The Vedas and Science Connection, Hindi Article

वेदों की चिर नवीनता और विज्ञान- प्रतिष्ठा  

सृष्टि के प्रारम्भ से विज्ञान मानवीय मस्तिष्कों में प्रायः नृत्य करता रहा है। क्योंकि प्रत्येक मानव की उत्कट इच्छा बनी रहती है कि ‘‘मैं विज्ञानवेत्ता बनूं और विज्ञान में मेरी प्रतिष्ठा होनी चाहिए।’’ वह उसमें दक्ष होना चाहता है। क्योंकि मानव का यह स्वभाव है की संसार के प्रत्येक तन्तु को जानने की उसकी प्रबल इच्छा बनी रहती है। वह कोई भी विषय हो संसार का, मानो एक तिनके से लेकर पर्वतों और जलाशय ओर जितना भी लोक-लोकान्तरवाद है, उसके लिए एक प्रबलता बनी रहती है कि ‘‘मैं जितना भी संसार का विषय है, उसके ऊपर मेरा आधिपथ्य हो जाये’।’  

नवोन्मेषी वैदिक प्रकाश तो बेटा! ऐसा मानव की कामना हमेशा से रही है, क्योंकि जितना भी ज्ञान और विज्ञान है, यह सदैव नवीन रहता है, इसमें वृद्धपन नहीं आता।

क्योंकि वृद्धपन उनमें आता है, जिनमें नवीनता और ज्ञान की सूक्ष्मता नहीं रहती। अज्ञान में वृद्धपन आता रहता है। परन्तु जो ज्ञान है, और विज्ञान से गुथा हुआ है, आध्यात्मिकवाद की उसमें पुट लगी रहती है, तो वह जैसा सृष्टि के प्रारम्भ में, ऐसा ही अरबों वर्षों के पश्चात् भी उसी प्रकार उसमें नवीनता रहती है और दर्शन रहता है और मानवीयत्व रहता है।

उसमें वृद्धपन नहीं आता, सदैव नवीनता बनी रहती है। जैसे हमारे यहाँ  वेद है, वेद सृष्टि के प्रारम्भ में भी वेद है और वर्तमान में भी वेद है परन्तु वेद का जो अभिप्रायः है, उसकी जो प्रतिभा है, वह सदैव नवीन है और वह स्वयं ही प्रकाश है।

  • महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज के प्रवचनों से साभार