Contemplation on the real glory of God.परमात्मा और निज स्वरूप का निदिध्यासन

परमात्मा और निज स्वरूप का निदिध्यासन

परमात्मा के गुणों की प्रतिभा प्राणी मात्र में समाहित हो रही है, चाहे वह तरंगों में प्राण गति करने वाला हो, चाहे वह मानवीय श्वास पर श्वास की प्रतिभा को, चाहे वह नाना प्रकार के वनस्पति विज्ञान में रत रहने वाला हो, उनमें रसों का आदान-प्रदान करने वाला हो।

वह जो अनुपम है जो प्रत्येक के अन्तर्हृदय में विद्यमान रहता है, हम उस परमपिता परमात्मा की महत्ता  जो अनुपम स्वरुप रहने वाला है, यज्ञ उसका आयतन माना गया है मानो विज्ञान उसका गृह और सदन माना गया है, ऐसा जो मेरा प्यार प्रभु है जो इस प्रकार का व्यापक स्वरूप एक अवृत कहलाता है, हम उस परमपिता परमात्मा की महिमा को अपने अंतःकरण में चिन्तन का एक विषय बनाए।
नाना प्रकार का जो चिन्तन करता रहता है,और चिन्तन की जो अनुपम एक शैली है, जो मानव के हृदयों में निहित रहने वाली है।
हे मानव! तू चिन्तनीय आभा को अपनाने का प्रयास कर। क्योंकि तुझे तो संसार में कुछ न कुछ विचारना है यह जो मन है, यह प्रकृति के तन्तुओं को विचारता रहता है।
मानों यह अपने गुणों में जाना चाहता है, क्योंकि जिससे जिस का निर्माण होता है वह उसी को प्राप्त होना चाहता है। जैसे यज्ञशाला में अग्नि विद्यमान है उसका मुख उर्ध्वा  कहलाता क्योंकि उसका जो सखा है, वह द्यौ माना गया है मानो जो उर्ध्वा में वास कर रहा है, जो सूर्य की किरणों से समन्वय रहने वाला है, वह उसी में रत होना चाहता है।

इसी प्रकार जो मानव के शरीर में अन्तरात्मा है, मानो वह भी जब शान्त मुद्रा में मुद्रित होता है और मन को अपने द्वार पर समेट लेते है तो अंतरात्मा से ही प्रेरणा आती है कि यह संसार, संसार नहीं है, यह शरीर काया वाला नहीं है, अकाय है; मैं निरंजन हूँ, मेरी मृत्यु नहीं होती, मैं अपने में शाश्वत हूँ ।

महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार