The Philosophy of Yagya, vedic yagya in hindi

समिधा का तत्वदर्शन

बेटा! आज मैं तुम्हें उसी विद्यालय में ले जा रहा हूँ जहाँ  अग्नि और देवताओं का पूजन होता रहा है। पूजन का अभिप्राय यह है कि हमें देवत्व बनने के लिये उन देवताओं के गुणों को अपने में धारण करना होगा। तब हम देवत्व को प्राप्त करते हैं।

याज्ञवल्क्य मुनि महाराज के यहाँ  प्रातःकालीन मन्त्रों का उद्घोष होता था।  वह जब अपनी क्रियाओं से निवृत्त हो करके यज्ञशाला में पधारते तो वहा ब्रह्मचारीजन, आचार्यजन जब विद्यमान होते तो वेद मन्त्रों का उद्घोष करते, न्यौदा में से वेदमन्त्र उच्चारण करते हुए उद्बुद्ध अग्नि को प्रकाश में लाते हुए उन्होंने समिधाओं का अग्न्याधान किया।

हमारे यहाँ समिधाओं के भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वरूप माने गये हैं। समिधा उसे कहते हैं जो अग्नि को प्रदीप्त करने वाली हो ।इसीलिये हमारे यहा ज्ञान की जो बातें (युक्तिया)  होती हैं वह भी समिधा कही गई हैं जिससे हमारे हृदय में ज्ञान की तरंगों का जन्म हो जाये ।और ज्ञान की तरंगों का जन्म हो करके उससे हम अपने ज्ञान को उद्बुध कर सकें।
एक समिधा हमारे यहाँ वह भी मानी गई है जो प्रत्येक इन्द्रियों के ज्ञान की, इन्द्रियों का जो क्रिया-कलाप है जब इन्द्रियों के प्रत्येक कार्यरूप को हम साकल्य रूप में एकत्रित कर लेते हैं तो साकल्य रूप में एकत्रित करके वह समिधा धारण करते हुए उसमें जो ज्ञान रूपी अग्नि प्रदीप्त होने जा रही है उस ज्ञान रूपी अग्नि में हम जब स्वाहा उच्चारण करते हैं तो हमारी प्रत्येक इन्द्रियों का जो ज्ञान है वह उद्बुध हो जाता है और उद्बुध हो करके वहीं प्रकाश में लाते हुए मानव याग में परिणत होता हुआ साकल्य को जब आहुति रूप में स्वाहा करता है तो मानो ज्ञानरूपी अग्नि प्रदीप्त हो जाती है।

वह उद्बुध स्वाहा अग्नि कह कर ही मानो अग्नि को प्रदीप्त करता रहता है। ज्ञान रूपी अग्नि को साकार रूप में लाने का प्रयास करता है।

ब्रह्मचारीजन और आचार्यजनों द्वारा प्रातःकालीन प्रत्येक विद्यालय में अग्न्याधान होता रहा है। अग्नि का आधान होता है, अग्नि को प्रदीप्त किया जाता है। यहाँ अग्नि को प्रदीप्त करने का नाम ज्ञान को उद्बुध करना है और ज्ञान की प्रतिभा को लेकर कर अपने जीवन को ऊँचा  बनाते रहना हैं।

महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज - श्रृंगी ऋषि