महर्षि याज्ञवल्क्य का याग चिन्तन
मुझे वह काल भी स्मरण आ रहा है जब महर्षि वशिष्ठ मुनि महाराज के यहा विद्यालय में माता अरुन्धति के संरक्षण में भगवान राम लक्ष्मण इत्यादि ब्रह्मचारी एकान्त स्थली पर विद्यमान होकर अग्नि का ध्यान करते रहे हैं। उस समय राम ने माता अरुन्धति से यहा कहा था कि हे मातेश्वरी! यह अग्नि हमें क्या शिक्षा दे रही है? जो अग्नि यज्ञशाला में प्रदीप्त हो रही है। माता अरुन्धति कहती है हे पुत्रो! असम्भवः ब्रह्मचरिष्यं वृति देवः’’, हे ब्रह्मचारी! यह हमें त्याग में प्रवृत्त कर रही है।
यह कहती है संसार में जितना मानव त्याग में रहता है उतनी मानव की प्रवृत्ति ऊँची बनती है। उतना समाज ऊँचा बनता है। उतना ही मानवीयता का उसमें एक वृत्त आना प्रारम्भ हो जाता है।
अब मैं याज्ञवल्क्य मुनि महाराज के विद्यालय की चर्चा करना चाहता हू। और वह चर्चा यह है कि नाना ब्रह्मचारी एक पंक्ति में विद्यमान हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज याग के दक्षिण विभाग में विद्यमान हो करके अग्नि के लिये मन्त्रों का उद्घोष कर रहे हैं। वह भक्त जन हैं।
भक्ति का अभिप्राय यह है कि किसी वास्तविक स्वरूप को जान करके पिण्ड और ब्रह्माण्ड को एक सूत्र में लाने का नाम वास्तविकता में परिणत होना है, वही भक्ति कहा जाता है, वही भक्त जन हैं। उसको दूसरे रूप में ज्ञान और विवेक में परिणत किया जाता है। परन्तु यह सब एक सूत्र के मनके हैं। इन मनकों के ऊपर मानव को विचार विनिमय करना है।
याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने अग्न्याधान किया, वेद मन्त्रों का उद्घोष किया, समिधा अपने में जब प्रदीप्त होने लगी तो जो संसार में ऊँचा बनना चाहता है वह अपनी प्रवृतियों को संसार में त्यागपूर्वक जब समर्पित कर देता है, जब त्यागप्रवृतियों में रत हो जाता है तो ज्ञान और विवेक से संसार में अपने को समर्पित कर रहा है, अपने को ईधन स्वीकार कर रहा है। जैसे वह समिधा यज्ञ में समाप्त होकर के संसार को सुगंधित बनाती है उसी प्रकार प्रत्येक मानव को अपने को सुगन्धित बनाना है। इस भाव के साथ याज्ञवल्क्य मुनि महाराज अपने ब्रह्मचारियों के मध्य में विद्यमान थे, याग सम्पन्न हो गया।
- महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज के प्रवचनों से साभार