The kingdom of King Gyanashruti in Vedic Era : राजा ज्ञानश्रुति का राष्ट्र चिन्तन

राजा ज्ञानश्रुति का राष्ट्र चिन्तन

एक समय महर्षि प्रहण, महाराज ज्ञानश्रुति के यहाँ  जा पहुँचे।  महाराजा ज्ञानश्रुति महान पवित्र राजा थे। उनका राष्ट्र बड़ा सतोगुणी था। जब महर्षि प्रहण उनके यहाँ तो राजा ज्ञानश्रुति ने अपने आसन को त्याग दिया, आसन को त्याग करके कहा ‘‘आइये ऋषिवर, पधारिये’’ वह ऋषिवर विद्यमान हो गये राजा ने कहा “ कहिये  भगवन्, आज बिना सूचना के आप जैसे महान तपस्विओं का मेरे यहाँ आगमन हुआ हैं, मैं इस कारण को नहीं जान पाया हूँ’’

महर्षि प्रहण ने कहा ‘‘हे राजन, मैं इसलिये आया हूँ  क्योंकि मैंने यह श्रवण किया है कि महाराजा ज्ञानश्रुति का राष्ट्र बहुत पवित्र है”। ऋषि मुनियों द्वारा हिमालय की कन्दराओं में एक सभा का आयोजन हुआ और मुझे यह निश्चय करने के लिए कहा गया कि महाराज ज्ञानश्रुति के यहाँ उसके राष्ट्र की कितनी प्रतिभा है? उसका राष्ट्र  कितना महान है?  अतः मैं तुम्हारे राष्ट्र पर दृष्टिपात करने के लिये आया हूँ। उसका सर्वेक्षण करने आया हूँ ।

महाराज ज्ञानश्रुति ने कहा ‘‘ऋषिवर! राष्ट्र के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं ?’’ उन्होंने कहा ‘‘मैं क्या नहीं जानता?” महाराज ने  कहा क्या आप यह जानते हैं कि राष्ट्र का अध्वर्यु कौन है ? उन्होंने कहा ‘‘राष्ट्र का चरित्र ही राष्ट्र का अध्वर्यु कहलाता है।  

राजा ने आगे पूछा - “हे प्रभु! क्या आप जानते हैं कि राष्टं का उद्गाता कौन है ?” महर्षि प्रहण ने कहा “हे राजन् ! राष्टं की जो बुद्धिमत्ता है उसके विवेकी पुरुष ही राष्ट्र के उद्गाता कहलाते हैं”।

राजा ने ऋषि से और पूछा- “ क्या आप जानते हैं कि राष्ट्र का पुरोहित कौन है ? उन्होंने कहा ‘‘राष्ट्र का पुरोहित वह कहलाता है जो राष्ट्र के लिए उर्ध्वगामी विचार करता है, उसके उत्थान का चिन्तन करता है।  राजा के राष्ट्र में क्षत्रियों को अपने उपदेशामृतों से पवित्र बनाता है।  अपने में स्वयं चरित्रवान, ओजस्वी, वर्चस्वी  बन करके और राष्ट्र के अन्य पुरोहितों को ऊँचा बनाता है, तो वह पुरोहित कहलाता है।”

महाराजा ज्ञानश्रुति ने कहा ‘‘प्रभु! क्या आप ये जानते हैं कि राष्ट्र का यजमान कौन है ? राजन! राष्ट्र का यजमान तो वह कहलाता है, जो राष्ट्र का मेघ बन करके रहता है, जो राष्ट्र को यज्ञशाला के रूप में स्वीकार करता है।
जैसे यज्ञशाला में से सुगन्ध आ रही है तरंगें अन्तरिक्ष को प्राप्त हो रही है, देवता उसका पान कर रहे हैं। अन्तरिक्ष की तरंगों को ऊँचा बना रहे हैं। जैसे यज्ञ में यज्ञशाला की तरंगें अग्नि से उद्बुद्ध होकर के, सुगन्धियुक्त हो करके अन्तरिक्ष के वातावरण को ऊँचा बनाती है इसी प्रकार यज्ञशाला में जो यजमान होता है, जो यज्ञशाला के आँगन को भव्य बनाने वाला है विचारों से सुगन्धित बनाने वाला है।  इसका जो शब्द है, वह यम लोक में रमण करता हुआ राष्ट्र की उन्नत बनाता है परन्तु राष्ट्र में राजा को ही मानो यजमान कहते हैं। जो अश्वमेघ-यज्ञ  करता है।

