A Dialogue between Yagyavalkya and Bramhacharis

याज्ञवलक्य और ब्रम्ह्चारियों का संवाद

एक समय यज्ञकर्म के उपरान्त ब्रह्मचारी यज्ञदत्त, सुकेता, रोहिणी केतु, कवन्धि और यज्ञकृतिका यह सब ब्रह्मचारी महर्षि याज्ञवल्ल्क्य के समक्ष उपस्थित हुए और उन्होंने कहा पूज्यपाद हम कुछ आप से प्रश्न करना चाहते हैं।

याज्ञवल्क्य मुनि बोले-‘‘तुम जो प्रश्न करना चाहते हो वह बड़े आनन्दयुक्त होकर करो ।यदि मैं जानता हूँगा तो उसका उत्तर अवश्य दे सकूँगा ’’ ब्रह्मचारियों ने यह कहा कि आप जानते हैं- यदि आप नहीं जानते तो आप यह नहीं कह सकते थे कि मैं जानता हूँगा तो तुम्हारा उत्तर दूंगा।

ऋषि मुनियों का हृदय बड़ा निरभिमानी रहा है क्योंकि वह निराभिमानता से प्रत्येक वस्तु का उपभोग करते थे ।मैं नहीं जानता, मैं जानता हूँ , ऐसे प्रश्नों में वह लगे रहते थे ।यह विचारते रहते थे कि परमपिता परमात्मा भी निराभिमानी है इसीलिये हमें निराभिमानी बनना है। क्योंकि परमपिता परमात्मा सर्वज्ञ है, सर्व वस्तुओं का निर्माण करते हुए भी वह अपने में अपनेपन का भान नहीं कराते ।इसी प्रकार प्रत्येक महापुरुष अपने में जानता हुआ भी नहीं जानने की घोषणा कर रहा है। यह उसकी उदारता है, यह उस का ज्ञान और ज्ञान के पश्चात् जो विवेक है और विवेक के पश्चात् जो जीवन क्रियात्मक है उसमें वह अपने को ले गया है, अपने को उस में परिणत कर दिया है। इसलिये वह कहता है कि मैं जानता होऊँगा तो तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दे सकूँगा  तो याज्ञवल्क्य मुनि महाराज से नाना ब्रह्मचारियों ने प्रश्न किया।

सबसे प्रथम यज्ञदत्त उपस्थित हुए और यज्ञदत्त ने कहा कि हे प्रभु! यह जो ब्रह्मचारी उपस्थित हैं ब्रह्मचारी सुकेता के हृदय में एक जिज्ञासा जागरूक हो गई है कि मैं एक याग करना चाहता हू।। मेरे हृदय में याग की प्रेरणा मानो प्रेरित हो रही है। मैं उस प्रेरणा के साथ में याग करना चाहता हू।, कितने होताओं के द्वारा मैं याग कर सकता हूँ?

याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने कहा हे ब्रह्मचारियों! तुम्हारे हृदय में ऐसी जिज्ञासा क्यों जागरूक हुई? उन्होंने कहा प्रभु! हम कुछ मन्त्रों का अध्ययन कर रहे थे और अध्ययन करते हुए हम मगध राष्ट्र  में चले गये परन्तु वहाँ एक कात्यायन के गृह में हमारा जब वास हुआ तो कात्यायन ने हमारा बड़ा स्वागत किया। नाना प्रकार के भोज कराये।उसके पश्चात् उनकी पत्नी ने एक प्रश्न किया था कि क्या तुम याग को जानते हो ?

तो हमने कहा था कि ‘हे माता, हम याग को नहीं जानते? उन्होंने कहा जिस विद्यालय में तुम अध्ययन कर रहे हो उस विद्यालय में यह प्रश्न करो आचार्य से, कि हम याग करना चाहते हैं तो कितने होता होने चाहिये? हमने माता से कहा ‘हे माता! तुम जानती हो उन होताओं को’। उन्होंने कहा, ‘मैं होताओं को तो नहीं जानती परन्तु मैं कुछ कुछ उसके रहस्यों में संलग्न हूँ और उनको विचार रही हूँ ।’ तो जाओ तुम अपने आचार्य से यह प्रश्न करो ।
प्रातःकाल होते ही हमने कात्यायन के गृह को त्याग दिया और आज विद्यालय में पदार्पण हुआ है। आज हमने एक वेद-मन्त्र को विचारा है। उस वेद मन्त्र में यह तो आया है ‘त्वं जन्म वृत्यं यागां वृभ्वेः, वृति अस्वताम् गणः वृति व्रतकः ब्रह्मेः’ इस वेद मन्त्र में कुछ इस प्रकार के विचारों का उद्घोष तो हो रहा है। परन्तु हम आप से जानना चाहते हैं प्रभु! हमारे हृदय में प्रेरणा वेद मन्त्रों से आई है। वेद मन्त्रों के जो उद्घोष करने वाले हैं उन्होंने भी हमें इस प्रकार का मन्तव्य प्रकट किया है कि आप याग के सम्बन्ध में कुछ जानते हो । तो प्रभु! हम याग को जानना चाहते हैं कि कितने होताओं से हमें  याग करना है ?

