Vedic Research of Kautilya Mahamuni , Hindi Article on Vedas

कौटिल्य महामुनि का वेदानुसन्धान


मेरे पुत्रो! एक समय कौटिल्य ऋषि महाराज भयंकर वनों में अनुसन्धान कर रहे थे ।सब ऋषि-मुनि आर्ष परम्परा से ही अपने में अनुसन्धान करते रहते थे । कौटिल्य मुनि महाराज एकान्त स्थली पर विद्यमान होकर के वेदों का स्वाध्याय कर रहे थे और वेदों में जो कर्म-काण्ड आ रहा था, उस कर्म-काण्ड में लगे हुए थे।


हमारे यहा जिस प्रकार यज्ञ के भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड हैं; इसी प्रकार हमारे यहां साधना के भी भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड माने गए हैं। जिस प्रकार जो साधना में रत होना चाहता है, उसी प्रकार का उसका कर्मकाण्ड है। क्योंकि कर्मकाण्ड और साधना दोनों जब एक सूत्र में पिरोए जाते हैं तो चतेना की अनुभूति होने लगती है।


तो ऐसे ही महात्मा कौटिल्य मुनि महाराज एकान्त स्थली पर विद्यमान होकर के साधना में, कर्म-काण्ड में परिणत हो रहे थे।


साधना का कर्म-काण्ड क्या है ? इसके ऊपर विचार आता है। कर्म-काण्ड यह कि मौन होकर के अपनी मानवीय इन्द्रियों का जो क्रिया-कलाप है, इन्द्रियों का जो एक समूहत्व माना गया है वह उसमें लगा रहता है। श्रोत्रों में, चक्षु में, त्वचा में, रचना में, इन सब में वह लगा रहता है। इस की तरंगों को, इसके आन्तरिक और बाह्य दोनों स्वरूपों में लगा हुआ है। कहीं साधक कहता है कि मन, तू जा, जहाँ  जाना चाहता है। मानो आत्मा में वह प्राण का दर्शन करता है तो मन कहीं नहीं जाता। मन अपनी जगह स्थिर हो जाता है, उसमें संलग्न हो जाता है।


कौटिल्य मुनि महाराज जब साधना में परिणत हुए, बारह वर्ष तक उन्होंने अनुसन्धान किया। अनुसन्धान का अभिप्राय यह है कि अपने में प्रभु को प्राप्त करना है। अनुसन्धान का अभिप्राय संकल्प है। एक मानव संकल्प कर रहा है कि मैं इतने वेद मन्त्रों का अध्ययन करके उनके वांग्मय में, उनके गर्भ को जान करके, मैं साधक बनू।


वह वेद मन्त्रों की प्रतिभा में लगा रहता है और एक एक वेद मन्त्र के ऊपर विचारता रहता है कि जो वेद कहता है, वह यथार्थ है या उसमें मिथ्यावाद है। उसके ऊपर चिन्तन मनन करता हुआ मानो वर्षों व्यतीत हो जाते हैं। बारह-बारह वर्षों का अनुसन्धान, उसी के द्वारा वह यज्ञ क्रियाओं में लगा रहता है।


कौटिल्य मुनि से एक समय सोमकेतु महाराज ने कहा कि भगवन्! आप वेद का चिन्तन करते हो प्रातःकालीन, उसके पश्चात् देव पूजा में लग जाते हो, अग्न्याधान करके अग्नि के क्रियाकलापो में लग जाते हो। मैं यह नहीं जान पाया हूं कि यज्ञ का इन वार्ताओं से क्या समन्वय है ?


कौटिल्य मुनि ने कहा कि तुम्हें यह आभास नहीं है कि जब हम याग के कर्मकाण्ड में लग जाते है, याग की प्रतिभा में लग जाते हैं तो वेद का जो सार्थक यथार्थ रूप है, वह हमारे समीप आ जाता है। वह हमारे समीप कैसे आता है?


हम प्रत्येक तरंगों का तरंगों से मिलान करते हैं और तरंगों का जब समन्वय हो जाता है तो तरंगें यह निर्णय कराती हैं कि याग का कर्मकाण्ड कहाँ ले जाता है, इन्द्रियों का कर्म-काण्ड  कहाँ ले जाता है ?
तो यह सब एक दूसरे की प्रतिभा में रत रहते हैं। याग से हम संसार के विज्ञान को जान सकते हैं। परमात्मा का रचाया हुआ जो यह संसार है, इस संसार की प्रतिभा को भी जान सकते हैं।


कौटिल्य मुनि इतना उच्चारण करके मौन हो गए।  जब पुनः सोमकेतु ऋषि ने यह कहा कि- “भगवन्! यह तो हमने जान लिया। परन्तु हम इसको अच्छी प्रकार से नहीं जान पाए हैं कि आपने जब वेद मन्त्रों का मानसिक या बाह्य जगत् में उसका उद्गीत गाया है तो याग से उसका क्या समन्वय हुआ ?”


महर्षि कौटिल्य मुनि ने कहा जैसे हम ने वेद-मन्त्रों का उद्गीत गाया, यह केवल ज्ञान मात्र कहलाता है। मानो यदि ज्ञान के साथ में कर्म-काण्ड जिसमें ज्ञान नहीं है, वह भी अपंग माना गया है। तो मानो हम जितना अध्ययन करें, उतनी ही हमारी क्रिया है, उतना ही हमारा क्रियात्मक जीवन यागों के साथ होना चाहिए।


जैसे परमपिता परमात्मा की चेतना से ही कार्य नहीं बन पा रहा है जब तक उसमें स्थूल प्रकृति का समन्वय नहीं होता, स्थूल जगत् नहीं रचता तो सूक्ष्म जगत् का अपना कोई महत्व नहीं  माना गया। इसी प्रकार हमारे यहां एक दूसरे की एक दूसरे में पूरकता विद्यमान रहती है।


महर्षि कोटिल्य मुनि ने कहा, इसी प्रकार हम वेदों का अध्ययन करते हैं। महर्षि कौटिल्य की तत्वानुसंधान की रूचि को देखकर सोमकेतु महाराज अत्यंत प्रसन्न हुए और मुनि की आदर-वंदन करते हुए अपने राज्य लौट गए।

  • महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज के प्रवचनों से साभार