महराज ज्ञानश्रुति ने आगे पूछा “अश्वमेघ यज्ञ कौन करता है ?” महर्षि बोले- “अश्वमेघ यज्ञ वह राजा करता है, जो संसार को विजय कर लेता है। जो संसार की आभा को जानने वाला बनता है।  अग्रतं ब्रम्हा लोकं शुभं भक्तिः ब्रम्हणा लोकं ब्रहस्तुः रुद्रं भावं ब्रम्हणे लोकाम।”
अश्वमेघ यज्ञ वह राजा करता है जो मानो देखो, प्रजा को उन्नत बनाता है । महान आभा में रमन करने वाला, राष्ट्र को सुसज्जित बनाने वाला, ‘स्वर्णते मे अश्वनं गाथां’ वाला गान गाता है।”

ज्ञानश्रुति ने ऋषि की बुद्धिमत्ता को जान लिया, उनकी  आभा को जान लिया और कहा “समविताः देवस्याम् समविताः रूद्रमः भवः समविताः यज्ञम भवतेः समविताः समभगं प्रह्य: लोकाः।

राजा ने कहा कि - “प्रभु! एक वाक्य ओर जानना चाहता हूँ  आपसे। इस राष्ट्र का प्राण कौन है?” देखो, ऋषि कहता है ‘‘कि राजन, राष्ट्र में राजा का जो विज्ञान है, आध्यात्मवाद है वहां महाप्राण की कल्पना की जाती है।   और यदि भौतिकवाद है, तो वहा प्राण की कल्पना की जाती है। हे राजन, एक प्राण और एक महाप्राण है क्योंकि देखो, भौतिकवाद को जान करके तो वहाँ प्राण की कल्पना करता है जो केवल विज्ञानमय तरंगों में रमण करने वाला है, एक परमाणु को दूसरे में पिरोने वाला है, यन्त्रों का निर्माण करने वाला है वह सूर्य लोकों तक की यात्रा करने वाला, नाना लोक-लोकान्तरों में गति करने वाला, वह राष्ट्र का प्राण कहलाता है।”

जब राजा ज्ञानश्रुति ने यह वाक्य श्रवण कर लिया तो उस समय राजा ज्ञानश्रुति ने गद्गद भाव से कहा-  ‘‘मत्तो ब्रम्ह: वातस्पते’।’‘हे बालक, हे ऋषिवर! तूने किस माता के गर्भ स्थल में जन्म लिया है जो तूने इतनी विद्या को प्राप्त किया?’

ज्ञानश्रुति और ऋषि दोनों का विचार विनिमय होता रहा। महर्षि प्रहण  और महर्षि शिलक “माता अष्ट्रधाम” के पुत्र कहलाते थे ‘‘प्रमाणम ब्रेहे सुतां।”

अब बारी महर्षि प्रहण की थी। महर्षि ने कहा महाराज आप धन्य है। आपका राष्ट्र मानो देखो, मुझे विचित्र प्रतीत हो रहा है। परन्तु अब ऋषि प्रश्न करता है, ऋषि कहता है राजा ज्ञानश्रुति! तुम्हारे राष्ट्र का पालक कौन है ?”
राजा ज्ञानश्रुति ने बड़ी विनम्रता से कहा- “ऋषिवर, राष्ट्र का पालन तो चतैन्य देव किया करते हैं। मुझे तो बुद्धिमान समाज ने, ब्राम्हण  समाज ने, जो ब्रम्ह की उड़ान उड़ने वाले निष्पक्ष ब्राम्हण  होते हैं उन्होंने, गुरुओं ने चुनौती प्रदान की है और यह कहा है कि तुम सब पुरुषों में विशिष्ट हो। तुम नियम से इस प्रजा का पालन करो। मैं तो केवल अपने नियम का पालन करता हूँ। जैसे माता-पिता गृह में रहते हैं। माता-पिता का जो भी क्रियाकलाप होता है जो भी उनका कर्म होता है उसी के आधार पर बालक-बालिका गृह में क्रियाकलाप करना प्रारम्भ कर देते हैं। यदि माता-पिता चरित्रवान् हैं, यदि माता-पिता संयमी हैं तो बालक, गृह में संयमी बन जाते हैं। और यदि माता-पिता उदण्ड है तो बालक भी उसी प्रकार का क्रियाकलाप प्रारम्भ करने लगते हैं। माता-पिता बुद्धिमान हैं, दर्शनों का अध्ययन करते हुए उन पर चलते हैं तो बालक भी उसी प्रकार बरतने लगते है।  उसी प्रकार की तरंगों में सम्मलित होने लगते है।  इसी प्रकार हे प्रभु! मैं राष्ट्र का पालन नहीं कर रहा हूँ, मैं तो स्वतः अपने जीवन का अध्ययन करता हूँ और अध्ययन करके मानो पांडित्य की दृष्टि से मुझे राजा घोषित किया गया है कि तू राजा है; प्रजा का प्रतिनिधि है”