होता

याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने कहा कि यह जो ब्रह्माण्ड है और वह जो पिण्ड है, इन दोनों को एक ही सूत्र में लाने का नाम याग माना गया है। आज तुम याग करना चाहते हो तो चैबीस होता तुम्हारे याग में होने चाहिये।उस समय यज्ञदत्त ने कहा ‘प्रभु! यजमान कहता है कि चैबीस होता कौन से हैं? जिनके द्वारा हम याग करे।

उन्होंने कहा, चैबीस होताओं में सबसे प्रथम होता का नाम हमारे यहा ‘वृणः स्वंजनम् वृही व्रतम्’ मानो पंचीकरण कहा जाता है। सबसे प्रथम चार होता है उसके पश्चात् पंचीकरण होता है। उन्हानें कहा प्रभु! इसका वर्णन कीजिये ।हमें इसकी जानकारी कराइये ।उन्होंने कहा इस ब्रह्माण्ड में और पिण्ड में जो यह परमपिता परमात्मा की यज्ञशाला है, इस यज्ञशाला में जितने होताओं से यह परमपिता परमात्मा का याग प्रारम्भ हो रहा है मानो गतिवान हो रहा है, क्रियावान हो रहा है वह चौबीस  होता कहलाते हैं। इन चौबीस में पांच ज्ञानेन्द्रिया है, पांच कर्मेिन्द्रया है, पांच प्राण हैं, पांच उप-प्राण हैं और एक चतुष अन्तःकरण-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार कहलाते हैं। इन चौबीस  होताओं के द्वारा मानो यह याग हो रहा है।

ऋषि मुनियों ने एक बड़ी विचित्रता में इस वाक् को लिया है क्योंकि हमारे यहा दो प्रकार की आभा परम्परा से मानी गई है कोई मानव किसी में समर्पित होना चाहता है या अपने आदर्शों में आवृत होना चाहता है, तो वह प्रायः अपने को ही स्वतों में समर्पित करने से वह जानना चाहता है। यदि उसे वह समर्पित नहीं करेगा, उसमें संलग्नता नहीं आयेगी, प्राण मन और विचार जिन से हम चिन्तन कहते हैं वह एक सूत्र में आने चाहियें। जब तीनों एक सूत्र में अद्वितीय रूप अपने में धारण कर लतेे हैं तो याग को हम अच्छी प्रकार जान सकते हैं।

चैबीस होता और प्राण

सबसे प्रथम पांच ज्ञान इन्द्रियां हैं। इनका जितना विषय है उस सबको एकत्रित किया जाता है। पांच कर्मेन्द्रियाँ  हैं इनके विषयों में, उनमें संलग्न किया जाता है। उसके पश्चात् पांच प्राण हैं उन प्राणों को एक सूत्र में लाया जाता है। जैसे प्राण है वह प्राण सर्वत्र विद्यमान रहता है। अपान भी सर्वत्रता में रहता है। व्यान और उदान भी इसी प्रकार सर्वत्रता में रहते हैं।

एक ही प्राण का सृष्टि के निर्माता, जो विधाता हैं ने इस का विभाजन किया है। इस प्रकार से विभक्त किया है जैसे शरीर में प्राण विभक्त है। इसी प्रकार बाह्य ब्रह्माण्ड में भी यह प्राण क्रियाशील हैं और उसी प्रकार का क्रिया-कलाप हो रहा है। उसी क्रिया-कलापों से मानव संसार के नाना प्रकार के अवयवों को जनता रहता है और जानता हुआ अपने में ज्ञान और विज्ञान की ऊंची ऊँची उड़ाने उड़ता रहता है। पांचों प्राण उसके सहायक हैं।

मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार यह जो भी होता है जो इस याग में परिणत हो रहे हैं इस याग में यह होता बन कर आहुति देते हैं। इस याग के ब्रह्मा को मानसिक चिन्तन में माना गया है परन्तु बाह्य जगत में ब्रह्मा परमपिता परमात्मा को माना है। जब इन वाक्यों को हम विचारने लगते हैं तो एक ब्रह्माण्ड हमारे समीप आ जाता है, एक नवीन जगत हमारे समीप आता है।

