता को देने वाला मुख्य आधार सूर्य होता है । सूर्य को मन्त्र में सविता का नाम दिया गया है । कहा गया है कि सविता देव अर्थात सूर्य प्रात: काल उदय होता है तथा सबको कर्मों में लगा देता है । यह ज्योति का पथ देता है , सब को प्रकाश देता है । दिन भर के कार्य से निवृत हो कर थका हुआ प्राणी रात्रि को विश्राम करता है । इस विश्राम के पश्चात पुन: प्रात: काल का निमन्त्रण ले कर सूर्य आता है । दिन निकल आता है , सब ओर प्रकाश ही प्रकाश होता है । सब लोग अपने बिस्तर को छोड देते हैं । पक्षी भी चहचहाने लगते हैं । बडा ही सुहाना द्रश्य बन जाता है । इस प्रकार सब लोग जाग्रत होते हैं तथा अपने अपने कामों में लग जाते हैं । मानो सूर्य उन्हें अपने काम करने के लिए प्रेरित कर रहा हो । इस प्रकार सूर्य जहां हमें हमारे काम में लगाता है , वहां इस सूर्य के प्रभाव से सब प्रकार के कीटाणु , सब प्रकार के रोगाणु इस सूर्य के तेज के आगे क्षीण हो जाते हैं , नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार यह जगत सूर्य के कारण रोगाणु रहित हो कर पवित्र हो जाता है । अत: सूर्य हमें निरोगता व पवित्रता देता है ।

३. सत्संग से उत्तम मनों वाले हों :-

हे मनुष्य तूने सैंकडों , सहस्रों वेदवाणियों का पाट किया है , इन वेदवाणियों का स्मरण किया है , इन्हें गाया है तथा इन के साथ तूंने यग्य किया है । इससे अपने आप को तूंने अपने आप को पवित्र बनाया है । एसे पवित्र मानव के साथ तूण सम्पर्क कर , एसे पवित्र मानव का साथ बना , एसे पवित्र व्यक्तित्ब्व वाले पुरुषों का साथ करने से ही तूं अच्छी प्रकार से , उत्तम विधि से पवित्र करने वाला बना है । अब तेरे अन्दर भी एसी शक्ति आ गयी है कि जिससे तूं अपने साथ ही साथ दूसरों को भी पवित्र करने के योग्य , पवित्र करने वाला बन गया है ।

यह कहावत भी है जैसे का साथ करोगे वैसा ही बनोगे । इस लिए ही माता पिता सदा अपने बच्चों को सूझवान , दुसरों के सहायक ,आज्ञाकारी तथा बुद्दिशील ,मेहनती बच्चों का साथ बनाने का उपदेश देते हैं ताकि उनके बच्चे भी वैसे ही बन सकें । यह वेद मन्त्र भी कह रहा है कि हे मानव ! तू यग्यशील अर्थात प्रतिदिन दो काल यग्य करने वालों को अपना साथी बना, तू उत्तम ग्यानी को ही अपना मित्र बना । जब तूं एसे लोगों के सम्पर्क में रहे गा तो तूं भी यज्ञशील बनेगा , ग्यानी बनेगा , वेदवाणियों का गायन करने वाला बनेगा , पवित्र बनेगा । इस प्रकार धीरे धीरे उपर उटते हुए , उन्नति करते हुए तू उत्थान को प्राप्त करने में सफ़ल होगा । जीवन की सिद्दियों को पाने में सफ़ल होगा ।

जो सत्संग के वातावरण में रहता है , वह व्यक्ति पापाचार से सदा दूर रहता है । जब पापों से दूर हो जावेंगे तो स्वयमेव ही हित साधक , पुण्य के तथा पवित्र कार्यों में ही लगेंगे । यह कार्य सत्संग ही करता है , जिस के कार्ण हम्पाप से मुक्त हो कर सर्व हितकारि कार्य करते हैं । वेद के इस मन्त्र के माध्यम से यह प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभु ! एसी दया करो कि हमारे सब मित्र , सम्बन्धी आदि सत्संग करए हुए उत्तम तथा पवित्र मनों वाले हों । पवित्र बनने के ल;इए इस मन्त्र में तीन उपाय बताये गये हैं :-

(अ) यज्ञमय जीवन :-
हम अपने जीवन को यग्य्मय बनायें । प्रतिदिन यज्ञ करें । सदा यज्ञ कार्यों में लगे रहें ।

(आ) प्रभु की उपासना :-
पवित्र बनने के लिए हमें प्रभु की निकटता चाहिये । अत; सदा प्रभु की उपासना करें । अपना आसन प्रभु के समीप लगावें ।

(ई) ज्ञानियों व यज्ञीय व्यक्तियों के सम्पर्क में रहें :-

प्रभु कहते हैं कि जब हम ग्यानी लोगों का , विद्वान लोगों के सम्पर्क में रहते हैं । जब हम नित्य प्रति यग्य करने वाले , परोपकारियों के सम्पर्क में रहते हैं , तो उन के से गुण अपने आप ही हममें आने लगते हैं । अत: इस प्रकार के उपायों को व्यवहार में लाने वाले व्यक्तियों से परमपिता कह रहे हैं कि वास्तव में तू ने वेदवाणी का उत्तम प्रकार से दूहन किया है । इन वाणियों का अच्छी प्रकार से प्रयोग किया है । इस का टीक से सदुपयोग किया है । इन के प्रयोग से , इन के दूहन के कारण ही उन्नति पथ पर बटते हुए , उपर उटते हुए परमेष्टी को प्राप्त किया है । इतना ही नहीं यग्यशील बनकर तूने सब का पालन किया है , यग्यशील बनकर तूंने सब के कष्टों को दूर किया है , सब को निरोग किया है , इस कारण तू प्रजापति भी बन गया है ।

डा. अशोक आर्य