महाराज ज्ञानश्रुती ने आगे कहा- “ अतः हे ऋषिवर  जो मैं क्रियाकलाप करता हूँ, प्रजा मेरे अनुसार बरतती रहती है। यदि ऊँचा कार्यक्रम  मेरे जीवन में रहेगा तो प्रजा भी उसी प्रकार बरतने वाली बनेगी।”

ऋषि ने जब राजा के ये वाक्य सुने, तो वे मौन हो गये।

अब ऋषि पुनः पूछते हैं ‘‘हे राजन! तुम इस प्रजा को कैसे उद्बुद्ध करते हो ? कैसे इस प्रजा का उत्थान करते हो ?”

राजा ने कहा- “हे प्रभु! हे ऋषिवर! मैं अपने जीवन का उत्थान करना जानता हूँ।  मैं अपने जीवन का उत्थान करता हूँ, तो प्रजा का जीवन स्वतः उर्ध्वगति करने लगता है। वह उत्थानमयी बन जाता है।

ऋषि ने पुनः यह प्रश्न किया ‘‘महाराज! तुम इस प्रजा की रक्षा कैसे करते हो?”  राजा ने कहा ‘‘हे भगवन् ऋषिवर! मैं मानो अपनी इन्द्रियों पर साम्राज्य करता हूँ । मेरी जो पाँच ज्ञानेद्रियाँ हैं , पाँच कर्मेन्द्रियाँ है जो इन पर शासन कर लेता है, वह जनक कहलाता है  और जो अपने पर शासन कर लेते है, तो प्रजा की रक्षा मानो स्वतः हो गयी, वह भी उसके अनुकूल बरतने वाली बन जाती है।”  

महाराज ज्ञानश्रुति के वचन सुनकर ऋषि प्रसन्न हो गये। पुनः यह प्रश्न किया कि ‘‘हे राजन! तुम इस प्रजा को अग्रणी कैसे बनाते हो ?”

उन्होंने कहा ‘‘प्रभु! जैसे सूर्य है, यह सूर्य प्रातःकाल में उदय होता है, और प्रकाश को लेकर आता है और जब प्रकाश को लेकर गति करता है तो मानो अन्धकार स्वतः समाप्त होता चला जाता है रात्रि इस के गर्भ में परिणत हो जाती है।  इसीलिये प्रजा और राजा दोनों, अपने में संलग्न हो करके क्रियाकलाप प्रारम्भ कर देते हैं। तो, प्रजा का जो आलस्य और प्रमाद है वह नष्ट हो जाता है।  विवेकी और प्रकाशक कर्म करता हुआ राजा राष्ट्र को प्रकाश में ले जाता हैं।”
राजा ने जब ये वृत्तियाँ प्रकट की, तो ऋषि ने कहा धन्य हो- “हे राजन! तुम वास्तव में वीरत्व को प्राप्त होने वाले हो, तुम तो जनक हो।” जनक उसी को कहते हैं, जो अपने को जान लेता है।  जैसे आत्मा इस शरीर में चेतना  बनी हुई है, वह इस शरीर का राजा है।  शरीर का भी राजा चतेनावत है उसी के कारण इन्द्रिया गति कर रही है।”

महाराजा ज्ञानश्रुति ने कहा हे ऋषिवर! आप तो जानते ही हैं आपने तो ये चर्चायें स्मरण की हैं। ‘‘संभवा गत प्रवे’’।

इस अद्भुत चर्चा को आगे बढ़ाते हुए राजा ने कहा- “हे तात! राजा के राष्ट्र में यदि चरित्र उसके समीप है, तो, वह राष्ट्र जीवित रह सकेगा और यदि चरित्र रूपी प्राण नहीं है तो प्राण से रहित हो करके यह शून्य गति (पतन) को प्राप्त हो जाता है।  मैं इसी रूपसे राष्ट्र का पालन करता हूँ।