उस परमपिता परमात्मा का कितना वृत्त है, उसकी कितनी आभायें हैं जिसके ऊपर मानव चिन्तन और मनन करता हुआ अन्त में मौन हो जाता है। यह चैबीस होताओं के द्वारा हम याग करते हैं। तो ब्रह्मचारी से कहा हे ब्रह्मचारी सुकेता! तुम जो याग करना चाहते हो तो तुम चैबीस होताओं के द्वारा याग करो ।क्योंकि चैबीस होता ही ऐसे होता हैं जो मानव के जीवन को महान और पवित्रतम बना देते हैं। संसार उसी में रत्त हो जाता है। संसार अपने में और अपने को संसार में हम प्रायः देखते रहते हैं।

अन्तःकरण(मन) तथा उसकी धाराएँ

 महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने जब यह वर्णन किया तो ब्रह्मचारियों ने कहा प्रभु! जिसको आप चतुष अन्तःकरण कहते हैं जैसे मन है इसकी कितनी धारायें हैं?

उन्होंने कहा मन की बड़ी विचित्र धारायें हैं। यह मन ही पवित्र बन कर के संसार को पवित्रतम बना कर अपने में धारण कर लेता है। यह मन प्राण से गति लेकर गतिवान हो जाता है। मन जब द्वितीय रूपों में परिणत होता है तो बुद्धि के रूप में परिणत हो जाता है। बुद्धि ही संसार को दृश्टिपात करती है तथा दृश्टिपात करके उस को क्रिया में लाता हैं जो संसार के पदार्थों को क्रिया में लाने का प्रयास करता है उसे मेधा कहते हैं। वही मेधा जब ऋतम्भरा के रूप में परिणत होता है अपने में मौन होकर के वह ‘ऋतम्भरा वृतम ब्रहा वृतम्’ , मेधा जब ऋतम्भरा और प्रज्ञा को प्राप्त करता है तब संसार की पराकाष्टा  को चिन्तन में लाने तत्पर होता है, तो प्रज्ञावी बन जाता है।

बुद्धि, मेधा, ऋतम्भरा और प्रज्ञावी बन कर मौन हो करके प्रभु को अनुभव में देखने लगता है। यह मनस्तत्व की प्रतिभा कही गई है।

उसके पश्चात् चित्त और अहंकार हैं। अहंकार अपने में अवृत रहता है। यह जो चित्त नाम का स्थान है इसमें एक जन्म नहीं, द्वितीय जन्म नहीं, इस में करोड़ों जन्मों के संस्कार विद्यमान रहते हैं। वह जो चित्त मण्डल है उसको जानने के लिये ऋषि मुनियों ने बड़े बड़े अनुष्ठान किए है  जब मैं अनुष्ठान की शैलियों को कहता हूँ तो एक ऋषि ने तो 105 वर्षों तक सत्यवाद का पालन किया है। मौन रह कर सत्य को उच्चारण किया है और चित्त मण्डल को जानते हुए उन्होंने यह प्रयास किया है कि चित्त में मेरे आवागमन के संस्कार न रहें। मैं उन संस्कारों को समाप्त करने में लगा हुआ हूँ।

चित्त मण्डल
बेटा! मुझे वह काल स्मरण आता रहता है जिस काल में महर्षि कुक्कुट मुनि महाराज के महापिता श्रेणकेतु ऋषि महाराज जिनका जन्म वायु गोत्र में हुआ था। एक समय जब वह अपने में चित्त के मण्डल पर विचार विनिमय करने लगे, ऋषि अपने में अनुसन्धान कर रहे थे, वेद के एक मन्त्र पर विचार कर रहे थे ।चित्रं भवः तरंगः वाचम् व्रवम् वृहेः कृतः। वेद में एक मन्त्र आ रहा था कि यह जो चित्त है इसको हमें जानना है।

