Who were Ashvini Kumar. अश्विनी कुमार का जीवन परिचय - महर्षि कृष्णदत्त जी की वाणी में

अश्विनी कुमार  का जीवन परिचय - महर्षि कृष्णदत्त जी की वाणी में

अश्विनी कुमार महान् वैद्यराज थे। ये दोनो भाई माता सोमलता तथा पिता शोगेमिक ऋषि के पुत्र थे। एक का नाम अश्विनी तथा दूसरे का नाम कुमार था। सोमलता के पिता शृंगी ऋषि थे। सोमलता ने अपने पिता से आयुर्वेद  का अध्ययन किया था। उसने यहाँ तक अनुसन्धान किया था कि कौन-कौन से मास मे कौन-कौन सी औषधियो का पान करने से बालक का कौन-कौन सा अंग बलवान होता है। वास्तव मे प्रत्येक माता को आयुर्वेद की विदूषी होना चाहिए।

जिस समय अश्विनी कुमार गर्भ मे थे तो उसने अपने अनुसन्धानो के आधार पर ही चलकर इनको विकसित किया था। इन दोनो का जन्म एक साथ ही हुआ था। माता के अनुसन्धान के अनुसार प्रथम मास मे परमात्मा पाक-घृत को बना देता है। प्रथम महीने से ही गर्भ में बालक का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है तथा चतुर्थ मास मे जरायुज पूर्ण हो जाता है। तथा उसका कार्य समाप्त हो जाता है।

इससे आगे नाना प्रकार की औषधियो, नाना कान्तियो, किरणो तथा ओज के द्वारा बालक गर्भ मे बलवान होता है। छठे मास मे बालक की बुद्धि का निर्माण होता है। उस समय माता ने नाना प्रकार की औषधियो का पान किया। इस प्रकार अश्विनी कुमारो का जन्म हुआ। इन्होंने पठन-पाठन का कार्य महाराजा अश्वपति के राज्य में किया था। ये ही अश्विनी कुमार राजा रावण के यहाँ विराजमान हुए थे। दोनो ने बाल्यकाल मे आयुर्वेद की शिक्षा पाने के पश्चात् दधीचि के आश्रम मे ब्रह्म का उपदेश पान किया। इसके पश्चात् वे यहीं कार्य करने लगे। उनको वैद्यराज की उपाधि दी गई थी। ‘सुधा अमृत वैद्य’ जिसको सुर्धामा भी कहते हैं इन्हीं का शिष्य था।  ये कण्ठ से ऊपर वाले भाग को छः मास तक औषधियो मे स्थिर कर देते थे, वे नाना लपेन भी जानते थे। एक वर्ष तक मानव हृदय को औषधियो  के पात्र में  स्थिर कर देना तथा मानव के शव को औषधियो के द्वारा ज्यो का त्यो बना देना तथा एक वर्ष पश्चात् ज्यो का त्यो हृदय को स्थिर करना वे जानते थे।  

जब अश्विनी कुमार वेद-विद्या मे पारंगत हो गए और नाना प्रकार की औषधियो का पान करने से वे उनके विधान से सुन्दर-सुन्दर रूपो को जानने लगे तो वे इतने प्रकाण्ड आयुर्वेदज्ञ बन गए, और उनकी बुद्धि इतनी तीव्र हो गई मानो उनके समक्ष औषधि स्वयं उच्चारण करने लगती थी ‘कि मैं अमुक रोग की औषधि हूँ।’

एक बार उन्होंने विचार बनाया कि हम ब्रह्मवेता बनेंगे। उन्होने नाना ऋषियो के आश्रम मे भ्रमण करना आरम्भ किया। जब वे शौनक ऋषि के आश्रम मे पहुंच तो उसी समय इन्द्र ने घोषणा कर दी कि जो अश्वनी कुमारो को ब्रह्मविद्या का उपदेश देगा, उसके कण्ठ के ऊपर के भाग को उतार लिया जाएगा। इस घोषणा को सुनकर कोई भी ऋषि उन्हे ब्रह्मविद्या का उपदेश देने के लिए सन्नद्ध न हुआ। भ्रमण करते हुए वे महर्षि दधीचि के आश्रम मे पहुँचे -  ये कामधेनु का दुग्धपान करते थे तथा ब्रह्मवेत्ता बन गए थे। ये वही दधीचि थे जिन्होने अपनी अस्थियो का दान कर दिया था और देवत्व को प्राप्त हो गए थे।

जब अश्विनी कुमारो ने उनसे ब्रह्मविद्या प्राप्त करने की प्रार्थना की तो दधीचि ने भी इन्द्र की घोषणा का सन्दर्भ देकर मना कर दिया। तब अश्विनी कुमारो ने कहा कि हम ऐसा कर सकते हैं कि आपके कण्ठ के ऊपर के भाग को पृथक् करके औषधियो मे सुरक्षित कर दे  और आप इस अश्व के सिर से हमे उपदेश दीजिए। यह सुनकर दधीचि को आश्चर्य हुआ।

अश्विनी कुमारो ने अनेक औषधियां एकत्रित कीं, उनका पात बनाया, उसमे दधीचि के सिर को सुरक्षित रख दिया और उसके स्थान पर अश्व का सिर रख दिया। दधीचि के हृदय से ब्रह्म का उपदेश होने लगा।

यहाँ यह शंका होना स्वाभाविक है कि क्या अश्व के सिर से मानव की वाणी का उच्चारण हो सकता है। इसका समाधान यह है कि अश्विनी कुमार एक अश्वक नाम की औषधि को जानते थे, जिनको मन्थन करके चालीस दिन तक पान करने से मानव अश्व की वाणी को श्रवण करने लगता है।

इस प्रकार जब अश्विनी कुमारो ने अश्व की शिक्षा से इस विद्या को पान कर लिया। इस विद्या को इन्द्र भी जानता था।  जब इन्द्र को प्रतीत हुआ कि अश्विनी कुमार दधीचि के आश्रम मे ब्रह्मविद्या प्राप्त कर रहे हैं तो उसने दधीचि के कण्ठ के ऊपर के भाग को पृथक् कर दिया। उसके चले जाने के पश्चात् अश्विनी कुमारो ने उसके वास्तविक मस्तिष्क को लकेर उसके कण्ठ पर पुनः आयोजित कर दिया। 1-कुक, 2-त्रिगाढ़, 3-रेश्मिन, 4-काचन, 5-सौममुनि, 6-काकाऊनी नाम की छः औषधियो को तपाकर पात बनाया जाता है। जिस मानव का कण्ठ पृथक् हो गया हो, उसको ज्यो का त्यो लगाकर इस पात का लेपन कर देना चाहिए।

यह लपेन के पश्चात् एक ही दिवस मे वह सुरक्षित हो जाता है जब दधीचि ज्यो के त्यो बन गए, तो ब्रह्म का उपदेश प्रवाह के साथ होने लगा। जब इन्द्र को यह प्रतीत हुआ कि अश्विनी कुमारो ने दधीचि को ज्यो  का त्यो कर दिया है और वह तो अश्व का सिर था, तो इन्द्र को बड़ा पश्चाताप हुआ। क्योंकि  वह पुनः उसको नष्ट नहीं कर सकता था। यह अश्विनी कुमारो की आयुवर्दे विद्या का परिचय है।

अश्विनी कुमारो के विषय मे कहा जाता है कि उन्होने  101 वर्ष तक आयुर्वेद पर अनुसन्धान किया था। उन्हे इतना अभ्यास हो गया था कि निन्द्रा मे, स्वप्न मे उन्हे ऐसा प्रतीत होता था जैसे मन औषधियो मे चरने जा रहा हो। जागरूक होने पर मन उन्हे निश्चित करा देता था कि अमुक औषधि, अमुक रोग मे कार्य करती है।

- महर्षि कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से साभार