Past life of Maharshi Dayananda.ऋषि दयानंद के पूर्व जन्म की झलक झांकी

ऋषि दयानंद के पूर्व जन्म की झलक झांकी और दयानंद-जन्म का प्रयोजन

महर्षि दयानंद अपने पूर्व जन्म में ऋषि शमीक के नाम से प्रसिद्ध थे, इनकी माता का नाम
सोमवती था जो महर्षि कोलसती की पत्नी थी। उसने अपने जीवन मे सोचा कि मेरा पुत्र देवयान मे विचरने वाला हो। पुत्र उत्पन्न होने के पश्चात् माता ने सोचा कि मैं तो अपने बालक को अटूटी नाम से उच्चारण करूंगी। जिसकी आत्मा मे अटूट धारणा हो।

देवताओ के लिए अपने पुत्र को अर्पण करती हूँ। उस समय उस बालक ने माता के महान् आदेशो का पालन करके, ब्रह्मचारी बन करके देवयान का प्रयत्न किया। धारणा, ध्यान, समाधियो मे संलग्न होकर उस अन्तरिक्ष को और तीनो प्रकार की वायु (1) सोमहिती (2) मध्यान और (3) इन्द्र वायु मे विचरने वाले बने।

माता ने उसको आदेश दिया था कि यह देव की अमूल्य निधि है। हे पुत्र! यह प्राप्त हो जाए तू इसको ऊँचा बनाना। उसने इस अमूल्य निधि को जान कर देवयान मे रमण किया। उसी ने इस कलियुग मे आकर माता के गर्भ मे जन्म लिया और जन्म पा करके संसार को ऊँचा बनाने का प्रयत्न किया।

शमीक से दयानन्द

उन्ही  शमीक ऋषि की आत्मा ने यहाँ पुनः आकर जन्म लिया। यह वह महान् विभूति आत्मा थी जिसे प्यार और स्नेह मे आकर उसकी माता अटूटी नाम से उच्चारण किया करती थी। उसी शमीक ऋषि की पवित्र आत्मा ने पुनः से जन्म लकेर लोककल्याणार्थ अपने जीवन को न्यौछावर किया और ‘‘दयानन्द’’ कहलाये  

इस संसार मे जन्म लेकर ही उनका नाम मूल रूप मे रखा गया ‘मूलशंकर’। इस मूल ने सबसे पूर्व मूल वेद को ही लिया उनके हृदय की वेदना यही थी कि मानव को मानवता के क्षेत्र मे आ करके मानववाद को लाने मे संलग्न हो जाना चाहिए।  

राष्ट्र के प्रति उनमे यह वेदना थी कि जब वह पाश्चात्य शासको से वार्ता करते तो स्पष्ट घोषणा करते थे कि मुझे दूसरे देश का शासक सुन्दर प्रतीत नहीं होता।  दूसरी वेदना उनके हृदय मे थी कि राष्ट्र मे चरित्रवाद को लाना है। इसके लिए ब्रह्मचारियो तथा ब्रह्मचारिणियो के लिए भिन्न-भिन्न विद्यालय होने चाहिएं। जिससे दोनो पवित्रता मे ओत-प्रोत हो जावे।उनकी शिक्षा पद्धति अरण्य, उपनिषद, शतपथ आदि की होगी जिससे हमारी प्राचीन ऋषि-मुनियो की पद्धति पुनः से आकर ऊँचा संसार बन सके।

वे कहते थे - जहाँ कन्याओ का आदर न होकर उन्हे कुदृष्टि से देखा जाता है। उनके दूषित विचार गहृ को दूषित किया करते हैं। राष्ट्र मे वे ही भ्रष्टाचार के अंकुर बन जाते हैं।  यह संसार स्वार्थियो और दुराचारियो का नहीं रहना चाहिए। जब राष्ट्र मे स्वार्थवादियो का साम्राज्य हो जाता है तो वह विनाश के मार्ग की ओर भ्रष्टाचार की धारा मे परिणत हो जाता है।

आज जो विज्ञान पाश्चात्य देशो से आया है वह सब हमारे दर्शन शास्त्रो मे है। जैसे पतंजली के सिद्धान्तो मे पूर्णतया मौलिकता है।   