मैं अपने मानवीय तप का पालन करके राष्ट्र  की तरंगों में उड़ान भरता रहता हूँ। ऋषिवर! यह मेरा निश्चय हो गया है कि कर्तव्य के पालन करने का नाम ही चरित्र माना गया है। और यदि कर्तव्यवाद नहीं रहेगा तो, समाज का प्राण चला जाता है।  जब यह प्राण चला जाता है तो मुनिवर! देखो, शून्य बिन्दु की आभा में यह गति करने लगता है, शून्यता(पतन)को प्राप्त हो जाता है। इसीलिये वेद का आचार्य कहता है- हे मानव! अपने प्राण- सखा को जानने वाला बन। क्योंकि ‘‘प्राणं ब्रम्हा प्राणं रूद्राः प्राणं ब्रम्हे पुरुषोत्तमम”।

यह जो प्राण है इस प्राण को लेकर विज्ञान गति करता है।”  ऐसा वेद का ऋषि कहता है।

महाराज ज्ञानश्रुती आगे बोले- “ मैं अध्यात्मवादी ऋषियों से वार्ता करता हूँ कि मेरे राष्ट्र में विवेकी पुरुष होने चाहिये, वे विवेकी जो महान दृष्टियों में रमण करने वाले हो, अराजकता के मूल कारणों को मेरे राष्ट्र में नहीं रहना  चाहिये।”

महाराजा ज्ञानश्रुति ने जब ऐसा कहा तो प्रहण आश्चर्य चकित हो गये। उन्होंने कहा धन्य हो राजन! तुम्हारा राष्ट्र  बहुत उत्तम है।  उन्होंने कहा “ हे राजन! आपका भोजन, आपका साधन (आजीविका) कैसे आती है?”

राजा ने कहा ‘‘ प्रभु मैं प्रातःकालीन श्रम करता हूँ, इस माता पृथ्वी के गर्भ उससे अन्न की उत्पत्ति होती है, इस अन्न को ग्रहण करता हूँ । और उस सतोगुणी अन्न को पान करके मैं राष्ट्र का क्रियाकलाप करता हूँ। शासन कर्म करता हूँ, जिससे मेरा राष्ट्र उर्ध्वगति करता रहता है।”

महाराजा ज्ञानश्रुति ने जब यह वाक्य प्रकट किया तो महर्षि प्रहण ने कहा “धन्य हो राजन! तुम्हारा राष्ट्र-सिद्धान्त मुझे अत्यंत प्रिय लगा।”
तत्पश्चात महर्षि प्रहण महाराज जनश्रुति के राज्य के सर्वेक्षण पर निकले। प्रातःकाल का समय था।
प्रत्येक गृह में से सुगन्धि आ रही है, प्रत्येक गृह सुगन्धित बना हुआ था। महर्षि ने देखा प्रत्येक गृह में प्रातःकालीन देव पूजा(अग्निहोत्रादि) होते है।प्रत्येक गृह से वैदिक ध्वनि का प्रसार हो रहा है। विवेकी पुरुष विवेक में गान गा रहे हैं प्रत्येक माता अपना गान गा रही है।  वैदिक ध्वनियों के द्वारा गृह को पवित्र बनाया जा रहा है।
उन घरों में से जो शब्दों की ध्वनिया ध्वनित हो रही थी उससे उस वायुमण्डल में राष्ट्र की प्रतिभा का, महानता का जन्म होता रहता है।”

सर्वेक्षण के पश्चात राजा ने महर्षि प्रहण से कहा ‘‘कहें भगवन! मेरा राष्ट्र आपको कैसा लगा?”

प्रमुदित कंठ से महर्षि बोले - “ हे राजन, तुम्हारा राष्ट्र तो  उत्कृष्ट है ही परन्तु वह माता धन्य है जिस माता के गर्भ से तुम्हारा जन्म हुआ।”

महाराज ज्ञानश्रुति और महर्षि प्रहण अपने अपने स्थान  को चले गये। ऋषियों ने घोषणा कर दी कि महाराज ज्ञानश्रुति की परीक्षा लेना व्यर्थ है- वे महान और पवित्र है।”

  • महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार