Theory of Nation's ideal: महाराजा ज्ञानश्रुति तथा महर्षि भारद्वाज संवाद

भारद्वाज-हे ब्रह्मज्ञानी राजन्! मैं यह जानना चाहता हूँ कि राष्ट्र का प्राण क्या है?  
ज्ञानश्रुति-भगवन्! राष्ट्र का प्राण ईश्वरवाद है।  

भारद्वाज-राष्ट्र की क्रान्ति क्या है?
ज्ञानश्रुति-राष्ट्र की क्रान्ति मानव मे वे मानवीय विचार हैं जो राष्ट्रीय-क्रान्ति लाते हैं। अपना-अपना अधिकार पाने के लिए महान् क्रान्ति हुआ करती है।  

भारद्वाज-राष्ट्र की शान्ति क्या है?  
ज्ञानश्रुति-राष्ट्र की शान्ति है राजा के राष्ट्र मे यज्ञ-कर्म होना। यज्ञादि कर्मों का होना ही राष्ट्र मे शान्ति मानी गयी है। इस प्रकार राष्ट्र का प्राण ईश्वरवाद है; शान्ति यज्ञ है तथा क्रान्ति मानव का कर्तव्य है। इसलिए मानव मे ईश्वरवाद होगा तो कर्तव्य होगा, कर्तव्य होगा तो यज्ञ होगा, यज्ञ होगा तो मानव को राष्ट्र मे सुख होगा, शान्ति होगी और महत्ता की जिज्ञासा सदैव मानव के हृदय मे प्रदीप्त होती रहेगी।  

भारद्वाज-राष्ट्र का भूषण(गहना) क्या है?  
ज्ञानश्रुति-राष्ट्र का भूषण राष्ट्र का चरित्र है। राजा के राष्ट्र में जितना चरित्र होगा, उतना ही राष्ट्र पवित्र होगा। अतः राष्ट्र मे चरित्र होना चाहिए।  

भारद्वाज-हे राजन्! आप राजा हैं,अधिराज हैं, राजा के राष्ट्र में वसुन्धरा क्या है?
ज्ञानश्रुति-हे ऋषिवर! राष्ट्र की वसुन्धरा मानव की प्रतिभा है। मानव की प्रतिभा मे जो ज्ञान-विज्ञान है, यही राष्ट्र की वसुन्धरा है। वसुन्धरा का अभिप्राय है जिसमे हम बसते हैं। अतः राष्ट्र की प्रतिभा ही मानवता मे परिणत रहने वाली है। इसीलिए हमारे यहाँ उसे राष्ट्र की प्रतिभा को स्वीकार किया गया है।  

भारद्वाज-क्या आप इसका विश्लेषण जानते हैं?
ज्ञानश्रुति-हे भगवन्! राजा के राष्ट्र मे जितना चरित्रवाद होगा। एक मानव दूसरे का विश्वासी होगा; एक नारी राष्ट्र के एक भाग से दूसरे भाग तक जाने पर उसको माता तथा भौजाई के अतिरिक्त अन्य दृष्टि से कोई न देखे, यह चरित्र है। दूसरी मीमांसा चरित्र की यह है कि राष्ट्र मे द्रव्य का सामान्य दृष्टि से व्यापकता के साथ सन्तुलित वितरण होना। इससे राष्ट्र मे सच्चरित्रता होती है। दूसरे के अधिकार को जो मानव हनन करता है वह भी अचरित्रवान व्यक्ति माना जाता है। इसलिए राष्ट्र मे सर्वत्र समान विभाजित वस्तुएं होनी चाहिए।

भारद्वाज-कर्तव्य  किसे कहते हैं?  
ज्ञानश्रुति-जो मानव अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ अपने अधिकार पर निर्भय रहता है, वह कर्तव्यवादी है, वह अपने जीवन की प्रतिभा मे  कटिबद्ध रहता है, उसमे मानवता एक महत्ता होती है, उसी से वह अपने जीवन को स्वराष्ट्र बना लेता है।

भारद्वाज-राजा के राष्ट्र की क्रान्ति क्या है?
ज्ञानश्रुति-क्रान्ति उसे कहते हैं जो मानव अपने कर्तव्य का पालन करने के पश्चात अधिकार को स्वीकार करता है तथा अपने अधिकार मे ही सन्तुष्ट रहता है। जो दूसरो के अधिकार को छीनने का प्रयास करता है, उस समय राष्ट्र मे अजीर्ण हो जाता है। जहाँ अजीर्ण होता है, वहां क्रान्ति नहीं होती। वहाँ मानव एक-दूसरे के रक्त का पिपासु बन जाता है। अतः अपने अधिकार से सन्तुष्ट रहने को क्रान्ति  कहते हैं, तथा दूसरे के अधिकार को छीनने का प्रयास करने वाल को दण्डित करना चाहिए, क्योंिक यह प्रवृत्ति रक्तभरी क्रांति को जन्म देती है।

भारद्वाज-राष्ट्र मे पवित्रवाद, मानवता तथा महत्ता को वसुन्धरा कहते हैं, इस वसुन्धरा की मीमांसा क्या है?  
ज्ञानश्रुति-हे ऋषिवर! राष्ट्र मे इस प्रकार के वैज्ञानिक होने चाहिएं जो खाद्य और खनिज-पदार्थों के जानने वाल हो। जहाँ खाद्य और खनिज-पदार्थों पर अनुसन्धान होता रहता है वहाँ पर पवित्रवाद होता रहता है। माता वसुन्धरा या प्रकृति के गर्भ मे क्या नहीं होता। राष्ट्र मे  खाद्य-पदार्थ अधिक होने चाहिएं। ये तभी होंगे जब अनुसन्धान करने वाल व्यक्ति हो,एवं जो बुद्धि के विशेषज्ञ हो।  जब वे माता के गर्भ मे अनुसन्धान करने को कटिबद्ध होते हैं तो गर्भ मे नाना प्रकार की धातुओ को तथा खनिजो को जानकर, उनसे नाना प्रकार के यन्त्रो को बनाकर दूसरे लोको मे  भ्रमण करते हैं।

जब इस प्रकार ऊँचे-ऊँचे विभाग राष्ट्र मे होते हैं तो वह पवित्र होता है। यही वसुन्धरा की मीमांसा है। वसुन्धरा नाम माता का भी है। जो माता अपने गर्भस्थल से सुन्दर-सुन्दर पुत्रों को जन्म देती है वह संसार मे पूज्यनीय होती है। वह माता वसुन्धरा वास्तव मे पूज्य है। उसकी मानवता उसका गर्भाशय है। वह उस समय उज्ज्वल होता है जब कृष्ण जैसे महापुरुष तथा कणाद और गौतम जैसे वैज्ञानिक को जन्म देता हुआ उसका गर्भाशय पवित्र होता है।   

भारद्वाज-हे राजन्! आपके राष्ट्र मे जहाँ मानवता के अंकुर होते हैं वहाँ एक धारा होती है, यज्ञ-कर्म होते हैं। आपके राष्ट्र मे यज्ञ-कर्म किसे कहते हैं?  

ज्ञानश्रुति-भगवन्! मेरे राष्ट्र मे नाना प्रकार के संकल्प को जानने वाल तथा अग्नि मे आहुति देने वाल हैं। जब अग्नि मे आहुति दी जाती है तो राष्ट्र सुगन्धमय हो जाता है। विचारो तथा नाना प्रकार की वनस्पतियो की सुगन्धि जिस राजा के राष्ट्र मे होती है, वह राष्ट्र वास्तव में पवित्र होता है। मेरी यही कामना रहती है, तथा इसी को लेकर मैं राष्ट्र का पालन करता हूँ। मेरे राष्ट्र मे ईश्वरवाद की प्रतिभा रहनी चाहिये क्योकि ईश्वरवाद ही राष्ट्र का भूषण है।  

-महर्षि कृष्णदत्त जी महाराज के प्रवचनों से साभार