निर्लिप्त  दयानन्द

ऋषि दयानन्द की महत्ता इतनी विचित्र थी कि उन्हे अनेको द्रव्य की लोलुपता दी जाती, किन्तु वे कहा करते कि ये मुझे नहीं चाहिए। मुझे इनकी इच्छा नहीं, मुझे इच्छा है अपने राष्ट्र की, अपने समाज की। मेरी पवित्र माताएं अपने कर्तव्य  का पालन करे, वेद के अनुयायी बने, वेद के प्रकाश को जाने,वेद की मर्मज्ञानी बने।

दयानन्द जी ने कहा कि मैं ऐसे राष्ट्रपिता के राष्ट्र मे हूँ जहाँ मुझे कोई प्रलोभन नहीं व्याप सकता। प्रलोभन उसको व्यापता है जो प्रभु को अपने से दूर कर देता है। उनका जीवन, विचारधारा, ब्रह्मचर्य तथा तप बड़ा विचित्र था।  दयानन्द जी ने यथार्थ क्रान्ति को लाने का प्रयत्न किया। उस यथार्थ क्रान्ति का परिणाम यह हुआ कि इस राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र वाले छोड़कर चले गए।

राष्ट्र सुधारक दयानन्द

महर्षि दयानन्द ने एक विचार दिया था कि राष्ट्र मे अराजकता नहीं होनी चाहिए।  सब प्रजा को सुगठित विचार बनाने चाहिएं। आर्यों का एक समाज होना चाहिए तथा उनके सुगठित विचार होने चाहिएं, उन्हे वाद-विवाद से रहित होना चाहिए। दयानन्द के पुजारी बनने के लिए यह आवश्यक है कि वह घृणा न करे, क्योंकी  घृणा से मानव जीवन का विनाश होता है।

विद्या प्रसारक दयानन्द

महर्षि दयानन्द ने कहा था कि बुद्धि के अनुसार संसार की प्रत्येक विद्या को अपमाने का प्रयास करो। उसी को अपनाना हमारा धर्म और मानवता कहलाती है। वह वेद की प्रतिभा, जो अन्तःकरण की प्रेरणा है, उसी के आधार पर अपने कार्य को करते चले जाओ।  

दयानंद के मार्ग पर

महात्मा दयानन्द ने केवल वेद की प्रतिभा के लिए अपने जीवन की आहुति प्रदान कर दी। ईश्वर की प्रेरणा के आधार पर जिनका हृदय और मस्तिष्क मानसिक वेदना से परिणत होते हैं, उसका मरण हो जाता है, वे संसार के प्रलोभन मे नहीं आते। सदैव संसार के द्रव्यवाद से उनका जीवन ऊँचा होता है, विशाल होता है, महत्ता वाला होता है।

इसलिए हमे उनके पदचिन्हो पर चलना चाहिए, उनकी धाराओ को अपनाना चाहिए।   महात्मा दयानन्द ने अपने विचार यथार्थ दिए हे । परन्तु उनके मानने वाल तो ऐसे अबुध मार्ग तथा ऐसे स्वार्थ मे परिणत हो गए कि उनमे न द्रव्य का त्याग है, न जीवन का त्याग है। जिस बात के लिए उन्होने अपना बलिदान किया, अपने जीवन की धारा को त्याग दिया। अरे! केवल वाणी से उच्चारण करने से संसार ऊँचा नहीं बनता या धर्म और वेद ऊँचा नहीं बनता। वेद उस कर्म से ऊँचा बनता है, जब मानव अपने जीवन को क्रियात्मक बनाता है, महान् बनाता है।  

आहार के सन्म्बन्ध मे दयानन्द  

ऋषि दयानन्द ने कहा कि जहाँ प्राणी को अन्न प्राप्त नहीं होता, जहाँ केवल मांस ही मांस है वहाँ प्राणियो को नहीं रहना चाहिए। उनका कितना ऊँचा आदेश था। आज उनका जो अनुयायी समाज है, यह यज्ञवेदी पर विराजमान होता है। परन्तु संकल्प मे बद्ध रहता है पर गहृो मे नाना प्रकार के गर्भों (अण्डो) को पान करता है। कहाँ है वह ऋषि का विचार?

पिछल जन्मो का इतिहास  
दयानन्द के तेरह जन्मो की तपस्या के परिणाम से आज समाज कुछ उत्थान की ओर चला है।  इस आत्मा का इससे पूर्व का जन्म शमीक ऋषि का था। उससे पूर्व कोकोतु ऋषि, उससे पूर्व सोमपान, उससे पूर्व कुर्केतु था।

दयानन्द की महत्ता

महाभारत के पश्चात् जितनी महान् आत्माएँ संसार मे उत्पन्न हुई उनमे दयानन्द तथा शंकराचार्य की महानता जैसी कोई और हो इसका कोई प्रमाण नहीं। किन्तु शंकर के अनुयायी तो ब्रह्म बनकर यह समझ बैठे हैं कि अब उनको करने को कुछ शेष नहीं। वास्तव मे संसार मे कार्य करने के लिए तो तब तक रहता है जब तक मानव संसार मे अन्न ग्रहण करता है, जब तक कार्य करता रहता है जब तक ब्रह्म की स्थिति नहीं आती। दयानन्द के मानने वाले इतने लालायिता हो गए हैं कि ऋषि के आदर्शों को त्यागकर केवल कटुता मे रह गए हैं, उदारता को उन्होने त्याग दिया है।

ऋषि दयानंद और हम

दयानन्द के विचारो को पूर्ण करने वाल आर्य होते हैं। आर्य श्रेष्ठ होते हैं, उनका कार्य है प्रकाश देना। जहाँ प्रकाश होता है वहाँ अन्धकार नहीं होता, वहाँ विवेक होता है, यथार्थता होती है। उस यथार्थता को लेकर वह भ्रमण करता है और संसार को सुगन्धि देता है।

दयानन्द कैसे तपस्वी तथा दृढ़संकल्पवादी थे कि जहाँ जाते थे उन पर वज्रो की वर्षा होती थी। उनके अनुयायी आज जहाँ जाते हैं उन पर पुष्पो की वर्षा होती है। किन्तु उनके वज्र तो पुष्प बन गए और इनके पुष्प वज्र बनते जा रहे हैं।

एकवाद और त्रैतवाद मे से दयानन्द ने जो शमीक के रूप मे त्रैतवाद का प्रसार किया।

अंत समय ऋषिवर की ईच्छा

ऋषि ने मरते समय अपने शिष्य से कहा था कि हे शिष्य! यदि तुम संसार मे मेरे पथ को ऊँचा बनाना चाहते हो, यह पथ मेरा नहीं है, यह आदि ब्रह्मा से लकेर जैमिनी तक का यह उद्देश्य है कि यथार्थता और वेद को अपनाते चले जाओ।

मैं तो चला हूँ, जैसी प्रभु की इच्छा है उतना ही कार्य प्रभु ने मुझसे लिया है। अब मैं अपने शरीर को त्याग रहा हूँ। परन्तु मेरी जो भूमिका है, मेरा जो विचार है वह सार्वभौम विचार होना चाहिए, वह विचार संकीर्णता मे नहीं रहना चाहिए। आज स्वार्थी प्राणियो ने उनके विचारो को संकीर्ण बना दिया है, उनके विचार मे अब इतना बल नहीं रहा है कि वे याज्ञिक बन सकें। क्योंकि धर्म शब्द तो व्यापक है, वह कदापि नष्ट नहीं होगा, ऋषि का वाक्य ज्यो का त्यो रहेगा। वह सदैव वायुमण्डल मे रमण करता रहेगा, उनके विचार वायुमण्डल मे क्रान्ति करते रहेंगे परन्तु तुम अक्रान्ति, रूढ़िवादी बन करके अपने मानवत्व और उस पथ को त्याग चुके हो, जो पथ वास्तव मे आज के दिवस शरीर को त्यागकर जाने वाल का था, वह तो यहाँ से चला गया।

दयानन्द ने मरते समय कहा था, ‘परमात्मा की इतनी अनुपम कृपा थी जो इतने समय तक जीवित रह सका। अब मैं मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ। मेरी एक इच्छा थी कि शिक्षालयो मे, ब्रह्मचारियो मे, ब्रह्मचारिणियो मे और राष्ट्र मे अरण्यको और ब्राह्मणो का प्रसार हो।’

- महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज के प्रवचनों से साभार