Maharshi Yagyavallakya was a true scientist of both the worlds.

महर्षि याज्ञवलक्य की अन्तर्जगत के साथ साथ विज्ञान जगत में भी थी महान पकड़।

महर्षि याज्ञवल्क्य जहाँ ब्रह्म विचारक तथा ब्रह्मवेत्ता थे, वहाँ उनकी विज्ञानशाला मे लोको की उड़ान उड़ी जाती थी। एक बार ब्रह्मचारी कवन्धी तथा गार्गी मे वाद उत्पन्न हुआ कि वह आकाश गंगा क्या है? बात का निपटारा न होने पर दोनो ने मध्यरात्रि मे याज्ञवल्क्य मुनि के शयन कक्ष मे  प्रवेश किया और उन्हे जागरूक करके अपने वाद को प्रस्तुत करते हुए कहा कि वेदमन्त्र मे आ रहा था कि यह आकाश-गंगा लोको का क्षेत्र है, क्या यह सत्य है? याज्ञवल्क्य ने कहा कि हे ब्रह्मचारी! तुम मेरे यहां अध्ययन करते हो। तुम्हे यह प्रतीत है कि विद्यालय मे जहां यज्ञशाला है वहाँ वैद्यशाला है और वहीं विज्ञानशाल है। इस विज्ञानशाला मे यह यन्त्र विद्यमान हैं। इन यन्त्रो से दृष्टिपात करो। वह इन दोनो को प्रत्यक्ष दृष्टिपात कराने लगे। उन यन्त्रो मे आकाश गंगाएं दृष्टिपात आने लगीं।

उन्होने कहा कि हे ब्रह्मचारियो! तुम्हे मालूम  है कि जब मैं एक आकाश गंगा मे पहुँचा तो उसके सूर्यों की गणना करने लगा। मैंने जब 3 खरब 5 करोड़ 500 सूर्यों की गणना की तो उसके पश्चात् मैंने ध्रुव-मण्डलों की गणना की। जब मैंने 2 अरब के लगभग ध्रुव-मण्डालों की आकाश-गंगा मे गणना कर ली तो ज्येष्ठाय नक्षत्र मे पहुँच गया। जब ज्येष्ठाय नक्षत्रो की गणना करने लगा तो जब एक अरब ज्येष्ठाय नक्षत्रो की एक आकाश-गंगा मे गणना कर ली तो मौन हो गया और कहा कि यह तो परमात्मा का अनन्त मण्डल है।

जैसे परमात्मा अनन्त है वैसे उसका ब्रह्माण्ड, उसका स्वरूप भी अनन्त है। आगे उन्होंने कहा कि हे ब्रह्मचारियो! एक आकाश गंगा की गणना करने के पश्चात् मैंने आगे उड़ान उड़ी तो द्वितीय आकाश गंगा दिखने लगी। मैंने 272 आकाशगंगाएँ अपने यन्त्रो के द्वारा देख ली।   

यह सुनकर दोनो ब्रह्मचारी मौन हो गए। मौन हो करके उन्होंने  आगे कहा कि यह तो अनन्त मण्डल है। परन्तु अब क्या किया जाए।

तब याज्ञवल्क्य ने कहा कि हे ब्रह्मचारियो! यह मानव की परमाणुवाद की उड़ान है। यह हमारे यहाँ परमात्मा से उड़ी जाती है। यह तो विज्ञान का विशाल क्षेत्र है, परमात्मा की कृति वाला क्षेत्र है। यदि इसमे प्राणी को अभिमान हो तो अणुवाद के ही सहारे रमण करता हुआ यह लोको को प्राप्त हो जाता है। परन्तु इसमे अभिमान की मात्रा प्रायः आ जाती है।

क्योंकी यह अणुवाद का क्षेत्र प्रकृति का क्षेत्र है। जब हम इसके ऊपर अध्ययन करने लगते हैं, तो वेद का मन्त्र कहता है कि प्रत्येक मानव को तपस्वी बनना चाहिए। अब एक स्थान मे तो विज्ञानवाद है, यन्त्रवाद है, चित्रवाद है, शब्दो के साथ मे  चित्रो की उड़ान है और एक स्थान मे वेद का ऋषि कहता है कि हृदय को तपाना चाहिए। जितना हृदय तपा हुआ होगा उतना ही मानव के जीवन मे  प्रकाश होगा।

आगे ऋषि कहता है कि-वास्तव मे विशाल विज्ञान से गूंथा हुआ जो वैदिक विचार है, उसको मानव को अपनाना चाहिए। मानव को अपने मे धारण करते हुए, इस संसार से पार हो जाना चाहिए। यह मानव का कर्तव्य  कहलाया गया है। इसी विज्ञान को विचार-विनिमय करते हुए प्रत्येक मानव यहाँ कर्तव्य पालन करने के लिए आता है। तपस्या मे जाना ही मानव का कर्तव्य है। तप यह है कि प्रत्येक वस्तु मानव की सीमा मे बद्ध रहनी चाहिए।

 महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार