Real Meaning of Yagya and Sacrifice in Yagya in Hindi

प्राचीन काल में यज्ञ और बलि से संबंधित घटनाओं का पुनरावलोकन


वाजपेयी यज्ञ का जब चलन हुआ महाभारत काल के पश्चात तो वाजपेयी यज्ञों में बैल की बलि का वर्णन आया परन्तु बलि का वर्णन ये हुआ ‘‘सम्भवतिः ब्रह्मवाचाः’’ उसमें एक वर्णन आया कि वत्रासुर इत्यादियों को देखो, वृष्टि यज्ञ सम्पन्न हुआ तो वहा काले हिरन का वर्णन आता है। तो मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने व्याख्या की कि यज्ञ को काला हिरन ले गया उसने उसे वत्रासुर को प्रदान कर दिया और वत्रासुर ने मानो उसकी वॄष्टि कर दी और वृष्टि  करते ही  वहा बैल की बलि का वर्णन आता है। गऊ के बछड़े की बलि का वर्णन आता है।


परन्तु देखो, बलि के वर्णन को इस प्राणी ने अज्ञानता के कारण ठीक से जाना नहीं। देखो, हमारे यहा काला हिरन कहते हैं धूम्र को और जब यह धूम्र मेघों में परिणत हो गया उस यज्ञ के परमाणुओं का नाम हमारे यहा हिरन कहा जाता है। और वत्रासुर नाम मेघों का है तो  इन परमाणु को लेकर के देखो, जब वह मेघों को प्रदान किया गया मेघों ने उसकी पृथ्वी पर  वर्षा कर दी। जब वृष्टि हुई तो गऊ के बछड़ों (बैलो) ने , धरती  में खेती करते हुए उसमें बीज की स्थापना की, वहा परिश्रम करने का नाम बैल की बलि का वर्णन माना गया है। परन्तु देखो, इस प्रकार जब साहित्यों में भ्रष्टता आ गयी तो इसको मानव अज्ञानता के कारण नहीं जान पाता।


यह संसार यज्ञ रूप माना गया है। परमपिता परमात्मा ने सृष्टि के प्रारम्भ में यज्ञ रूपी यह ब्रह्माण्ड की रचना की है जैसा मेरे पूज्यपाद गुरुदेव कहा कहते हैं कि यह जो संसार है यह एक यज्ञशाला है मानव का शरीर एक यज्ञशाला है मानव का गृह एक यज्ञशाला है मानव का मुखारविन्द मानो अग्नि में एक आहुति दे रहा है इस प्रकार की विचारधाराए। हमारे मानवीय मस्तिष्कों में आती रहती हैं।


गोमेघ यज्ञ करना है तो वहा गऊओं की रक्षा होनी चाहिये ।अश्वमेघ यज्ञ करना है तो राष्ट्र और प्रजा को ऊँचा बन करके राष्ट्र में हिंसा नहीं होनी चाहिये ।परन्तु यदि घेनु यज्ञ करना है तो अपनी बुद्धियों को स्वतन्त्र बनाकर  विद्या की रक्षा करनी है। यदि नरमेघ यज्ञ करना है तो नरों की, प्राणियों की रक्षा, सुशिक्षा  होनी चाहिये।यदि यह वाजपेय  यज्ञ करना है तो गऊ के बछड़े की बलि न देकर पृथ्वी को उपयोग में लाना ही यज्ञ कहा जाता है। इसी प्रकार भिन्न प्रकार के देवी यज्ञों में भी प्रायः ऐसा होता है। देवी यज्ञ को ऊचा बनाना है, महान बनाना है।  


प्रभु को बलि स्वीकार नहीं  


प्रभु के लिये, देखो प्राणी को यदि अर्पित करना है तो अपने मन और प्राण को अर्पित कर दो, तो तुम प्रभु के भक्त बन जाओगे। जब तुम अपनी कुरीतियों की बलि प्रदान करोगे तब प्रभु उन्हें स्वीकार करेंगे । इस प्रकार की विचार धाराए प्रत्येक समाज में, राष्ट्र  में आ जानी चाहिये जिससे समाज में एक मानवीयता का प्रसार, मानवीय दर्शन, मानव के समीप आ जाये ।  हिंसा ही मानव की मृत्यु है और रक्षा ही मानव का जीवन है। प्राणि मात्र की रक्षा करो, रक्षा करने से जीवन का उत्थान होगा।


अश्वमेधादि यज्ञ के सूक्ष्म अर्थ और अंधकार युग का वाममार्ग


अश्वमेघ याग राम या और भी नाना राजा-महाराजा अश्वमेघ याग करते रहे हैं। महाभारत के काल में भी इस प्रकार के याग हुए। त्रेता के काल में भी इस प्रकार के याग भगवान राम ने अपने जीवन में अयोध्या में पांच अश्वमेघ याग कराए।


राजा रावण ने इक्कीस अश्वमेघ याग कराए अपने राष्ट्र में प्रकार के याग परम्परा से होते रहे हैं। महाभारत के काल में पाण्डवों ने दो याग कराए। मध्यकाल में भी राजा इस प्रकार के याग कराते रहते थे।
याग का अभिप्राय यह लिया कि हिंसा नहीं होनी चाहिए, अहिंसामयी याग होने चाहिए। याग का अभिप्राय यह है कि अहिंसा परमोधर्मः। इसका जो क्रिया-कलाप है वह तपस्वियों का, यौग और वेद के वांग्मय में इस का वर्णन आता है। परन्तु महाभारत काल के पश्चात् याग का तिरस्कार हुआ।


उस अंधकार युग में अश्व नाम घोड़े का स्वीकार कर लिया और घोडे के प्रत्येक अंग की यज्ञ में आहुति देना और उसके मांस को प्रसाद बना कर मानो उसको आहार के रूप में लाना यह याग का तिरस्कार हुआ। इस प्रकार अश्वमेघ याग का तिरस्कार ही नहीं यहा नरमेघ, देवी याग और वाजपयेी याग में भी इस प्रकार की हिंसा का प्रारम्भ हो गया।

याग अपने में सिमट करके अपनी आभा में निहित हो गया और मानव समाज मांस का आहार करने लगा। नाना प्रकार के सम्प्रदाओं में नाना प्रकार के रूपों में इस मांस का आहार प्रारम्भ हुआ। इसके आहार के प्रारम्भ होने पर इस पृथ्वी मण्डल पर प्रत्येक मानव इस आहार का प्रतिहारी बन रहा है। 95 प्रतिशत प्राणी इस आहार का प्रतिहारी बन रहा है और केवल पांच प्रतिशत प्राणी इस आहार से अपने को विमुख स्वीकार करता है यह वाम मार्ग नहीं (अन्धकार) तो इसे क्या कहा जाए।

महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज ( श्रृंगी ऋषि)