चित्त को जानते-जानते, मनन करते हुए, सत्य उच्चारण करते हुए, उनकी सत्य ही में स्थिति हो गई। उनका आहार वायु सेवन हो गया। क्योंकि वायु में जितने पौष्टिक तत्व होते हैं उसको वह खेचरी मुद्रा में प्राण से अपने में ग्रहण करते रहें। उसका ग्रहण करना उसे अपने में लाना देखो ‘‘ब्रह्मेः व्रतमा व्रहः प्राण स्वस्ति रुद्रं वाचन्नमम ब्रह्मा’ वेद का उद्घोष करते हुए उन्हें एक सौ बारह वर्ष हो गये और एक सौ बारह वर्षों में वह इतना जान पाये अपने अनुसन्धान के द्वारा कि अपने नाना जन्मों के जो संस्कार चित्त में विद्यमान थे उन संस्कारों को जान करके वह मोक्ष की पगडण्डी को जानना चाहते थे ।उस पथ को ग्रहण करने के लिये वह तत्पर हो गये जहा उन्होंने करोड़ों जन्मों के संस्कारों में क्या-क्या कर्म  किये थे उन्हें साकार रूप में अनुभव करते हुए ऋषि ने इतना गहन अनुसन्धान किया।

याज्ञवल्क्य महाराज  ने ब्रह्मचारियों से कहा ‘हे ब्रह्मचारियों! हमारे ऋषि मुनियों ने प्रत्येक वस्तु को जानने के लिये बड़ा अनुसन्धान किया है। इसलिये यह चित्त का जो मण्डल है जो भी हम  क्रिया-कलाप करते हैं जो भी हमारे संस्कार बनते है उनका चित्त मण्डल में प्रवेश हो जाता है। ज्ञानेन्द्रियों द्वारा चित्त मण्डल में जो संस्कार प्रवेश हो जाते हैं उन को जान कर हम यौगिक आभा में प्रवेश कर जाते हैं।

अहंकार का स्वरुप

चित्त मण्डल के पश्चात हम अहंकार की प्रतिभा में परिणत हो जाते हैं। अहंकार कहते हैं जो परमाणुओं का मिलान कराता है। जहा इन पंचीकरण के परमाणुओं का मिलन हुआ शिशु के द्वारा तो उन परमाणुओं का अपना अपना स्वभाव जागरूक हो जाता है। वह स्वभाव सब से प्रथम मिलन होने का है क्योंकि अहंकार प्रत्येक वस्तु में मिलनता की प्रतिभा में परिणत करता है। अहंकार उसे कहते हैं जहा एक दूसरा परमाणु संघर्ष करता हुआ वह अपने में तुलना करता है। पिण्ड का निर्माण हो जाता है। नाना नस नाड़ियों का निर्माण हो जाता है।

माता के गर्भस्थल में ही एक शिशु विद्यमान हैं। उस शिशु के होते ही अहंकार की वृतिया। उत्पन्न हो करके उस के चित्त की प्रतिभा और बुद्धि की, मेघावी की वृतका और मनस्तत्त्व यह पंचीकरण की आभा में परिणत हो रहा है। जैसे गुरुत्व है, तेजोमयी है, तरलत्व है। यह तीन प्रकार के परमाणु प्राण में पिरोये जाते हैं और शरीर में पिण्ड बन जाता है। नाना नस नाड़ियों का निर्माण हो जाता है। कोई नाड़ी बुद्धि सूचक है, कोई मनस्तत्त्व सूचक है, कोई पुरातत्त्व नाम की नाड़ी है, कोई पंच लोकाम् वृत्तियों की नाड़ी कहलाती है।

किस नाड़ी का सम्बन्ध हृदय से होता है? उन परमाणुओं से मिलान होता है। माता के गर्भस्थल में जब यह अहंकार अपने स्वरूप में आता है शिशु के साथ अपने पंचीकरण को लकेर के और मन बुद्धि चित्त अहंकार को लेकर के तो हम जैसे पुत्रों का जन्म हो जाता है। मैंने तुम्हें र्कइ काल में यह वाक्य वर्णन कराये है कि निमार्ण में यह कितने सहायक हैं। कोई अमृत दे रहा है, कोई तेजोमयी बना रहा है, कोई प्रकाश दे रहा है, कोई गति दे रहा है, कोई अवकाश दे रहा है। ।
याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने ब्रह्मचारियों से कहा ‘हे ब्रह्मचारियों! देखो वह शिशु जो तुम में विद्यमान है मानो एक प्रकार का वह याग हो रहा है। इस याग के ऊपर तुम्हें मनन और चिन्तन करना है। इस याग के ऊपर तुम्हें याज्ञिक बन कर अपने को ऊध्र्वा में ले जाना है जैसे यज्ञशाला में यजमान बन कर के आहुति देता है अपनी मनस्तत्व प्रवृतियों को शान्त कर के मानव शान्त को जाता है। तो वह अपने में अपनेपन को दृश्टिपात करता रहता है।

  • महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज के प्रवचनों से साभार